कर्म और मोक्ष

जीवन की वर्तमान उलझनों को किसी भी मात्रा अथवा कोटि के कर्म के माध्यम से पूर्णतया दूर नहीं किया जा सकता, केवल वास्तविक ज्ञान, जो कर्मों से मुक्ति द्वारा मोक्ष सुनिश्चित करता है, यह कर सकता है। मोक्ष कभी भी किसी कर्म का फल नहीं है। ज्ञान की अवस्था में फल प्रदान करने की क्षमता कर्म खो देता है (क्योंकि ज्ञान की अवस्था वाला कर्म निष्काम होता है) : यहाँ फल का अर्थ है वे भोग जो कर्म के परिणामस्वरुप कर्ता को चखने के लिए प्राप्त होता है। शरीर को जीवित रखने के लिए कर्तव्य-कर्म और वैसे ही निष्काम कर्म एक ज्ञानी के लिए इस तरह के फल नहीं देते। यही कारण है कि केवल निष्काम कर्म ज्ञानी द्वारा किया जाना चाहिए। इस अर्थ में कर्म और ज्ञान एक हंस के दो पंख हैं: पहला पंख है अविद्या (यानी, कर्मकाण्ड) जो मृत्यु का समुद्र तरने में सहायक है, और दूसरा पंख है (ब्रह्म-)विद्या जो उसके उपरान्त मोक्ष की प्राप्ति और अमरत्व का साधन है (-ईशोपनिषद : “अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा ….” )। यही कारण है कि वास्तविक (ब्रह्म-) विद्या का निचोड़ ईशोपनिषद की उस शाखा के अन्तिम यजु: ( = “वेदान्त”) में दिया गया है जो आर्यावर्त के 90% से अधिक लोगों का मुख्य वेद है (- ऋषि याज्ञवल्क्य के शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा :– “हिरण्यमयेन पात्रेण …”)।

किसी सकाम कर्म के फल दो प्रकार के होते हैं (और दोनों फल एक साथ ही मिलते हैं) : एक है सांसारिक फल अर्थात भोग जो हर किसी को दिखता है, और दूसरा फल संस्कार में जुड़ जाता है। संस्कार का अर्थ है सभी जन्मों के समस्त पिछले कर्मों के फलों का कुल योग, और यह कार्य करता है इन्द्रियों में रहने वाली नई इच्छाओं के रूप में जो उसी कोटि की पुरानी इच्छाओं में जुड़ जाती हैं और उनको और भी बलवती करती हैं । मोक्षप्राप्ति के लिए संस्कारों के पूरे समुच्चय को भस्म करना पड़ता है । कोई व्यक्ति अपने बूते पर ऐसा नहीं कर सकता, किन्तु यदि व्यक्ति ईमानदार है तो कमी ईश्वरीय सहायता से दूर हो जाती है। उसके बाद, भक्त और भगवान के बीच अन्तर समाप्त हो जाता है, और केवल ‘एक’ सर्वत्र विद्यमान रहता है। अल्बर्ट आइंस्टीन (ein-st-ein) के नाम अर्थ बहुत ही सुन्दर अर्थ है : “एक (जीवात्मा) ही एक (परमात्मा) है” (अर्थात अद्वैतवाद जो वेदविरोधी सेमेटिक यहूदियों के वैदिक प्रागैतिहास का अवशेष है)। यही माध्यन्दिन ईशोपनिषद के अन्तिम मन्त्र का अर्थ है।

यह कहना गलत है कि अमुक ग्रन्थ वेदान्त का अन्तिम पाठ है, क्योंकि ऋषियों द्वारा वेदान्त पर कई ग्रन्थ हैं और मुझे ऋषियों की परस्पर तुलना करना पसन्द नहीं। वेदान्त मूल रूप से मुख्य वेद का अन्तिम अध्याय है : यजुर्वेद (यज्ञ का वेद ही मुख्य वेद है), जो ईशोपनिषद के रूप में प्रसिद्ध है, और इसीलिए इस तरह के अन्य ग्रन्थों को भी वेदान्त के अन्तर्गत रखा गया (यजुर्वेद के कतिपय अन्य अध्यायों में भी कई ब्रह्मयज्ञ के मन्त्र हैं)। ईशोपनिषद आरम्भ होता है अनिवार्य कर्म करने की आवश्यकता पर बल देने से, और पूर्ण ज्ञान के साथ समाप्त होता है।

ज्योतिष के साथ-साथ अन्य विषयों में भी मैं अपने छात्रों से उन कलियुगी लेखकों और भाष्यकारों तथा अनुवादकों से दूर रखने के लिए कहता हूँ जिनके विचार ऋषियों के विचारों से भिन्न हों। आधुनिक “विशेषज्ञ” वास्तव में सकाम कर्म करते हैं किन्तु भ्रम दिलाते हैं कि वे निष्कामी हैं । धर्म का प्रचार करने की इच्छा भी एक इच्छा है।

