“शास्त्र” क्या है?

शास्त्र किसी एक ग्रन्थ का नाम नहीं है, वेद और वेद का अनुसरण करने वाले सारे दिव्य और आर्ष ग्रन्थों को शास्त्र कहा जाता है |

देवता द्वारा प्रदत्त ग्रन्थ दिव्य हैं और ऋषियों द्वारा रचित ग्रन्थ आर्ष हैं |

वेदों के अलावा अन्य ग्रंथों में दुष्टों ने कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश कलियुग में जोड़ दिए, जिनकी पहचान करके शास्त्र का सही अर्थ लगाने के लिए शास्त्रार्थ होते थे | अब शास्त्रार्थ होते भी हैं तो व्यक्तिगत अहंकार के लिए |

सनातन परम्परा यही है कि वेद अन्तिम प्रमाण हैं | जो बात स्पष्ट तौर पर वेद में नहीं हैं उनके लिए वेद-सम्मत अन्य दिव्य एवं आर्ष ग्रंथों को अन्तिम प्रमाण माना जाता है | मनुष्य की तर्कबुद्धि और देखी-सुनी बातों को अन्तिम प्रमाण नहीं माना जाता क्योंकि आदि शंकराचार्य के अनुसार वेद से उन बातों का ज्ञान होता है जो किसी अन्य माध्यम से मनुष्य जान ही नहीं सकता, जैसे कि देवता, आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, परलोक, कर्मफल, पुण्य, पाप, आदि, और यही बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं |

किन्तु जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं उन बातों की जानकारी कलियुगी शिक्षा प्रणाली नहीं देती | हिन्दू बच्चों को बताया भी नहीं जाता कि शास्त्र कहते किसे हैं, जबकि हर मुसलमान और ईसाई बच्चे को सिखाया जाता है कि उनका शास्त्र क्या है |

“वेद” शब्द का अर्थ ही है सच्चा “ज्ञान” | मनुष्य वास्तव में कौन है, देह या आत्मा, और मनुष्य को अपने वास्तविक कल्याण के लिए कैसे जीना चाहिए इसका ज्ञान ही वेद है | यदि इसी बात का ज्ञान न हो तो शेष सबकुछ पढ़ना व्यर्थ है | तभी तो कहा गया कि पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ…..

केवल पोथी पढने से वेद का ज्ञान नहीं होता | वेद मैं हूँ, वेद आप हैं, और चारों तरफ जो कुछ भी वास्तव में है वह सबकुछ वेद है, शास्त्र है, शेष जो कुछ भी दिखता है वह माया है, पञ्च- इन्द्रियों को प्रतीत होने वाला पञ्च-भौतिक प्र-पञ्च है | सत्य एक है, वह सब जगह है, हर जीव में भी है और बाहर भी है | अतः हर किसी प्राणी तथा वस्तु को आत्मवत देखने से ही वेद को समझने का सामर्थ्य जागता है | अतः ढाई आखर प्रेम ही असली कुंजी है वेद का ताला खोलने की |

ईश्वर के सम आपका अर्थ (प्रयोजन) हो जाय तभी सामर्थ्य प्राप्त होता है, आप अपने स्वामी बनते हैं | ईश्वर का प्रयोजन है सभी प्राणियों का कल्याण | निरीच्छ ब्रह्म में जब प्राणियों का कल्याण करने की ईच्छा हो तो ब्रह्म के उस स्वरुप को ईश्वर कहते हैं |

व्यक्तिगत जीवन, समाज तथा सम्पूर्ण सृष्टि का नियमन और शासन जिसके आधार पर हो उसे शास्त्र कहते हैं | शास्त्र का रचयिता कोई नहीं, यह सनातन है | महाप्रलय होने पर जीव नहीं रहते, शास्त्र रहता है |

