अधिक पूजा पाठ करने वाले अधिक दुखी क्यों?
हमे मिलने वाले सुख या दुख का कारण भगवान नही अपितु हम ही हैं। हमारे कर्म ही हमें सुख दुख देते हैं।
कर्म सकाम व निष्काम होते हैं। सकाम कर्म यानि ऐसे कर्म जिनके बदले में हम कुछ भौतिक सुख सुविधाएं चाहते हैं। ऐसे कर्मो का फल सुख दुख के रूप में मिलता है।
निष्काम कर्म वह हैं जिनके बदले हम केवल भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे कर्मो का फल भगवद प्राप्ति के रूप में मिलता है।
अब बात आती है कि ज्यादा पूजा पाठ करने वाले ही दुखी क्यों रहते हैं..?
इसका सीधा सा उत्तर यह है कि ज्यादा पूजा पाठ करने वाला भक्ति के स्वरूप को नही समझने के कारण पूजा पाठ तो करता है, लेकिन वह अनजाने में सकाम पूजा ही करता है जिसका फल उसे सुख दुख के रूप में ही मिलता है।
ज्यादा पूजा पाठ करने वाला बेशक ज्यादा पूजा पाठ या भक्ति करता हुआ नजर आता है लेकिन वह कर्मकांड को ठीक से नही करना जानता है। ऐसे में गलती पर गलती करता जाता है।
बेशक वह कहता है कि वह कूआँ खोदने की बात करता है लेकिन असल मे वह खाई ही खोद रहा होता है। वह यह तो कहता है कि वह बहुत सारी दुनिया भर की पूजा पाठ या मेहनत कर रहा है। लेकिन असल मे तो वह अपनी मेहनत बेकार ही कर रहा होता है।
बेशक ऐसा करने में उसका सारा परिश्रम निष्फल चला जाता है।
तो एक बात तो यह हुई कि सकाम कर्मो का फल सुख या दुख के रूप में मिलता है। हो सकता है कि उसके पूर्वकर्मो की वजह से उसकी जिंदगी में दुख बहुत लिखे हों और पूजा पाठ से बेशक कम हुए हों।
लेकिन फिर भी आप यही सोच रहे हों कि भगवान हमे इतनी पूजा पाठ के बाद भी दुख ही दे रहे हों। और दूसरी बात यह है कि आप गलत तरीके से या बिना विधि विधान के जाने ही पूजा पाठ कर रहे हों। आप बेशक अत्यधिक पूजा पाठ कर रहे हों लेकिन उनका प्रभाव उल्टा या निष्फल हो रहा हो।
लगता है यहाँ तक आपको सब समझ आ गया होगा। अब एक पहलू और है पूजा पाठ करने वाले को ज्यादा दुख मिलने के पीछे।
और यह लागू होता है केवल उस पर जो सही मायने में “भक्त” है।
यह पहलू ही विशेष है! इसलिए इसके लिए आप एक बार फिर से यह जान लीजिए कि *भक्ति क्या है और भक्त कौन है?*
संध्यावंदन, योग, ध्यान, तंत्र, ज्ञान, कर्म के जैसे ही भक्ति भी मुक्ति का एक मार्ग है।
भक्ति भी कई प्रकार की होती है। इसमें श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना, सत्संग आदि शामिल हैं। इसे नवधा भक्ति कहते हैं।
अब आपको बताता हूँ *भगवद गीता* में उल्लेखित चार तरह के भक्तों के बारे में।
पहले नवधा भक्ति क्या है यह पढ़ते हैं और इसे शॉर्टकट में समझते हैं?
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।*
*अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
*1.श्रवण..*
*2. कीर्तन..*
*3. स्मरण..*
*4. पादसेवन..*
*5. अर्चन..*
*6. वंदन..*
*7. दास्य..*
*8. सख्य..*
और…
*9.आत्मनिवेदन..*
अब बात करते हैं चार प्रकार के भक्तों के बारे में…
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं…
*चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।*
*आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।*
(७।१६)
*अर्थात :-*
हे अर्जुन…!
*आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी…*
ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है।
उससे श्रेष्ठ.. आर्त..
आर्त से श्रेष्ठ.. जिज्ञासु..
और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ.. ज्ञानी है।
1. आर्त :-
आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर, अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है। यही दुखी ज्यादा रहता है। और भगवान को दोष देता है कि मैं तो इतना सारा पूजा पाठ करता हूँ लेकिन फिर भी मुझे इतना दुख!!! इसकी एक वजह उसका प्रारब्ध भी होता है।
2. जिज्ञासु :-
जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं.. वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है। यह भक्त भी भगवान से कुछ चाहता है। क्योंकि जिज्ञासा भी तो किसी चीज को चाहना ही है।
3. अर्थार्थी :-
अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण। यह भक्त भी सुख दुःख पाता है क्योंकि इसका उद्देश्य भी सकाम कर्म है।
और सकाम कर्म का फल सुख दुख के रूप में मिलता है, बेशक आपके द्वारा की गई भक्ति का फल अवश्य मिलता है।
4. ज्ञानी :-
आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं परंतु *ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है..
ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है! इसलिए भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है!
और एक बात अच्छे से ध्यान रखिये..
यही भक्त ही केवल “शुद्ध भक्त” की श्रेणी में आता है। ज्ञानी भक्त के *योगक्षेम* का वहन भगवान स्वयं करते हैं।
इनमें से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ..?
*तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते*
*प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।*
17।।
*अर्थात : -*
इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्ध भक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं और वह मुझे प्रिय है।
इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है और ऐसे भक्त के लिए ही भगवान ने कहा है कि …
*अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते |*
*तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||*
*अर्थात : -*
भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं… (यहाँ अर्जुन का मतलब आप सब ही हैं जो जीवन के संग्राम के मध्य फँसे हुए हैं…)*
है अर्जुन.. अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए जो भक्तजन मेरी उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का *योगक्षेम मैं वहन करता हूँ..*
आदिगुरु श्री शंकराचार्य जी का मत है कि.. *अप्राप्त वस्तु* को प्राप्त करना *योग* और..
*प्राप्त वस्तु का रक्षण* करना *क्षेम* कहलाता है।
हमारे जीवन का संघर्ष भी तो प्रायः दो भागों में विभाजित ही रहता है कि हमारी सारी भागदौड़ अप्राप्त की प्राप्ति के लिए ही होती रहती है और हम चिंतित रहते हैं उस सबके रक्षण के लिए जो हमारे पास है।
वस्तुतः हमारा कोई भी कार्य तभी यशस्वी हो सकता है जब हम ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो’ अर्थात् संकल्प के विषय में निरंतर सोचते रहें।
हमारा चिन्तन पल भर को भी बाधित न हो, पर्युपासन (परि =अच्छी तरह एवं उपासन =सर्वस्व समर्पण ) अर्थात् एक निश्चित लक्ष्य के लिए हर संभव प्रयास और नित्ययुक्त्ता अर्थात् आत्मसंयम।
इस तरह जब संकल्प का..
सातत्य, सर्वस्व समर्पण और.. आत्मसंयम..
ये तीन कुंजियाँ हमारे हाथ लगती हैं तो भाग्य का ताला स्वयं ही खुल जाता है। अर्थात् “योगक्षेम” का भार स्वयं भगवान् वहन किया करते हैं, यही शाश्वत सत्य है।
अब इसको बिल्कुल सरल भाषा मे समझ लीजिये, एक लाइन में…
भगवान कहते हैं कि जो परमज्ञानी भक्त हैं.. और जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं
उनकी जो जरुरते हैं वह सब वो अपने आप पूरी करते हैं..
और जो आपके पास है.. उसकी रक्षा का भार भी स्वयं भगवान अपने कंधों पर लेते हैं।
यह ठीक उसी तरह है जैसे एक छोटे बच्चे के खानपान, रहन सहन आदि की सारी जिम्मेदारी माता अपने सिर पर लेती है। बच्चे को इस विषय मे चिंता करने की जरूरत नही होती है। माता इस विषय मे स्वयं चिंता करती है।
अगर हम ऐसे अनन्य भक्त बन जाते हैं..तब आप यह नही कह सकेंगे की हम तो इतनी सारी पूजा पाठ करते हैं फिर भी इतने दुखी क्यों हैं..
एक बात और भी है..
कई बार भक्त पर भगवान की विशेष कृपा होती है। जिसके फलस्वरूप भगवान प्रयास करते हैं कि आपके प्रारब्ध का फल इसी जन्म में या एक ही बार मे कट जाये।
ऐसे में वे आपसे ज्यादा पूजा पाठ भी करवा सकते हैं। क्योंकि फल तो कर्म करने से ही मिलेगा। ऐसे में आपको इसे दूसरे दृष्टिकोण से समझना होगा। इसे आप भगवान की कृपा ही समझिये।
कई बार जीवन के अंत मे या मृत्यु के समय आपको भगवान अत्यधिक कष्ट भी दे सकते हैं। असल मे वो कष्ट तो आपके कर्मों के ही होते हैं। लेकिन उन कष्टों को भगवान इस तरह से व्यवस्थित कर देते हैं कि अंत समय कष्टों की वजह से केवल भगवान का नाम ही याद रहे..ना कि किसी सगे संबंधी या भौतिक विषय वस्तु का..
और मृत्यु के समय हमारा जो भाव होता है
हम उसी को प्राप्त करते हैं। ऐसे में भगवान की याद बनी रहने से ईश्वर आपके लिए भगवद धाम का रास्ता खोल देते हैं। तो ऐसे में यह न कहे कि भगवान ने उन्हें इतने कष्ट दिए, वो तो इतना पूजा पाठ करते थे।
⁃ शुभम “कौशल” शर्मा
बहुत सुन्दर जानकारी दी है प्रभु आपने ! बहुत दिनों से इसका उत्तर जानना चाह रहा था, आज उत्तर मिल गया.
मजेदार hindi kahani ( dofollow backlink )