निष्काम की वास्तविक स्थिति प्राप्त करना बहुत कठिन है, और इसकी पूर्ण प्राप्ति ही मोक्ष है ; इस अर्थ में (निष्काम) कर्म और ज्ञान के बीच कोई अन्तर इस संसार में रहते समय नहीं होता , ज्ञानी द्वारा इस संसार को छोड़ने के बाद अन्तर होता है – क्योंकि तब केवल ज्ञान भी साथ रहता है और संस्कार से पिण्ड छूट जाता है ।

छान्दोग्य उपनिषद कहता है कि मनुष्य्य केवल संकल्प है (क्योंकि मनुष्य की पारिभाषिक विशेषता “मन” पर आधारित है और मन का लक्षण/कार्य है संकल्प), अतः मनुष्य को संकल्प द्वारा परिभाषित किया जाता है। यदि किसी का संकल्प यह है कि पुनर्जन्म कभी नहीं रुकता है, तो कोई भी उस व्यक्ति को पुनर्जन्म लेने से रोक नहीं सकता । प्रत्येक कल्प में विष्णु के 10000 नियमित दशावतार होते हैं जिनके अलावा बहुत से अनियमित अवतार भी होते हैं (http: //vedicastrology.wikidot.com/non-astrological-essays …), और हर बार सप्तर्षि गोत्र आरम्भ करने के लिए आते हैं ; वे मुक्त हैं और बन्धे नहीं हैं। अतः मुक्त पुरुष भी संसार में आ सकते हैं। किन्तु वे अपने पिछले कर्म के फल के कारण नहीं आते हैं। वे सृष्टि की प्रक्रिया में सहायता करने के लिए आते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य पुनर्जन्म के चक्र से अधिक से अधिक जीवों की मुक्ति है। आस्तिक (वैदिक) दर्शन हमेशा बद्ध मनुष्य के पुनर्जन्म-चक्र को बुरा कहते हैं और सदैव इस चक्र से बाहर निकालने की आवश्यकता पर बल देते हैं। यह वक्तव्य अवतार और ऋषियों के लिए असत्य है : “जब भी किसी को (संसार में) वापस आना पड़ता है, तो उसका इस मर्त्यलौकिक संसार में पहले से विद्यमान कुछ तत्वों के साथ कुछ ऋण/ सम्बन्ध होना चाहिए। ऋणों के पुराने बीज पुनः जागृत हो जाते हैं” (यह वक्तव्य सामान्य मनुष्यों पर लागू होता है)। ऐन्द्रिक कामनाओं के बन्धन की स्थिति से छुटकारा पाने की आवश्यकता के बारे में वैदिक दर्शनों के बीच कोई मतभेद नहीं है। वेदान्त में चार प्रकार के मोक्ष हैं। प्रत्येक मुक्त पुरुष को मुक्ति की कोटि का चयन करने का विकल्प मिलता है। मुक्ति के पश्चात भी, पुरुष अपने एक पृथक अस्तित्व का चुनाव कर सकता है और संसार में पुनः आने का विकल्प भी चुन सकता है, किन्तु हर मुक्त पुरुष ऐसा नहीं करता है। मूर्खों ने पुरुष-सूक्त के इस प्रसिद्ध मन्त्र की गलत व्याख्या की है: “ब्राह्मणो मुखम् आसीत …”। राजन्य (क्षत्रिय) को “बनाया गया” (कृत:), वैश्य और शुद्र “उत्पन्न हुए” (अजायत), किन्तु जब सृष्टि आरम्भ हुई तो ब्राह्मण पहले से ही विराट पुरुष के मुख में “आसीत” थे। वे गोत्र-प्रवर्तक सप्तर्षि थे। वे कभी मरते नहीं, वे सामान्य अर्थ में कभी जन्म नहीं लेते । भगवान ब्रह्मा जब सृष्टि की सर्जना करते हैं तो उसमें मनुष्य (और बहुत सी अन्य प्रजातियों) की सर्जना सप्तर्षि करते हैं ।

