महान आत्माओं को जन्म देना पड़ता है – गर्भाधान संस्कार

जब स्त्री के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु का संयोग होता है उस समय सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट सा होता है। उस समय जननी यानी माता के जैसे विचार होते हैं वैसी ही आत्मा आकर गर्भस्थ हो जाती है।

पिता के विचारों का भी प्रभाव पड़ता है पर बहुत कम। बच्चा गर्भ में आये उस से पूर्व ही तैयारी करनी पड़ती है। प्राचीन भारत ने इतनी सारी महान आत्माओं को जन्म दिया क्योंकि प्राचीन भारत में एक गर्भाधान संस्कार भी होता था।

संतानोत्पत्ति से पूर्व पति-पत्नी दोनों लगभग छः माह तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते थे, उस काल में परमात्मा की उपासना करते और चित्त में उच्चतम भाव रखते थे। अनेक महान आत्माएँ लालायित रहती थीं ऐसे दम्पत्तियों के यहाँ जन्म लेने के लिए।

फिर अन्य भी संस्कार होते थे। बच्चे की शिक्षा उसी समय से आरम्भ हो जाती थी जब वह गर्भ में होता था। बालक जब गर्भ में होता है तब माता-पिता दोनों के विचारों का और माता के भोजन का प्रभाव गर्भस्थ बालक पर पड़ता है।

प्रत्येक हिन्दु के सोलह संस्कार होते थे। कई महीनों के ब्रह्मचर्य और उपासना के पश्चात् वासना रहित संभोग के समय गर्भाधान संस्कार, फिर गर्भस्थ शिशु के छठे महीने का पुंसवन संस्कार, आठवें महीने सीमंतोंन्न्यन संस्कार, भौतिक जन्म के समय जातकर्म संस्कार, जन्म के ग्यारहवें दिन नामकरण संस्कार, जन्म के छठे महीने अन्नप्राशन संस्कार, और एक वर्ष का बालक होने पर चूड़ाकर्म संस्कार ……. इस तरह सात आरंभिक संस्कार होते थे।

फिर अवशिष्ट जीवन में नौ संस्कार और भी होते थे। माता मन में सदा अच्छे भाव रखती थी और अच्छा भोजन करती थी। इस तरह से उत्पन्न धर्मज संतति महान होते थे।

बुरा मत मानना, यह सत्य कहते हुए मुझे संकोच भी होता है कि आज की अधिकाँश मनुष्यता …. कचरा मनुष्यता है। यह कचरा मनुष्यता कामज संतानों के कारण है। धर्मज संतानों के लिए माता-पिता दोनों में अति उच्च संस्कार होने आवश्यक हैं।

ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

~ साभार कृपा शंकर जी

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