मनुष्य के जीवन का नियमन शास्त्र के जिस भाग द्वारा किया जाय उसे मानव-धर्म-शास्त्र कहा जाता है, इसी का संक्षिप्त नाम है मनुस्मृति | संसार के सभी मनुष्यों के आदि पूर्वज का नाम है मनु | जो मनुस्मृति को नहीं मानते उन्हें अपने को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं | मानवतावाद का मूलाधार है मनुस्मृति |

प्राचीन मिस्र के लोग भी मनु को अपना प्रथम “प्र-उ” कहते थे | ईसाइयों का मानना था कि ईसा से चार हज़ार वर्ष पहले गॉड ने सृष्टि बनायी, अतः विश्व इतिहास की सभी घटनाओं को इसी कालखण्ड में समेटने का प्रयास करते थे | अतएव मिस्र के प्राचीनतम अभिलेखों, जो ईसापूर्व तीन हज़ार वर्ष के हैं, में जिस आदिपुरुष “मनु” का वर्णन है उनका काल ये लोग ईसापूर्व 3100 के आसपास कल्पित करते हैं, यद्यपि इस बात का कोई प्रमाण नहीं | मनु का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण मिस्र में नहीं मिला, केवल कलियुग के अभिलेखों में उनका उल्लेख मिला है | एलेग्जेंडर के समकालीन ग्रीक लेखकों ने मिस्री अभिलेखों वाले मनु को Menes लिखा तो आजतक वही वर्तनी (हिज्जे, स्पेल्लिंग) इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में चली आ रही है | प्राचीन मिस्र की भाषा सीखते समय मुझे पता चला कि मिस्र की प्राचीन चित्रलिपि में स्वर लिखे नहीं जाते थे, मिस्री भाषा में केवल व्यंजन लिखते थे और स्वर स्मृति के अनुसार जोड़कर लेख पढ़े जाते थे | अर्थान मनु का नाम “म् न्” लिखते थे | तो उसे Menes पढ़ा जाय यह हज़ारों वर्ष बाद के गैर-मिस्री संस्कृति वालों की वर्तनी के आधार पर हम क्यों माने ? प्रमाण तो यह है कि प्राचीन मिस्र और भारत दोनों देशों में मनुष्य जाति के आदिपुरुष को मनु कहते थे | तो हम मिस्र के आदि-पुरुष को Menes नहीं बल्कि मनु कहें यही न्याय है |

ईश्वर के लिए ॐ प्रतीक है तो उसके अंश जीव को “उ” कहेंगे और सभी जीवों में जो अग्रणी हो, प्रथम हो, सूर्यवंश का प्रवर्तक हो, उसे “प्र-उ” कहेंगे | मिस्र की प्राचीन लिपि में वहां के सम्राट को “प्र-उ” लिखते थे जिसे ग्रीक लोगों ने Pharao लिखना आरम्भ किया — ऐसा मैंने ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर जी एम रोबर्ट्स की पुस्तक में चालीस वर्ष पहले पढ़ा था | “प्र-उ” भी बाद की मिस्री चित्रलिपि में था जब स्वरों का लेखन आरम्भ हो गया था |

