क्यों अच्छे और भले लोगों को जीवन में अधिक दुख मिलता है ?
प्रश्न : मन में कभी-कभी संदेह ऐसा होता है कि हमारा धर्म कहता है कि जैसे कर्म करोगे, वैसा फल देगा भगवान। लेकिन देखा जाता है कि जो लोग काफी पवित्र कर्म करते हैं, उन्हें बहुत तकलीफें उठानी पड़ती हैं। इसके विपरीत जो आचरण करते हैं, बहुत सुख में जीवन व्यतीत करते हैं। उनका मरण भी बहुत सुख में हो जाता है। और कभी-कभी अच्छे व्यक्ति का मरण भी दुःखी हो जाता है।
गुरुदेव — पहली बात यह है कि चोरी करके भी कोई रबड़ी खा लेगा, मिठास का अनुभव तो होगा। जो मर्यादा का परित्याग करके ईमानदारी से करोड़ों किलोमीटर दूर रहकर अर्थ का संचय करते हैं, अर्थ के सेवन से मौज-मस्ती पूर्ण जीवन यापन करते हैं, एक आपने बताया। दूसरा वो जो धर्म के मार्ग पर चलते हैं, धन भी उनको आजकल कम से कम सुलभ पाता है, रोटी-नमक तक सीमित रहते हैं। धन की कमी के कारण समाज भी उनको उपेक्षित दृष्टि से प्रायः देखता है। ये सब आपने कहा। कभी-कभी धर्मात्मा भी कोई विकृत रोग की चपेट में आकर देह-त्याग कर देते हैं। कभी-कभी जो जीवन भर अनाप-शनाप काम करते हैं, हँसी – खुशी में देह-त्याग कर देते हैं।
ये सब तो आपने पूछा। थोड़ा विचार कीजिये। दुर्योधन का जीवन मौज-मस्ती पूर्ण था या युधिष्ठिर जी का? बाहर से तो आपको यही लगेगा कि दुर्योधन का जीवन मौज-मस्ती पूर्ण था। युधिष्ठिर जी का जीवन यह ताप, यह वेदना, यह कष्ट। लेकिन इतिहास किसका उज्जवल हुआ – युधिष्ठिर जी का। भगवान तो भगवान ही हैं। लीलापूर्वक रावण का जीवन मौज-मस्ती पूर्ण था या रामजी का जीवन? वनवास भी झेलना पड़ा, पत्नी से वियोग भी हुआ। हमने यह बताया कि आखिर धर्म के मार्ग पर चलने पर धर्म का असली फल क्या है, इस पर विचार कीजिये। तुलसीदास जी ने ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य के भावों को गिने-चुने शब्दों में एक जगह व्यक्त किया ‘धर्मते वीरति।’ धर्म का पालन करने पर देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण जो हैं संयत होते हैं, सुव्यवस्थि होते हैं। जो कुछ अनात्म प्रपंच है, जो वरण करने योग्य नहीं है, उससे अनासक्ति होती है, वैराग्य होता है। धर्म का वास्तविक फल वैराग्य है। तो वैराग्य योग्य परिस्थिति, अनासक्ति योग्य परिस्थिति प्राप्त हो, इसको हम दुर्भाग्य समझेंगे या सौभाग्य। दूसरे ढंग से भी मैं बोलूंगा।
