मोक्ष कैसे होता है ?

“मोक्ष कैसे होता है ?”

उत्तर —

सारी ईच्छाओं से पिण्ड छूट जाने पर ।

पहले तामसिक ईच्छाओं से,फिर राजसिक से,अन्त में सात्विक ईच्छाओं से भी ।

जबतक तामसिक और राजसिक ईच्छायें हैं तबतक सात्विक ईच्छाओं को त्यागना उचित नहीं । सात्विक ईच्छा का अर्थ है धार्मिक कर्म करने की ईच्छा । पुण्य का फल स्वर्ग होता है,मोक्ष नहीं । स्वर्ग का अर्थ है चार दिन की चाँदनी,फिर मर्त्यलोक का अँधियारा!नरक का अर्थ है चार दिन का कष्ट,फिर मर्त्यलोक का अँधियारा!अतः स्वर्ग और नरक का अन्तिम फल समान है —

मर्त्यलोक का “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” ।

प्राचीन भारत में “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” द्वारा खेतों की सिंचाई होती थी । कूँए से अनेक घड़ों की श्रृङ्खला जल भरकर ऊपर लाती और नाले में उड़ेलकर खाली घड़े पुनः नीचे जल लेने जाते,बैलों द्वारा घड़ों की श्रृङ्खला घूमती रहती थी । इसी तरह जीव कर्मों का फल भोगने के लिये नीचे मर्त्यलोक में गिरता,और उन फलों के समाप्त होने पर मर्त्यलोक से निकलता,किन्तु मर्त्यलोक में नये कर्म करने के कारण पुनः मर्त्यलोक में जाता । प्राचीन अद्वैतवादी ग्रन्थों में “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” के उदाहरण द्वारा जन्म−मरण की अनवरत श्रृङ्खला को समझाया जाता था । इस अनवरत श्रृङ्खला को केवल ईच्छाओं के त्याग द्वारा ही तोड़ा जा सकता है । ईच्छायें नहीं रहेंगी तो नये सकाम कर्म भी नहीं किये जायेंगे,तब उनका फल भोगने के लिये जन्म−मरण के चक्र में बारम्बार फँसना नहीं पड़ेगा ।

ईच्छाओं का त्याग हो जाय तो निष्काम कर्म द्वारा शेष जीवन बिताना चाहिए ।

ईच्छाओं का त्याग केवल दो साधनों द्वारा ही सम्भव है — अभ्यास तथा वैराग्य । वैराग्य का अर्थ है ऐन्द्रिक तुष्टि वाले विषयों की ओर मन के आकर्षित होने का अभाव,और अभ्यास का अर्थ है ऐसा हर उपाय करना जिसके द्वारा वैराग्य मन की स्वाभाविक अवस्था बन जाय ।

सकाम कर्म के दो फल होते हैं । पहला फल तो वह है जिसे पाने के लिये वह कर्म किया गया,भले ही वह फल मिल सके या न मिले । दूसरा फल है उस प्रकार के नये सकाम कर्म करने की ईच्छा का बलवान होना । यह दूसरा फल ही पिछले समस्त कर्मफलों के उस भण्डार में जुड़ता है जिसे “संस्कार” कहते हैं ।

वैदिक संस्कारों अर्थात् अच्छे संस्कारों के अनुसार कर्म करने को “धर्म” कहते हैं । कर्म करने की सही विधि ही “कर्मकाण्ड” है जिसे कलियुग में धूर्तों ने धन्धा बना रखा है । कर्मकाण्ड द्वारा कर्तव्य कर्मों के उचित फल भी प्राप्त होते हैं और उनके फल बन्धन में बाँधते भी नहीं । कर्मकाण्ड को सकाम कर्म का साधन बनाना कलियुग की बीमारी है जिस कारण सनातन धर्म अशक्त हुआ है । संसारिक वासनाओं की पूर्ति के लिये कर्मकाण्ड नहीं हैं । कर्मकाण्ड का प्रयोग केवल कर्तव्यपालन और धर्मरक्षा हेतु ही करना चाहिये,वरना वैदिक यज्ञ भी सकाम बनकर बन्धन में डालेंगे ।

“संस्कार” के सम्पूर्ण समुच्चय के पूर्णतया भस्म होने पर ही मोक्ष मिलता है । किसी मनुष्य में यह सामर्थ्य नहीं कि चौरासी लाख योनियें में अनन्त जन्मों के दौरान किये गये समस्त कर्मों के फलों को अपने जप−तप आदि द्वारा भस्म कर सके ।

किन्तु आधे संस्कार भस्म हो जाने पर सात्विकता बढ़ जाती है । मन की स्वाभाविक प्रवृति सात्विक हो जाने पर ईश्वर जीव को खींचने लगते हैं । बिना ईशकृपा के संस्कारों के अनन्त प्रवाह वाली वैतरणी की विपरीत−तरणी को तैरना जीव के वश की बात नहीं । सही ज्ञान,सही कर्म और सच्ची भक्ति — तीनों अनिवार्य हैं,तब जीव अपने वास्तविक ज्ञान में स्थिर रहना सीख पाता है । ज्ञान ही मोक्ष है,कर्म और भक्ति साधन हैं,किन्तु साधन के बिना साध्य सम्भव नहीं ।

अपने सच्चे स्वरूप से जुड़ना ही “योग” है जिसके ‘अभ्यास’ का सर्वोत्तम साधन है महर्षि पतञ्जलि का “योगसूत्र”,जिसपर सर्वोत्तम भाष्य है महर्षि वेदव्यास का । हिन्दी में इसकी संक्षिप्त और सर्वोत्तम टीका है स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा लिखित और गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित “पातञ्जल योग प्रदीप” जिसमें मूल योगसूत्र का अर्थ तथा व्यासभाष्य को समझने का पूरा प्रयास करें और स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा जोड़ी गयी सारी बातों का महत्व न दें — हालाँकि वे भी उपयोगी हैं परन्तु उक्त दोनों महर्षियों के सामने स्वामी ओमानन्द तीर्थ अथवा हमलोग कुछ नहीं ।

रामदेव,रावणदेव,रहीमदेव आदि से पूरी दूरी बनाकर रखें,वे लोग योगी नहीं हैं,स्वयं भी भटक गये हैं और आपको भी भटका देंगे । उनको मोक्ष नहीं,यश या धन चाहिए । आपको यश या धन चाहिए तो वैदिक कर्मकाण्ड का सही प्रयोग करें,योग या धर्म या कर्मकाण्ड की दूकान न खोलें । आलू−बैंगन बेचना पाप नहीं है,अध्यात्म बेचना पाप है ।

मोक्ष एक ही प्रकार का नहीं होता,किन्तु हर प्रकार के मोक्ष में एक समानता है — उसके पश्चात मर्त्यलोक में पुनरागमन नहीं होता ।

मोक्ष के तीन प्रकार हैं —

मैं “वह” हूँ (पृथक मैं हूँ ही नहीं)।

मैं ही ब्रह्म हूँ ।

ब्रह्म सिन्धु है तो उसमें एक बिन्दु मैं हूँ ।

वस्तुतः उपरोक्त तीनों प्रकार एक ही हैं । मुक्तपुरुष के आत्मा की कोई सीमा नहीं होती,अतः वह सर्वव्यापी ब्रह्म में ओतप्रोत होकर ब्रह्मस्वरूप ही रहता है । किन्तु आवश्यकता पड़ने पर वह चेतना का एक केन्द्रबिन्दु बनकर स्वतन्त्र पुरुष की भूमिका भी निभा सकता है,सप्तर्षियों की तरह ।

