लाहिरी महाशय: ज्ञानगंज के देवदूत

पुराण-पुरुष योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितम्बर १८२८ – २६ सितम्बर १८९५ ) की आज १२३ वीं पुण्यतिथि है|

जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है| भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ….

“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||२:२२||”

अर्थात् जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है|

जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …

“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः|

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः||२:२३||”

अर्थात् इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।

भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ….

“न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः|

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे||२:२०||”

अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है| यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है| शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता||

पुराण-पुरुष योगिराज श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की आवश्यकता नहीं है|

उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|

सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि “मैं अब घर जा रहा हूँ”।

यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया।

पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया। वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे।

ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!

– साभार कृपा शंकर जी

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