आध्यात्म की गाथा है भगवत गीता

गीता जयंती, श्रीमद् भगवद् गीता का प्रतीकात्मक जन्म है। यह हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी पर मनाया जाता है। कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्धक्षेत्र के दौरान भगवान कृष्ण ने अर्जुन को भगवत गीता का ज्ञान दिया था। स्वयं भगवान का गाया गीत है ‘गीता’, जानिए इसका महत्व!

यह विषय हालांकि किसी तुलना का नहीं है, लेकिन ज्यादातर धर्म ग्रंथों की रचना ईश्वर के दूत या संदेशवाहकों ने की है। जबकि गीता का संदेश स्वयं ईश्वर ने दिया है। गीता के रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निकला यह दैवीय गीत किसी जाति, धर्म, संप्रदाय की सीमा में नहीं बंधा है, बल्कि संपूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए अमोघ अस्त्र है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर इसे युद्धभूमि में गाया था। ब्रह्मपुराण के अनुसार, द्वापर युग में मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को श्रीकृष्ण ने इसी दिन गीता का उपदेश दिया था। गीता का उपदेश मोह का क्षय करने के लिए है, इसीलिए एकादशी को मोक्षदा कहा गया।

शास्त्रीय दृष्टि से महाभारत एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, गीता जिसका एक छोटा-सा अंश है, यह स्मृति वर्ग में आता है।

प्राचीन भारत की गाथा के रूप में संकलित महाभारत में एक लाख से ज्यादा श्लोक हैं। इनमें से महज सात सौ बीस श्लोकों का यह यह काव्य न केवल आध्यात्मिक मूल्यों का संकलन है, बल्कि वैदिक परंपरा का सार भी है। तभी तो तीन ग्रंथों के समवेत नाम प्रस्थानत्रयी में, इस ग्रंथ का स्थान सिरमौर है।

इन ग्रंथों- भगवद् गीता, ग्यारह उपनिषद और ब्रह्मसूत्र पर टीका लिखने के बाद ही कोई विद्वान आचार्य बनता था और अपने मत की पुष्टि कर पाता था। गीता पर सबसे ज्यादा टीकाएं लिखी गई हैं। डॉ. गोपीनाथ कविराज के अनुसार इनकी संख्या तीन हजार से ज्यादा है।

भगवद्गगीता विशेष स्थितियों में मोह छोड़कर स्वजन बांधवों को भी युद्ध में ललकारने और उनकी चुनौती स्वीकार करने का उपदेश है।

आक्षेप है कि युद्ध के मैदान में दोनों पक्षों की सेनाएं आमने सामने खड़ी हों और युद्ध शुरू होने वाला ही हो, रणभेरियां, नगाड़े और शंख आदि बज चुके हों, तो सात सौ श्लोकों का उपदेश कैसे दिया जा सकता है? इस आक्षेप का निराकरण किया जाता है कि सात सौ श्लोकों का उपदेश देने में चालीस से पैंतालिस मिनट लगते हैं।

स्वामी योगानंद का कहना है कि गीता का उपदेश वैखरी वाणी से नहीं परावाणी से दिया गया था। इस माध्यम से लाखों शब्दों का संदेश पल भर में दिया जा सकता है। संदेश में स्वर और भाषा या संकेतों का सहारा नहीं लिया जाता, बिना कहे बात संप्रेषित की जाती है और समय की गति को छलकर दूसरे व्यक्ति तक पहुंचा दी जाती है।

संत कहते हैं कि पल भर के सपने में व्यक्ति पूरे जीवन और जन्म-जन्मांतरों के अनुभवों को जी लेता है, तो कृष्ण और अर्जुन में यह संवाद किसी स्वप्न दृश्य जैसा भी हो सकता है।

शास्त्रीय उल्लेखों के अनुसार, भगवद् गीता या समावेशी महाकाव्य महाभारत की रचना करीब 5100 साल पहले हुई थी, लेकिन उस समय उल्लेख किए गए ग्रह-नक्षत्रों की स्थितियों, ज्योतिषीय तिथियों, भाषाई विश्लेषण, विदेशी सूत्रों एवं पुरातत्व प्रमाणों के अनुसार 600 से 200 ईसा पूर्व तक हुई होगी।

गीता द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मविद्या के आधार अनासक्ति योग में दो शब्द हैं- एक अनासक्ति और दूसरा योग। अनासक्ति निषेधात्मक और योग विधेयात्मक पद हैं। विषयों के प्रति आसक्ति का निषेध अनासक्ति है।

केवल निषेध या अस्वीकृति से बात नहीं बनती। परित्याग के बाद हुए खालीपन के लिए कुछ स्वीकृति भी आवश्यक है। इसी के अंतर्गत चित्त को परमात्मा से जोड़ने का नाम योग है। अकर्म में आसक्ति रहे या न रहे, लेकिन कर्म तो स्वाभाविक धर्म है।

कर्म किए बिना मनुष्य एक क्षण नहीं रह सकता। महाभारत के युद्ध में सर्वाधिक सक्रिय होकर भी कृष्ण अनासक्त रहते हैं। जय-पराजय, मान-अपमान, सुख-दुख आदि के द्वंद्वों से परे रहना भगवान की एक दिव्य स्थिति है। यही है संसार में रहते हुए उससे अप्रभावित रहने की कला अनासक्ति।

गीता के अनुसार, ज्ञानयोग से बुद्धि, कर्मयोग से इच्छा और भक्तियोग से भाव को संस्कारित व परिमार्जित करने की प्रक्रिया कर्मफल की कामना को मिटाती है। यही सहज लक्ष्य अनासक्ति है। इसी अनासक्ति को साधन औरसाध्य दोनों कहा गया है।

निर्वाण, मुक्ति और मोक्ष अनासक्ति की समग्र उपलब्धि का ही नाम हैं। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार यह धर्मग्रंथ कम, मनोविज्ञान, ब्रह्मविद्या और योग का ग्रंथ ज्यादा है। भाषा स्वरूप से यह काव्य है, विषय से अध्यात्म का विश्लेषण और विवेचन का अनोखा रहस्यमयी गीत है, जिसे समझकर मनुष्य देवता बन सकता है।

– पंडित कृष्ण दत्त शर्मा

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