हृदय बसे रघुराई…

* कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥

जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥ लोभी कही भी लोभ से तृप्त नही होता, इसी प्रकार बार-बार प्रभु की झांकी का लोभ चाहिये, सुमिरन का मीठा-मीठा दर्द चाहिये, हर समय उसी का ध्यान, इसी को जागृति कहा है, अगर जागोगे तो हर कार्य आपका ध्यान हो जायेगा, ध्यान और धंधा ये कोई अलग-अलग नहीं है, जागकर किया गया हर कार्य ध्यान बन जाता हैं।

हम पाठ भी सोते-सोते करते है, बोलते कहीं है देखते कहीं हैं, सोचते कुछ और है होश भी नहीं रहता कि क्या बोला था? क्या गाया था? इसलिये सोये हुये किया गया भजन भी प्रकाश नहीं दे पा रहा है, जीवन लग गया भजन करते-करते क्योंकि सोते-सोते हो रहा है, सोते में तो स्वपन देखे जाते हैं, अगर हम सब कार्य जागकर करेंगे तो अलग से फिर कोई ध्यान करने की आवश्यकता ही नही है।

ध्यान तो उसका किया जाता है जो हम से दूर हैं, जो हमारे भीतर बैठा है वो तो ध्यान में रहता ही है, अभी भगवान भीतर नहीं है इसलिये ध्यान करना पड़ता है, ध्यान करना और ध्यान में रहना ये दोनों अलग-अलग बातेहै, काम करना और काम में रहना ये दोनों अलग-अलग बाते है, जैसे हम शरीर से मंदिर मे है पर ध्यान मे घर बैठा हैं।

जब जीव प्रभु में डूब जाता है तो अलग से ध्यान करने की जरूरत नही होती, इसलिये गोपियो को भीतर से ध्यान से निकालने के लिये ध्यान करना पड़ता था,गोपियाँ ध्यान करती है कि भगवान भीतर से बाहर निकले ताकि घर का काम-काज कुछ हम कर पायें, ये जागृति अवस्था है, यह घटना आपने सुनी होगी, एक शिष्य गुरु के पास आया दीक्षा लेने के लिये, भगवत-साक्षात्कार करने के लिये।

गुरु ने कहा बारह वर्ष तक धान कूटो, उठते, बैठते, सोते जागते बस धान कूटो, बस चौबीसों घंटे धान कूटते कूटते ध्यान में आ गया, ध्यान अलग से करने की आवश्यकता नहीं, हरि व्यासजी बहुत बड़े संत हुये है, उनके गुरूदेव ने हरि व्यासजी को बोला जाओ बारह वर्ष तक गिरिराजजी की परिक्रमा लगाओ।

अब जो बारह वर्ष गिरिराजजी में डूबेगा उसे अलग से ध्यान करने की आवश्यकता पडेगी क्या? जागृत अवस्था ही ध्यान है, शास्त्र पढकर सत्य के बारे मे जाना तो जा सकता है पर सत्य का अनुभव तो जागृत जीव ही कर पायेगा, इसके लिये साधना करनी पड़ती है, साधना बड़ा मूल्यवान शब्द है, जो मन हमारा बिना इच्छा के इधर उधर गड्ढे में गिर रहा है, वो सध जाये, ये साधना है।

साधु का अर्थ क्या है? जो सध गया है, साधक का अर्थ है जो सधने का प्रयत्न कर रहा है, मन हमारे अनुसार रहे साधना का बस इतना ही अर्थ हैं, हम लोग कहते है न कि रास्ते में बहुत फिसलन है जरा सध के चलो, इधर-उधर पैर पड जायेगा तो पैर फिसल जायेगा, इसलिये सत्य को जाना नहीं जाता, सत्य को जिया जाता है।

पंडित जानता है, साधक अनुभव करता है, विद्वान सत्य की व्याख्या करता है और साधु सत्य का पान करता हैं, इसलिये जागने से मन के विचार मिट जाते हैं, स्वपन तो निद्रा में आते हैं, कुछ लोग जरूर बैठे-बैठे सपने देखते है उन्हे शेखचिल्ली कहा जाता है, वो घटना आपने सुनी होगी, सिर पर दही की मटकी लिये जा रहा था।

सोच रहा था बच्चा होगा, पापा-पापा बोलेगा, पैसे माँगेगा, मैं थप्पड़ लगाऊँगा और सोचते-सोचते मटकी को ही थप्पड़ मार दिया और मटकी धड़ाम से नीचे गिर गई, सज्जनों! जो जागृत में स्वप्न देखते हैं उनकी मटकी बीच रास्ते में फूट जाया करती है इसलिये भागो मत, जागो, जहा भी हो वहीं जागिये।

जनकजी की घटना आपने सुनी होगी, साधु को ले गये स्नान कराने के लिये और सेवक ने आकर कहा कि महल में आग लगी है, जनकजी चैन से स्नान करते रहे और साधु दौड़ा, जनकजी ने पूछा बाबा कहाँ दौड़कर गये थे? बोले तुमने सुना नही, तुम्हारे महल में आग लग गई थी, महल तो मेरा था आग लगी तो तुम क्यों दौड़े?

साधु बोले! मेरी लंगोटी उसमें सूख रही थी, आग लग रही थी इसलिये लंगोट को लेने गया था, बाँधने के लिये महल नहीं चाहिये, बाँधने के लिये लंगोटी ही काफी है, योगियों ने महल छोड दिया हम भिक्षापात्र नही छोड पाते, इसलिये पशु सोये हुये हैं, ये बंधन में रहते है, पाश का अर्थ है बंधन! हम सब किसी न किसी पाश में बंधे हैं।

कोई धन से भाग रहा है तो कोई धन की ओर भाग रहा है, भागने का कारण ही धन है, एक धन की और तो दूसरा धन से दूर, एक पैर के बल खड़ा है एक सिर के बल खड़ा है, व्यक्ति तो वहीं रहता है बदलता कुछ भी नही, इसलिये सज्जनों! स्थान बदलने से कई बार लोग सोचते है कि बदल जायेंगे, किसी तीर्थ में चलते हैं, स्थान बदलने से जीव नही बदलता, स्थिति बदलने से जीवन बदलता है।

साधु-बैरागी हो गये पर वृत्ति तो वही की वहीं रही, घर छोड़कर तीर्थ-आश्रम में आ गये. जो वृत्ति घर मे थी वही बाहर घेर लेगी, स्वभाव नही बदलता, भाई-बहनों! कपड़े बदलने से कोई परिवर्तन नहीं आ सकता, इसीलिये भेद के लिये तो भीतर से बदलना होगा।

– साभार पंडित कृष्ण दत्त शर्मा

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