बद्ध जीव के आत्मा की भी कोई सीमा नहीं होती,वह भी वास्तव में सर्वव्यापी ब्रह्म में ओतप्रोत होकर सर्वव्यापी रहता है किन्तु अपनी सच्चाई से अनजान रहकर “अहङ्कार” को अपना स्व समझता है जिस कारण अपनी ब्रह्मस्वरूपता को न तो जान पाता है और न ही उस क्षमता का उपयोग कर पाता है । अपनी ब्रह्मस्वरूपता का ज्ञान ही मोक्ष है ।

मोक्ष पाने के पश्चात “जीव” नहीं रहता,केवल चैतन्य आत्म स्वरूप रहता है । आत्मा में तेरा−मेरा वाली भेदबुद्धि नहीं होती । किन्तु मुक्तपुरुष चाहे तो ब्रह्म में सदैव लीन रह सकता है जिस कारण पृथक सत्ता का व्यवहार नहीं रहता,और चाहे तो पृथक सत्ता भी रख सकता है । सारे सप्तर्षि पृथक सत्ता वाले हैं जो हर कल्प में सर्जना में योगदान देने आते हैं किन्तु संसारचक्र में फँसते नहीं । मुक्तपुरुष चाहे तो स्वयं किसी लोक में रह सकता है और निर्माणकाया बनाकर अन्यत्र भेज सकता है ।

मुक्तपुरुष शब्द में पुरुष का अर्थ शुद्ध चैतन्य आत्मतत्व है,न कि मानवलोक वाला स्त्री−पृरुष लिङ्ग । इसी पुरुष के अर्थ को प्राप्त करना पुरुषार्थ है ।

योगाभ्यास के दौरान जीव जब आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है तो अहङ्कार को केन्द्र बनाकर प्रकृति विरोध में हर प्रकार के हथकण्डे अपनाती है । अतः समाज से कटकर योगाभ्यास अनिवार्य हो जाता है,वरना प्रकृति दूसरों के माध्यम से बाधा डालती है । आरम्भ में प्रकृति भूतप्रेत आदि का झूठा स्वाङ्ग रचकर भी डराती है,कभी जीव को मारने का भी प्रयास करती है ताकि मोक्ष न मिले । प्रकृति जड़ है,अपनी आदत के अनुसार चलती है । उसकी आदत है ऐन्द्रिक भोग । अनन्त जन्मों के दौरान यह आदत घनीभूत हुई है । बिन गुरु इस बाधा को तोड़कर आत्मज्ञान के पथ पर आरम्भिक पग रखना सम्भव नहीं । जिसे गुरु नहीं मिला वह जप−तप आदि करता रहे तो समय आने पर ईश्वर गुरु से मिला देते हैं । उससे पहले आत्मज्ञान का आभास हो भी जाय तो कोई लाभ नहीं,भ्रम की तरह वह आभास लुप्त भी हो जाता है ।

शचीन्द्र नाथ उपाध्याय जी ने लिखा —
“शून्य (खं) अनंत आकाश है जो प्रत्ययः परश्च न्यास से पूर्ववर्ति को दस गुणित कर देता है।”

उत्तर —

दशमलव−पद्धति में शून्य ही नहीं बल्कि कोई भी संख्या अपने पूर्ववर्ती को दशगुणित करती है,अतः आपका वक्तव्य भ्रामक और एकपक्षीय है ।

अष्टक−पद्धति अथवा ऑक्टल पद्धति में कोई भी संख्या अपने पूर्ववर्ती को अष्टगुणित करती है । षोडश−पद्धति अथवा हेक्साडेसिमल पद्धति में कोई भी संख्या अपने पूर्ववर्ती को षोडशगुणित करती है । बायनरी पद्धति में कोई भी संख्या अपने पूर्ववर्ती को द्विगुणित करती है । अतः पूर्ववर्ती को गुणित करना शून्य का गुण नहीं वरन गणन पद्धति का गुण है ।

“गुण” उस लक्षण को कहते हैं जो घट या बढ़ सके,गुणित हो सके । ब्रह्म को निर्गुण कहते हैं जिसका यह अर्थ नहीं कि ब्रह्म में कोई लक्षण ही नहीं है,बल्कि यह अर्थ है कि ब्रह्म के लक्षणों में न्यूनता वा वृद्धि सम्भव नहीं,ब्रह्म के समस्त लक्षण सदैव पूर्ण ही रहते हैं ।