जितना वैदिक वाङ्ग्मय में आपके प्रश्न का उत्तर हो सकता है, मेरी दृष्टि के सामने वो सब उत्तर नृत्य कर रहे हैं। पहले इसको समझिये। जिस कार्य का जो असली फल है, असली फल मिले, इसको सफलता कहेंगे या असफलता? धर्म का वास्तविक फल क्या है – वैराग्य। धर्म का वास्तविक फल क्या है – जीवन में लोकोत्तर त्याग का बल उत्पन्न होना। देह, इन्द्रिय, प्राण, अंतःकरण का शोधित होना, मन का शुद्ध होना, एकाग्र होना और एकमात्र भगवत तत्त्व की और समाकृष्ट होना। जंग आदि कालुष्य दोषों से विनिर्मुक्त लोहा को गुरुत्व युक्त चुंबक का सान्निध्य उपलब्ध होता है तो लोहा सर्वतोभावेन चुम्बक की और आकृष्ट होता है। सुनिए लखनऊ नाम सुना है, उत्तर प्रदेश में राजधानी, लखनपुर को लखनऊ कहते हैं। वहाँ खरबूजा होता है।
जितनी लू चलती है उतना उसमे मिठास का संचार होता है। सोना को तपाते हैं, कलमस आरोपित पदार्थ मलिनता का .. हो जाता है, सोना कुंदन के रूप में प्रकट होता है। मुज़्ज़रफ़रपुर सुना है? बिहार में है। वहाँ जो लीची होती है, वर्षा होने पर उसमे कीड़े पड़ जाते है। जितनी लू चलती है, उतना उसमे मिठास होता है। इसलिए कुंती जी ने, रंतिदेव और कुंती, श्रीमद्भागवत के दो पात्र का नाम ले रहा हूँ, कुंती देवी ने प्रार्थना की “विपदा सन्तु न शस्वत” भगवान श्रीकृष्ण सामने, हमारे सामने तो श्रीकृष्ण नहीं नृत्य कर रहे हैं। श्रीकृष्ण की तो बुआ लगती थी।
“हे प्रभु ! हे जगतगुरु ! मोर्चे पर, पग-पग पर मुझे विपत्ति विपत्ति विपत्ति का वरदान चाहिए।” अब प्रश्न उठता है, विपत्ति का वरदान कौन चाहेगा, कुंती ने चाहा। रंतिदेव का वर्णन है श्रीमद्भागवत में “हे प्रभु ! विश्व में जितने पापी तापी हैं, उनको जो यातना प्राप्त हो रही है, वो सारी यातना मैं झेल लूँ। किसी को दुःख प्राप्त न हो।” तो दुःख वरदान के रूप में कौन प्राप्त करना चाहता है, लेकिन कुंती ने कहा “मुझे पग-पग पर क्या चाहिए, विपत्ति चाहिए।” इससे क्या होगा ? मीरा के के प्रभु पीर …. वैद्य सामरो होए।” ऐसी पीड़ा, ऐसी वेदना, ऐसा कष्ट जो आपके आलावा कोई हर ही न सके, तो प्रतिक्षण आपका स्मरण होगा। देह, इन्द्रिय, प्राण, अंतःकरण में अनुपम लोकोत्तर त्याग का बल, जो भी कलुषित भाव हैं, उनका क्षालन धर्म का वास्तविक फल है। साथ ही साथ मैं एक संकेत करता हूँ, मैंने एक नियम बचपन में लिया स्वाभाविक रूप से, साथ वालों को मालूम है। जितने कष्ट हो सकते हैं, सब कष्ट मिलते हैं। अनुचित किसी को दबाना नहीं, अनुचित किसी से दबना नहीं। मेरा व्रत है। एक ही नियम ले लीजिये, जीवन भर कष्ट ही कष्ट मिलेगा। अनुचित किसी को दबाना नहीं, अनुचित किसी से दबना नहीं। मेरा बचपन का व्रत है। चारों और से संकट आता रहता है, मैं मुस्कुराता रहता हूँ। पहली बात मैंने ये कही कि धर्म का वास्तविक फल जो मिलता है, सत्संग की कमी के कारण व्यक्ति समझता है संपत्ति नहीं, संपत्ति मिलनी चाहिए, विपत्ति मिल गयी। नल को देखिये, जो भी धर्म के मार्ग पर चले जीवन भर तो उनको