मिस्री पिरामिडों के भित्ती चित्रों में वैदिक यज्ञ के स्पष्ट वर्णन मिले हैं, किन्तु यूरोप के तथाकथित विद्वान लिखते हैं कि गड्ढे में आग जलाकर उसमें कोकेन का धूआँ मिस्र के पुजारी सूँघते थे ! सुकरात के समकालीन ग्रीक नाटककार अरिस्तोफनीस के नाटक The Birds (इन्टरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध है) में साफ़ लिखा है कि ग्रीक लोगों के प्राचीनतम पूर्वज कुण्ड में आग जलाकर उसमें खाद्य सामग्री डालते थे जिसके धूँये से देवताओं की भूख मिटती थी, उस धूँये को स्वर्ग जाने से रोककर देवताओं का अपमान कैसे किया जाय यही उस नाटक का कथानक है | स्पष्ट है कि ग्रीक नाटक लिखने और देखने वाले लोग देवों के विरोधी थे, अपने ही पूर्वजों के वैदिक धर्म को त्याग चुके थे | भाषाविज्ञान द्वारा भी सिद्ध हो चुका है कि आर्यावर्त से लेकर आर्यलैंड तक के लोग वैदिक देवताओं को ही पूजते थे | इंडोनेशिया से हिन्द-चीन तक सनातन संस्कृति बाद में पँहुची और उससे पहले वहाँ कोई अन्य संस्कृति थी यह भी कपोरकल्पित है, बिना प्रमाण के पढ़ाया जाता है | हड़प्पाई स्थल कालीबंगा में सोलह यज्ञकुण्ड मिले तो रोमिला थापर ने लिखा कि तन्दूर की भट्ठी थी ! तन्दूर की भट्ठी में यज्ञकुण्ड का यूप नहीं होता, यज्ञकुण्ड बनाने के वैदिक ग्रन्थ सुल्वसूत्र के आधार पर तन्दूर की भट्ठी नहीं बनते | लेकिन हमारे वामी “विशेषज्ञों” को प्राचीन भारतीय इतिहास पर कलम चलाने से पहले प्राचीन भारतीय ग्रन्थ पढने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, म्लेच्छों के झूठ को दुहराने में ही “अन्तर्राष्ट्रीय” ख्याति मिलती है !

हिन्दुओं को संस्कार से म्लेच्छ बनाने का षड्यन्त्र जोरों पर है | सात सौ वर्षों के इस्लामी राज में शारीरिक क्षति पँहुची, ईसाई राज में हिन्दुओं को मानसिक क्षति पंहुचायी जा रही है – आज भी |

व्यक्ति, समाज और सृष्टि का पूरा विधान जिसपर टिके उस सनातन संविधान को “शास्त्र” अथवा “धर्मशास्त्र” कहा जाता है | मनुष्य स्वयं को भी नहीं जानता, सृष्टि के सं-विधान को कैसे जान या बना सकता है ? म्लेच्छों से आयातित अन्धी देवी के अन्धे अनुचरों का अन्धा विधान अपनी पूर्वजा को अपमानित करना “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” मानता है !

अकबर के सिपाहियों से इज्जत बचाने के लिए महारानी दुर्गावती ने युद्धक्षेत्र में आत्महत्या कर ली तो लोगों ने उनके विशाल राज्य की एक नदी का नाम ही दुर्गावती रख दिया जो कैमूर की पहाड़ियों से निकलकर बिहार में बहती है – वीर कुँवर सिंह के क्षेत्र को सींचने | महारानी दुर्गावती के छत्तीस गढ़ों के नाम पर एक राज्य का ही आज नाम पड़ा हुआ है | हज़ारों संस्थाओं का नामकरण उनके नाम पर है | किन्तु इतिहास की पुस्तकों से वे लगभग लापता हैं !

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, झारखण्ड और बिहार के बड़े हिस्से में उनका राज्य फैला था जिसे गोण्डवाना कहा जाता है (“गोण्ड” का अर्थ था “विजेता” जो संस्कृत शब्द “गण” के नायकों को कहा जाता था, इसी को तमिल और अनेक वनवासी भाषाओं में “कोण्ड” कहते हैं, और मुसलमान शासकों ने उनको सम्बोधित करने के लिए उर्दू में शब्द गढ़ा “गुण्डा” | महान चोल सम्राट राजेन्द्र चोल ने गंगा तक दिग्विजय करने के पश्चात उपाधि जोड़ी -“गंगईकोण्डा” , अर्थात गंगा (-प्रदेश) का विजेता | अर्थात “कोण्डा” का अर्थ हुआ “विजेता”| तमिल से विन्ध्य तक के लड़ाकू हिन्दुओं को विदेशी मुसलमान घृणा से “गुण्डा” कहने लगे | सम्राट राजेन्द्र चोल ने राजधानी का भी नाम रखा था – “गंगईकोण्डाचोलपुरम्” | ‘चोल’ शब्द भी ‘क-लिंग’ से नि:सृत ‘कोल’ से बना था |) | महारानी दुर्गावती चन्देल राजपूतनी थी, भील राजा से उनका विवाह हुआ था | किन्तु हमें पढ़ाया जाता है कि सनातन संस्कृति वाले उन जनजातियों का राज्य “मूलनिवासियों” का था जिसे प्रवासी आर्यों ने बाद में अतिक्रमित किया !