दशमलव−पद्धति में पूर्ववर्ती संख्या सदैव दशगुणित ही होती है,उससे न्यून वा अधिक नहीं । पूर्ववर्ती संख्या का यह लक्षण सदैव अपरिवर्तनीय ही रहता है,अतः इस लक्षण को “गुण” कहना अनुचित है ।

शून्य का लक्षण तो यह है कि किसी भी संख्या से गुणित करने पर शून्य उसे भी शून्य बना देता है । गुणित करने का ही दूसरा पक्ष विभाजन है,शून्य से विभाजन किसी भी संख्या को अनन्त बना देता है । अतः अनन्त भी शून्य का ही लक्षण है । अन्य कोई संख्या कभी अनन्त नहीं बन सकती ।

शून्य के और भी बहुत से लक्षण हैं । शून्य के लक्षणों की संख्या अनन्त है,जिनकी पूरी पड़ताल आधुनिक उच्च गणित भी नहीं कर सका है । किन्तु इनमें से कोई भी लक्षण शून्य का “गुण” नहीं है क्योंकि वे लक्षण घट या बढ़ नहीं सकते । अतः शून्य निर्गुण है,गुणातीत है,और सामान्य गुणों से पार्थक्य दिखाने के लिये कहा जा सकता है कि ब्रह्म की तरह शून्य में भी सामान्य नहीं वरन दिव्य “गुण” होते हैं ।

आप अपनी कामनाओं को शून्य बना सकें तो आपके प्राण का आयाम अनन्त हो जायगा । वहीं साम्य की अवस्था है,सम् आधि है,जिससे भिन्न कोई भी अवस्था व्याधि है । प्रकृति के तीनों गुणों में भी साम्य हो जाय तो प्रकृति अव्यक्त हो जाती है और जीवावस्था से मोक्ष मिल जाता है । अव्यक्त अर्थात् शून्य!अतः साम्य ही शून्यता है । वैषम्य सगुण अवस्था का कारक है । वासना के गुणों के अनुरूप वैषम्यता की लब्धि होती है । जैसे के रङ्ग−त्रिकोण में लाल हरित नील (RGB) में साम्य होने पर प्रकाश श्वेत हो जाता है तथा दृष्ट वस्तु काला,अर्थात् रङ्ग शून्य हो जाता है ।

पुरुष भी गुणों को शून्य कर दे तो अपने वास्तविक स्वरूप में अवस्थित होकर अनन्त और अव्यक्त हो जाता है । वह मुक्त पुरुष जब कुछ “चाहे” तो वह चाहत ही उसे व्यक्ति के रूप में व्यक्त बना देता है,जैसे कि इन्द्र,मनु,वसिष्ठ,अत्रि,कश्यप,आदि । कुछ न चाहे तो अव्यक्त ब्रह्मस्वरूप रहता है ।

सारी संख्यायें शून्य से ही निःसृत होती हैं । शून्य का गणित अनन्त है ।

जिसका दर्शन हो सके उसे सम् ख्या कहते हैं । शून्य संख्या नहीं है क्योंकि अव्यक्त है । यह अव्यक्त शून्य ही समस्त संख्याओं तथा समस्त गणित का स्रोत और आधार है ।

एक उदाहरण —

काल की विमा में शून्य के डिफ्रेन्सल समीकरण से ही हर युग में मानवजाति की कुल जनसंख्या का सूत्र बनता है जिसके द्वारा किसी भी काल में सही जनसंख्या की जानकारी मिल सकती है । यह प्राचीन “सांख्य” शास्त्र का एक उदाहरण है । वैदिक तन्त्र की यह परम्परा सदैव अलिखित रही है,वेद के सही प्रयोग द्वारा ही प्राप्त होती है ।

–श्री विनय झा

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