तपना पड़ा। लेकिन इतिहास उन्ही का बना क्योंकि धर्म का वास्तविक फल है ‘धर्मते वीरति’ । ‘योगते ज्ञाना’ वैराग्य का फल समाधी। ‘अत्यंत वैराग्य वतः समाधि, समाहितस्य .. प्रबोधः’ समाधि का फल है तत्त्व ज्ञान, तत्त्व ज्ञान का फल है मोक्ष। अब मैं थोड़ी व्याख्या करके बताता हूँ। ‘यज्ञ …. ‘ ये धर्म है या नहीं। थोड़ा विचार कीजिये। विधिवत शास्त्र-सम्मत विधा से यज्ञ करेंगे तो द्रव्य की पकड़ ढीली होगी .. एक वो व्यक्ति है कि द्रव्य को, मर जायेगा, छोड़ेगा नहीं, जिसका आपने वर्णन किया। एक वो व्यक्ति है जो यज्ञ के माध्यम से द्रव्य की पकड़ को छोड़ेगा। द्रव्य की पकड़ को नहीं छोड़ेंगे तो यज्ञ का संपादन नहीं होगा। विधिवत दान करना है नामा रूपए, सोने, चांदी। द्रव्य की पकड़ को ढीली नहीं करेंगे तो दान नहीं दे सकते। निर्जल व्रत किया, एक व्यक्ति गुलछर्रा उड़ा रहा है, एक माता है निर्जल एकादशी का व्रत किये हुए है। उसकी जीभ जलेगी और जो रसगुल्ला पा रहा है, बार-बार पानी पी रहा है उसकी जीभ कहाँ जलेगी। प्रत्यक्ष में तो दुःख वो पा रही है न जो निर्जल एकादशी का व्रत कर रही है। और गुलछर्रे उड़ा रहा है, मलाई चाट रहा है वो तो बड़ा मौज-मस्ती में है। व्रत करेंगे तो क्या होगा, भोग का त्याग करना ही पड़ेगा, तप करेंगे तो सुख का त्याग करना ही पड़ेगा। भगवत प्राप्ति के लिए सर्वस्व त्याग करना ही पड़ेगा। तो अनुपम त्याग का बल और वेग, धर्म के मार्ग पर चलने पर प्राप्त होता है। त्याग का जो बल और वेग प्राप्त होता है उसी के बल पर व्यक्ति भगवत तत्त्व की और जाता है। धर्म के द्वारा चित्त का इतना शोधन होता है जिससे आत्मा, परमात्मा, महात्मा की और ही व्यक्ति आकृष्ट होता है, अन्यत्र आकृष्ट नहीं होता। इतना मैंने स्पष्ट करके कहा। थोड़ा सुनिए। भगवान् की कृपा, जो आप प्रश्न कर रहें हैं जिधर आपका ध्यान नहीं था, उधर ध्यान केंद्रित किया। जिधर आपका ध्यान है उधर भी हम व्याख्या करके बता रहें हैं। श्रीमद्भागवत आदि में लिखा है, सावधान होकर सुनिए। भगवान् की कृपा दो ढंग की होती है। ‘यस्याहं अनुगृह्णामि’ जिस पर मैं विशेष कृपा करता हूँ, थोड़ा ध्यानपूर्वक सुनिए ह्रदय को मजबूत करके, भगवान की कृपा आर्तों पर अलग ढंग से, अर्थारतियों पर अलग ढंग से, जिसको भगवान अपने समीप बुलाना चाहते हैं। जिज्ञासुओं पर अलग ढंग से, ज्ञानी पे अलग ढंग से। कृपा की अभिव्यक्ति में भी तारतम्य होता है। भगवान ने कहा है ‘यस्याहं अनुगृह्णामि’ जिस पर अनुग्रह करता हूँ, जिसको अपने समीप लाना चाहता हूँ, क्या करता हूँ, धन पहले हरण कर लेता हूँ। कृपा है या कोप? शायद आप भुक्त-भोगी हैं। पहले धन हरण कर लेता हूँ, उसके बाद फिर वो हाथ – पांव चलाता है धन के लिए उसमे विघ्न डाल देता हूँ। ये भी भगवान् की कृपा है। जिसपर बहुत कृपा होती है उसको अपने पास बुलाने के लिए, भगवान का यह वचन है, मेरे वचन नहीं है – क्या करता हूँ, धन और मान के जितने स्रोत हैं, उसमे रोड़ा अटका देता हूँ। फिर भी नहीं मानता, बार-बार प्रयत्न करता है फिर रोड़ा अटकाता हूँ। फिर भी नहीं मानता तो शरीर में ऐसा रोग दे देता हूँ, भजन के समय शरीर ठीक रहता है, प्रपंच के समय शरीर में बहुत वेदना हो जाती है। एक अनुग्रह का प्रकार यह है। दूसरा अनुग्रह का प्रकार क्या है इस पर विचार करते हैं। शिव पुराण का वचन, कूर्म पुराण का वचन ‘धर्मा संजायते अर्थः’ धर्म से अर्थ प्राप्त होता है। ‘धर्मार्थ कामो अभिजायते’ धर्म से काम भी प्राप्त होता है और धर्म से अपवर्ग मोक्ष भी प्राप्त होता है। वेद व्यास जी ने दोनों बाहुओं को ऊपर उठा कर कहा ‘महाभारत भारत सावित्री ….. ‘ दोनों बाहुओं को ऊपर उठा कर कहता हूँ, पांच हजार वर्ष पहले की घटना है, मेरी बात प्रायः कोई सुनता नहीं है, मैं क्या कहता हूँ ‘धर्मा अर्थश्च कामश्च’ अरे बन्दे धर्म का पालन करोगे तो अर्थ भी मिलेगा और धर्म का पालन करोगे तो काम भी मिलेगा। मोक्ष न भी चाहिए, तो अर्थ चाहिए तो धर्म का पालन करो। काम चाहिए तो धर्म का पालन करो। कलयुग का लक्षण तुलसीदास जी ने क्या लिखा ‘सुखच मूढः न धर्मरतः’ धर्म का फल ही सुख है। अधर्म का फल सुख होता ही नहीं है। ‘सुखच मूढः’ धर्म का फल तो कलयुग के प्राणी मनुष्य चाहेंगे लेकिन धर्म में प्रीति-प्रवृत्ति नहीं होगी। अधर्म के माध्यम से सुख चाहेंगे। अब थोड़ा सुन लीजिये, तीन दिन, तरह दिन, तीन वर्ष, तीन-तीन का वर्णन है ‘अन्यायेन अर्थ संचयः’ गीता में लिखा है। अन्यायपूर्वक जो अर्थ संचय करते हैं, तीन की गणना है शास्त्रों में, तीन वर्ष, तीन महीने, तीन वर्ष अंत में क्या है चारों खाने चित्त हो जाते हैं। दूसरी बात है, आप बहुत ईमानदार अच्छे हैं, धन को लूट करके, चोरी करके जो उसके पास धन होता है, घी चुपड़ी रोटी भी खाता दिखता है, लेकिन उसके अंदर की बात पूछिए, हर समय जलता रहता है। सुखी नहीं रहता। सनातन धर्मियों का सिद्धांत बौद्धों ने अपने शब्दों में लिखा है। आतंकवादियों के हृदय की गति भी हम लोग जानते हैं। थोड़ा ध्यानपूर्वक सुनिए। ‘…… ‘ सत्य का पक्ष लेना जीव का और उसकी बुद्धि का धर्म है। ‘….. ‘ अव्वल दर्जे का आतंकवादी चोर लुटेरा भी क्या करता है, सत्य का पक्ष लेता है। उसकी बुद्धि हमेशा सत्य का पक्ष लेती है। बहुत बढ़िया उदाहरण है आप भोजन करने बैठे, सामने आपके कुत्ता आँख से रोटी मांगने का अभिनय करने लगा, किलकारी मारने लगा, पूंछ हिलाने लगा। आप ने इतना