शास्त्रों के किताबी अध्ययन मात्र द्वारा वास्तविक ज्ञान नहीं मिल सकता । गीता में वर्णित नौ “ब्रह्मकर्मों ” का उल्लेख है जिसमें “ज्ञान” को “विज्ञान” से पृथक किया गया है। वहाँ “ज्ञान” का अर्थ है शास्त्र के अध्ययन द्वारा प्राप्त ज्ञान, और ‘विज्ञान’ का अर्थ है सत्य का साक्षात्कार (प्रैक्टिकल)। दोनों की आवश्यकता है। वैदिक शिक्षा की कमी के कारण दिव्यता के प्रत्यक्ष अनुभव के उपरान्त भी कई साधु बन्धन से मुक्ति पाने में असफल रहे, और केवल शास्त्र पढ़ लेने से ही वैदिक विद्वानों को मोक्ष नहीं मिल सकता क्योंकि उनका ज्ञान अभ्यास से रहित है। सिद्धान्त और व्यवहार (अभ्यास) दोनों का सम्मिलन अनिवार्य है ।

प्राचीन शास्त्रों के कई आधुनिक भाष्यकार “मन” को आधुनिक मनोविज्ञान के “Mind” के रूप में आजकल परिभाषित कर रहे हैं, जबकि मैं जानबूझकर प्राचीन वर्तनी का उपयोग इस तथ्य पर बल देने के लिए करता हूँ कि मैं चित्त (Mind”) के 13 तत्वों में से केवल एक “मन” का जिक्र कर रहा हूं। प्रत्येक जीव में ये सभी 13 तत्व होते हैं और प्रत्येक जीव में ‘मन’ भी होता है। किन्तु ये लोग आधुनिक मनोविज्ञान के चेतन और अचेतन (एवं अवचेतन) परतों के बीच भेद के कारण उलझन में हैं। चित्त के सभी 13 तत्वों में आसुरी (तामसिक) और दिव्य (सात्विक) स्तरों के भेदभाव के कारण चेतन और अचेतन का ऐसा अन्तर होता है । मनोवैज्ञानिकों की तथाकथित आधुनिक “चेतना” असली चेतना नहीं है, यह योग वासिष्ठ के अनुसार जीवन के सभी चार अवस्थाओं में सबसे बुरी (अज्ञान की) अवस्था है: यह जाग्रत अवस्था है जिसमें जीव इन्द्रियों के विषयों वाले संसार के लिए जाग्रत है किन्तु ऐसा जाग्रत जीव सत्य के लिए सुषुप्त है। स्वपन के दौरान इन्द्रियाँ सोती हैं किन्तु मन सक्रिय रहता है। सुषुप्ति में मन भी सोता है और बद्ध जीव सोचता है कि (योग-सूत्र के अनुसार) कुछ भी नहीं है (“अभाव”)। किन्तु सुषुप्ति के दौरान यदि इन्द्रियाँ और मन सोते हैं और जीवात्मा अपने वास्तविक अस्तित्व को नहीं भूलती है तो यह चौथी या तुरीय अवस्था है जो समाधि या स्वरुप-अवस्थिति ही है। इस चौथी अवस्था का निरन्तर अभ्यास धीरे-धीरे इच्छाओं के बन्धन को कमजोर करता है, और एक विशिष्ट सीमा के पश्चात दिव्य अनुग्रह शुद्ध आध्यात्मिकता की ओर आगे खींचने के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने लगता है (जिसके बिना कोई मनुष्य केवल अपने प्रयास द्वारा मोक्ष नहीं पा सकता, जो लोग योग का अटूट अभ्यास ईमानदारी से करते हैं वे जानते हैं कि चौथी अवस्था में मन या बुद्धि सोयी रहती है, और तब यदि संस्कारों के आकर्षण जीव को नीचे खींचते हैं तो दिव्य अनुग्रह अर्थात ईश्वरीय कृपा एकमात्र सहारा है जिसके बलपर जीव आत्मज्ञान तो विस्मृत नहीं करता और अजपा जप जारी रख पाता है)।

जहाँ द्रव्यमान (mass) और भौतिक ऊर्जा का अस्तित्व है केवल वहीं (आइंस्टीन वाले) “सापेक्ष” का अस्तित्व होता है। शुद्ध चेतना के “स्वराज्य” (ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में मिथिला के राजपुरोहित गोतम वाला स्वाराज्य) में किसी भी “सापेक्ष” का अस्तित्व सम्भव नहीं होता , तब केवल निरपेक्ष पूर्ण विद्यमान है, जो ऋग्वैदिक “नेति नेति” है, अर्थात ज्ञान के किसी भी पड़ाव पर रुकते ही ज्ञान समाप्त हो जाता है । केवल अनन्त (मुक्त आत्मा) ही अनन्त (परमात्मा) को समझ सकता है | कामनाओं तथा सभी बन्धनों से मुक्ति पाने के बाद व्यष्टि-पुरुष अनन्त समष्टि बन सकता है, तब वह वास्तविक पुरुष अर्थात पूर्ण चैतन्य बन जाता है |

साभार श्री विनय झा जी

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