इज्जत बचाने के लिए जो महारानी आग में कूदी उनको आज दरबार की नर्तकी बनाया जा रहा है – अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर ! अब कहा जा रहा है कि फिल्म का नाम बदलकर “पद्मावत” कर दिया गया है तो पद्मावती का अपमान कैसे हुआ ? तो क्या पद्मावत में पद्मावती की नहीं, पैगम्बर की बीबी आयशा की कहानी है ? क्या पद्मावत की नायिका दरबार में नाचती थी ?
सच्चाई यह है कि फिल्मकार की माता बॉलीवुड में साइड-डांसर थी |

घर में बैठकर ऋग्वेद या यजुर्वेद पढ़ने से बेहतर “शास्त्र” है सनातनियों को अपमानित करने वालों को “शास्त्र” पढ़ाया जाय | सनातनी ही नहीं बचेंगे तो सनातन धर्म किस काम का ?

साम-दाम से जो न सुधरे उनके लिए दण्ड-भेद है, यह शास्त्र की आज्ञा है |

हिन्दुओं को मिटाने के लिए ईसाई बारबाला के नौकर “सड़कों पर लड़ाई” का बिगुल फूँक रहे हैं,
तो क्या सनातनियों को घर में चूड़ी पहनकर बैठना चाहिए ??

शास्त्र पढ़ने की नहीं, जीने की चीज है | शास्त्र के अनुसार जीने का प्रयास करेंगे तभी शास्त्र की पोथियों का असली अर्थ खुलेगा |

छात्रावस्था में भी मैं छात्रावासों में जाकर सिखाता था – “पढ़ाई लड़ाई साथ-साथ” ! कुलपति भी कुल का पालन न करें तो उनको “सीधा” करो ! अब उम्र ढल रही है, हाथ-पाँव पूरा साथ नहीं देते, किन्तु कलम कौन रोक देगा ? (चन्द्रगुप्त भी चाणक्य के छात्र ही थे, और श्रीराम छात्र ही थे जब ऋषि विश्वामित्र उनको धर्मरक्षार्थ युद्ध के लिए ले गए | आज जिस AISF पर CPI का कब्जा है और जिसका गलत इस्तेमाल कन्हैया के कारण “भारत के टुकड़े ब्रिगेड” कर रही है, उस AISF की स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बसु और उनके मित्रों ने की थी और उस स्थापना में सुभाष बाबू के कारण नेहरु भी सम्मिलित थे, कम्युनिस्ट उसमें कोई महत्त्व नहीं रखते थे | किन्तु स्वतन्त्रता के बाद नेहरु ने घोषणा कर दी कि अब छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिए क्योंकि अंग्रेज चले गए, जिसका फल यह हुआ कि AISF पर CPI ने कब्जा कर लिया | बाद में कांग्रेस को अफ़सोस हुआ तो NSUI की स्थापना की |)

हिंसा पाप है | आत्मरक्षा पुण्य है | सनातनियों में परस्पर एकता हो जाय तो लड़ाई की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी, इतनी संख्या है हमारी | भारत सुधर जाय तो फिर अफ्रीका से अमरीका तक के लोगों को उनका सही इतिहास पढ़ाएंगे | जो इतिहास नहीं सीखते उनको इतिहास ही “सिखा” देता है |

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