सा रोटी का टुकड़ा दे दिया। आपको मालूम है इससे पेट भरेगा नहीं, पेट की निवृत्ति नहीं होगी, उसे भी मालूम है। बड़े चाव से रोटी का टुकड़ा पाकर कृतज्ञता व्यक्त करेगा। अपने शब्दों में पूंछ हिलावेगा और बहुत ही विनम्रतापूर्वक आपकी और आँख से देखेगा। घी चुपड़ी पांच रोटी आपके चौके से लेकर चम्पत हो जायेगा, वही कुत्ता आपकी आँखों से नहीं सकता। उसका ह्रदय कहता है कि पांच रोटियां घी चुपड़ी हैं, पेट तो भर जायेगा लेकिन चोरी की हुई हैं। इसलिए जो धनाढ्य होते हैं दूसरों को लूट – लूट कर उनका मन स्वयं उनको कोसता है। अपनी दृष्टि में वो गिरे हुए होते हैं। और एक बहुत विचित्र बात है। वो मनोविज्ञान के भी बड़े कच्चे होते हैं। ‘आत्मनः प्रति कुलानि ….. ‘ जैसा व्यव्हार हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं, हमारे बुद्धि की बलिहारी हैं कि हम दूसरों के प्रति व्यवहार करें। एक नंबर का हिंसक भी दुसरों से अपने प्रति अहिंसा की भावना रखता है। मेरी या मेरे बहु-बेटे को कोई हत्या न कर दे। एक नंबर का झूठ बोलने वाला भी दूसरों से सत्य भाषण की अपेक्षा रखता है। कोई झूठ बोलकर के मुझे चकमे में डाल न दे। एक नंबर का चोर जिसका नाम आपने लिया, वर्णन किया दूसरों से अचोरी की भावना रखता है। कोई चुराई हुई संपत्ति को या धरोहर को कोई चुरा के न ले जाये। एक नंबर का व्यभिचारी भी दूसरों से व्यभिचार की भावना नहीं रखता. हमारी बहु-बेटी हमारे शील का अपहरण न कर दे। एक नंबर का लुटेरा भी यही भावना रखता है कि हमारी लूटी हुई सामग्री को कोई लूट न ल जाये। इसलिए भगवन श्रीकृष्ण का गीता के छठे अध्याय में वचन है। ”……. ‘ आगे क्या लिखा है, जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं वैसा व्यवहार हम काम, क्रोध, लोभ अनियंत्रित होने के कारण। गीता के सोलवें अध्याय का भागवत के एकादश स्कंध का अध्ययन कीजिये। नर्क के द्वार तीन हैं, अनियंत्रित काम, अनियंत्रित क्रोध, अनियंत्रित लोभ। आपको संभवतः मालूम न होगा रिटायर होने के बाद आईएएस अफसर ज्यादातर जेल में हैं। पद का दुरूपयोग करके खुब धनाढ्य तो हो गए, अब वो जेल में हैं। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्रियों की सबकी दशा देखिये, गुलछर्रे उड़ा रहे हैं क्या जेल में ? क्या दुर्दशा है ! इसलिए हमने संकेत किया अपनी दृष्टि में वो गिरे होते हैं। अनियंत्रित काम, क्रोध, लोभ मानवता के लिए अभिशाप है। ऐसी स्थिति में थोड़े समय तक बाहर से वो सुखी दिखाई देते हैं, अंदर से बिलकुल खोखला होते हैं। क्योंकि अनियंत्रित काम व्यक्ति को स्वयं जलाता है। अनियंत्रित क्रोध भी जलाता है। अनियंत्रित लोभ भी जलाता है। वो सुख और शांति नहीं प्राप्त करते।
जिनको हम समझते हैं कि बड़े सुखी हैं, उनसे पूछिए वो सुख-शांति प्राप्त नहीं करते। लेकिन गरीबी का जीवन व्यतीत करके भी जिसके धन में किसी की हाय नहीं है वो रोटी नमक से पायेगा तो भी उसको संतोष रहेगा। और दूसरी बात है पापी पे परमात्मा रीझेंगे नहीं। और एक और बात है न्यायपूर्वक जो धन संचय करेगा, नर्क में आप क्यों जायेंगे, नर्क में जो कराने वाले प्राणी है कौन हैं, यहीं पर दूसरों को लूटने वाले और जघन्य अपराध करने वाला तो यहीं दंड प्राप्त कर लेता है। अब मुशर्रफ जी क्या सोचते होंगे, उनसे पूछिए। इसलिए हमको लगता है तात्कालिक, मैंने कहा न किसी के हाथ से रोटी छीन के खा लेंगे, पेट भी भरेगा, तात्कालिक लाभ होगा, भूखे रहेगा, लेकिन वो रोटी जो है सुखपूर्वक, चैनपूर्वक रहने दे संभव नहीं। इसलिए सन्मार्ग पर चलने पे पहला फल तो क्या होता है भगवत्प्राप्ति के अनुकूल वेग और बल प्राप्त होता है।
दूसरा ये है, ये भ्रम, बहुत बढ़िया, युधिष्ठिर जी ने बहुत विह्वल होकर कह दिया, महाभारत भीष्म पर्व, ‘पितामह ! क्या धर्म का फल दुःख होता है? हम को जीवन भर विपत्ति के पापड़ बेल रहे हैं, दुःख ही दुःख है।’ भीष्म जी ताव में नहीं आते थे, ताव में आ गए। उन्होंने कहा ‘सुनो, काल में भी वो क्षमता नहीं है कि धर्म का फल दुःख दे दे। धर्म का फल सुख ही होता है, अधर्म का फल परिणाम में दुःख ही होता है।
अधिक न बढाकर गीता के अठारवे अध्याय की और मैं आपका ध्यान केंद्रित करता हूँ। हिंदी अनुवाद सहित, मराठी अनुवाद सहित गीता प्रकाशित है, पढ़ लीजियेगा। ‘…. ‘ आरम्भ में अमृत के समान, परिणाम में विष के समान वो राजा सुख है। जिनकी आप चर्चा कर रहे हैं न। और जिसकी चर्चा आप कर रहे हैं अपनी ‘…… ‘ संयम के मार्ग पर, धर्म के मार्ग पर चलने पर आरम्भ में विष के समान कष्ट होता है, परिणाम में मंगल ही मंगल है। ‘अगर अमृतोपवं’ जिनकी चर्चा की आपने आरम्भ में मौज-मस्ती पूर्ण जीवन, ‘परिणामे विषमिव’ लौकिक उत्कर्ष भी उनका नहीं होता। सब धन जमा किया हुआ सब हड़प लिया जाता है। और न्यायपूर्वक जो धन होता है, आग में वो क्षमता नहीं कि उसको जला दे, चोर में क्षमता नहीं कि उसकी चोरी कर ले।
इसलिए आपने जो कहा उसका उत्तर गीता के अठारवे अध्याय में है ‘अगर अमृतोपवं’ खुजली जो है आरम्भ में सुख देती है, बाद में रुलाती है। विद्याध्ययन, संयम, ब्रह्मचर्य का बल, सत्यनिष्ठा आरम्भ में दुःख देती है, परिणाम में सुख देती है। इसलिए आरम्भ में जिनको अमृत के समान सुख मिल रहा है आप समझते हैं, आगे कल्पना कीजिये कि पूरा जीवन नहीं, एक एक हजार नहीं, दस हजार वर्षों तक नर्क की भट्ठी में उनको झुकना है। एक चुटकुला सुनाते हैं, बढ़िया है। एक सिद्ध महात्मा थे, बोलते बहुत कम थे, नाम बहुतों ने सुना था। पुरानी बात है, आकृति से परिचित नहीं थे। वो एक जगह ए। उनके साथ उनका एक शिष्य था। राजपुत्र जा रहा था, राजकुमार। ‘ये कौन बैठे हैं?’ ‘अमुक महात्मा’ ‘ अरे, हमने तो नाम सुना है।
हम भी प्रणाम कर लें।’ वो राजकुमार प्रणाम करने आया, महात्मा बहुत कम बोलते थे। ‘राजपुत्र चिरंजीव ‘ मुँह से निकला। ‘ए राजपुत्र, चिरंजीव हो जायो, दीर्घ समय तक जीवित रहो।’ उनका जो शिष्य था, महात्मा जी का, वो गुरूजी के भाव को जानता था, तो उसने संकेत किया। राजकुमार बहुत प्रसन्न हो गया। चिरंजीव का वरदान दे दिया। उसके बाद ऋषि कुमार, समझ गए, जिसका आपने वर्णन किया, भिक्षा मिली नहीं मिली। तपस्या के द्वारा शरीर भी, उसने सोचा वो सिद्ध महात्मा हैं, मैं भी प्रणाम कर लूँ। प्रणाम करने आये। महात्मा ने क्या कह दिया मालूम है, ‘माजीवऋषिपुत्रकः’ ‘अरे ओ ऋषि कुमार, मत जी।’ सोचा ‘देखो !
जीवन भर तप करने में लगाया अब तक, प्रणाम भी किया। बदले में क्या श्राप दे दिया, माजीव, मत जी।’ शिष्य ने कहा ‘बैठ जा। रहस्य मैं बताऊंगा महाराज जो हैं बहुत कम बोलते हैं।’ एक साधु-संत जा रहे थे, उन्होंने सोचा ‘महात्मा का नाम तो सुना था,यहीं हैं, मैं भी प्रणाम कर लूँ।’ महात्मा के मुँह से क्या निकला, ‘जीववामरवासाधो।’ ‘अरे साधु, जी या मर।’ शिष्य ने कहा ‘बैठ जायो।’ एक बहेलिया जा रहा था अपने बल्लम लिए। मृग, मयूर आदि को मारता है, कभी कोई मनुष्य को भी भेद देता था। उसने सोचा जीवन भर पाप करते तो हो गया, सिद्ध महात्मा का नाम सुना है, मैं भी प्रणाम कर लूँ।
‘राजपुत्रचिरंजीव माजीवऋषिपुत्रकः जीववामरवासाधो व्याधमाजीवमामारः।’ ‘अरे ओ व्याध, मत जी मत मर ‘ बड़ा उटपटांग कहा ‘माजीवमामारः’ न जी न मर। चेलवा ने कहा ‘बैठ जाओ।’ अब व्याख्या मैं करूँगा। राजपुत्र चिरंजीव का अर्थ क्या हुआ, आजकल राजपुत्र का अर्थ नेता का बेटा समझ लो। ‘ए लाडले लाल, राजकुमार के बेटे, खूब पिता के नाम पर तस्करी करके, लूट करके, जेल में सज्जनो को बंद करके मौज-मस्ती पूर्ण जीवन यापन कर रहे हो। पिता के नाम पर लाइसेंस बिना भी जाते हो। कोई पुलिस वाले रोकें तो पिटाई कर देते हो, गाली दे देते हो। तो कहा राजपुत्र चिरंजीव। शिष्य ने कहा जब तक जीवित है तभी तक खैरियत है। मरने के बाद तुम्हारे लिए नर्क की भट्ठी तैयार है।’ तो जो प्रसन्न हो रहा था राजपुत्र वो तो मुरझा गया।
गौरी संप्रदाय के विद्वान लेको ने एक श्लोक लिखा है श्रीमद्भागवत के ग्यारहवे स्कंध की व्याख्या, राजपुत्र चिरंजीव। ‘माजीवऋषिपुत्रकः’ वो समझा कि श्राप है, मत जी। बाहर से लगा कि श्राप दे रहे हैं। शिष्य ने कहा इसका अर्थ क्या है मालूम है, ‘तुमने तपस्या करके इनके समान बोटी-बोटी गला दी है, बड़े दुबले – पतले हो। तुमने तपस्या के द्वारा इतने पुण्यलोक को अर्जित कर लिया है, हजारों वर्षों के लिए, मरने की देर है, मरते ही दिव्य लोक मे हजारों वर्षों तक आनंद लो। शाप नहीं भैया तुम्हारे लिए वरदान है। संत तो क्या कहा था ‘जीववामरवासाधो’। तुलसीदास जी ने क्या कहा मालूम है, ‘प्रारब्ध ने न्योतो दियो, भेज ले श्री रघुबीर।’ कुल कुटुंब के सहित आपको किसी के यहाँ निमंत्रण हो, तो उस दिन घर में चूल्हा नहीं जलाएंगे।
तुलसीदास जी ने कहा कि प्रारब्ध ने मुझे न्योता दे रखा है, रोज ही निमंत्रण ही निमंत्रण है। भिक्षा मांग के पाते हो, न संग्रह है न परिग्रह। खूब माला जपते हो। किसी का अहित नहीं। ‘जीववामरवासाधो’ माने यहाँ भी मौज है, वहां भी मौज है। यहाँ कोई संग्रह परिग्रह नहीं, किसी से राग नहीं, किसी से द्वेष नहीं, यहाँ भी तुम्हारे लिए मौज है, मरने के बाद भी मौज है। और व्याध से क्या कहा, उसको मार चूका हूँ, उसको मारूंगा, उसके घर बर्बाद कर दूंगा, लूटूँगा, यहाँ भी तुम्हारा ह्रदय जलता है क्रोधाग्नि के द्वारा, ईर्ष्या के द्वारा, मरोगे तो नर्क की भट्ठी है, यहाँ भी अमंगल है, वहां भी अमंगल। बहुत बढ़िया स्वामी अखंडानंद स्वामी जी ने एक बार बताया, आग जानते हैं, तीली के मुख को खाती हुई प्रकट होगी या नहीं ?
अगर खरपतवार से रहित, ईंधन से रहित या सरोवर में जलती हुई तीली को फेंक देंगे, वहां तो कारगर नहीं होगी। आश्रय पर कारगर हो गयी, आश्रय को अभिव्यंजक संस्थान को जलती हुई ही आग पैदा होती है। विषय पर कारगर होती है, कभी नहीं भी होती है। ऐसे जो क्रोध है, वो मीठा विष नहीं है, कड़वा विष है। काम और लोभ कौन से विष हैं मालूम है, मीठा विष। क्रोध जो है कड़वा विष।
जिस आश्रय में क्रोध रहता है, उसको जलाता है। क्रोधी व्यक्ति किसी को गाली दे दे, गाली सुनने वाला क्षमाशील हो उसपे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। तो हमने स्पष्ट करके, बहुत व्याख्या करके बताया, आपके लिए यहाँ भी मंगलमय है। अभी जो कष्ट भोग रहे हैं, बहुत बढ़िया एक ब्राह्मण ने हमसे कहा ‘महाराज मैं तो संतोष कर लूँ, घर की आधुनिक बेटियां, बहुएँ, बेटे, उनको टेलीविज़न चाहिए, मोबाइल चाहिए, उनको कैसे मुँह बंद करूँ। मैं तो रोटी नमक से गुजर कर लूँ, लेकिन घर के व्यक्ति सब तो सत्संगी नहीं है। तो सन्मार्ग पर चलने वाले जो हैं, कष्ट तो पाते हैं, लेकिन आगे मङ्गल ही मङ्गल है। बहुत विस्तारपूर्वक हमने उत्तर दिया क्यूंकि आजकल प्रायः इसी ढंग के सज्जन कष्ट पाते हैं।
साभार जगतगुरु आदि शंकराचार्य श्री निश्चलानंद जी सरस्वती महाराज