तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो 🙏🏻
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वम् मम देवदेव।।
अपने एक भी स्वजन को अचानक, असमय खोने का जो भार है वो इतना बड़ा होता है कि जीवन में जैसे जैसे आप किसी को खोते जाते हैं, आपका ये बोझ न केवल बढ़ता जाता है, अपितु आपके अंदर का कुछ कुछ हिस्सा भी टूटता जाता है। माता पिता भाई बहन भाभी बच्चे पति पत्नी मित्र गुरु आदि परिवार के स्तम्भ जब गिरते हैं तो वहाँ जीवन भर रिक्त स्थान ही बचता है, बस एक शून्य।
सृष्टि और विध्वंस दोनों प्रकृति के नियम हैं। विधि का विधान निश्चित होता है, ये बात भी हम सब जानते हैं। सभी भगवान की बनाई आकृतियाँ उन्हीं से निकली और उन्हीं में विलीन होनी हैं। बीच में जो सांसारिक यात्राएँ हम अपने कर्मबंधन और ऋणानुबंधों के कारण रूप बदल बदल कर करते हैं वही हमारी सबसे बड़ी बाधा भी हैं और माया वश ईश्वर से पृथकता का बोध भी कराती हैं।
वही जीवात्माएँ भिन्न भिन्न रूप में दो तीन अथवा अधिक जन्मों में लौट कर आपके साथ जितने कर्मबंधन हैं वो पूरे करती हैं। आसक्ति व अज्ञानवश अपनों की मृत्यु की दुखद स्मृतियाँ जीव कई जन्मों तक संजो कर, सहेज कर रखता है परन्तु ब्रह्मज्ञान का अभाव, यही पृथकता का बोध उसे सत्य से अर्थात ईश्वर से स्वतः ही नहीं जुड़ने देता और संसार रूपी मायाजाल में जकड़ कर रखता है जहां वो अपने ईश्वर के साथ सत्य सनातन रिश्ते को पूरी तरह भूल जाता है। द्वैत से अद्वैत की यात्रा प्रारम्भ भी नहीं कर पाता।
भगवान श्री कृष्ण के वचन याद कीजिये..
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
अर्थात आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।
यदि हम थोड़ा प्रयास, प्रयत्न और साधना करके इस जन्म के ‘स्वजनों’ से बिछोह के बोध को कम कर सकें तो आगे के जीवन में कुछ तो पटरी पर अवश्य आ जाएँगे। यहाँ अपने सच्चे स्वजन ईश्वर पर भरोसा और हर परिस्थिति में उनसे संवाद अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ईश्वर निर्लिप्त, निर्मोही हैं पर कातर भाव से पुकारो तो तुरंत सुनते भी हैं, बस आपको अपने अंदर पात्रता बनानी पड़ेगी जो इतना दुरूह नहीं जितना लगता है। उनसे भी मानसिक छल कपट करना स्वयं से वैर करने जैसा है क्योंकि सत्य तो यही है कि हम और आप स्वयं भी वही हैं जिनसे पृथकता का भाव रखते हैं। ईश्वर ने कई अंशों में मनुष्य को अपनी प्रतिलिपि बनाया है और उनकी हमसे सदा अपेक्षा रहती है कि साधना द्वारा हम भी देवत्व को प्राप्त करें।
घड़ी घड़ी ऐम्ब्युलन्स के इन साइरनों की ध्वनि, अस्पतालों के बाहर की चीत्कार, लालची घमंडी लोगों की कुत्ता-घसीटी, हृदय विदारक दाह दृश्य, विकृत मानवीय संवेदनाओं के चेहरे.. पिछले एक माह में ये सब जिसने भी भोगा देखा उनके मानस पटल से इस जीवन में तो सम्भवतः न जाये। परन्तु इसके आगे तक ये स्मृतियाँ पीछा न करें, हमारी ऊर्ध्व गति में बाधा न बनें और हमें ईश्वरीय सान्निध्य प्राप्त हो, हमारी चेतना उच्च लोकों में गमन करे अथवा श्रीहरि के चरणों में विश्राम करे.. उसकी ज़िम्मेदारी हमारी स्वयं की है। ज्ञानीजन कहते हैं जीव के चित्त पर अपने पिछले १००० जन्मों की स्मृति अंकित रहती है चाहे उसको याद पिछले ही जन्म का भी न हो। अधिकतर उच्च कोटि के अच्छे साधक संत ऋषियों को अपने ५-१० पूर्वजन्मों की सही सही याद बनी रहती है।
अतः अवसाद से हटकर मनन अवश्य कीजिएगा। और कुछ नहीं तो नारायण की इस मूरत को ही हृदयंगम कीजिए, भक्ति और समर्पण का पहला सोपान चढ़कर तो देखिए, अपने सारे दुःख, दर्द, बीमारी वाले रथ की बागडोर उस सारथि को सौंपकर तो देखिये। एक बार आसक्तियों के तार उनसे जुड़ गए तो जीवन में इससे सशक्त भावनात्मक जुड़ाव अन्यत्र नहीं पाएँगे। विरक्ति वैराग्य स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा, निवृत्ति के लिए प्रार्थना और साधना की सीढ़ियाँ तो आप शनै: शनै: स्वयं ही चढ़ जायेंगे। एक बार कर्म संचय बदलेंगे तो आपका प्रारब्ध भी बदलने लगेगा।
स्नेहपाशैर्बहुविधैरासक्तमनसो नराः ।
प्रकृतिस्था विषीदन्ति जले सैकतवेश्मवत् ।।
जिनका मन विविध प्रकार के स्नेह-बन्धनों में फँसा है, ऐसे मनुष्य जल में ढह जाने वाले बालुका-गृह की भाँति महान् दुःख से नष्टप्राय हो जाते हैं ।
सङ्कल्पजो मित्रवर्गो
ज्ञातयः कारणात्मकाः ।
भार्या पुत्रश्च दासश्च
स्वमर्थमनुयुज्यते ।।
कोई न कोई संकल्प लेकर लोग मित्र बनते हैं, कुटुम्बीजन भी किसी हेतु से ही नाता रखते हैं । पत्नी, पुत्र और सेवक सभी अपने-अपने स्वार्थ का ही अनुसरण करते हैं ।।
सर्वाणि कर्माणि पुरा कृतानि
शुभाशुभान्यात्मनो यान्ति जन्तोः ।
उपस्थितं कर्मफलं विदित्वा
बुद्धिं तदा चोदयतेsन्तरात्मा ।।
पूर्वजन्म के किये हुये सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्म जीव का अनुसरण करते हैं । इसप्रकार प्राप्त हुई परिस्थिति को अपने कर्मों का फल जानकर जिसका मन अन्तर्मुख हो गया है, वह अपनी बुद्धि को शुभ प्रेरणा देता है जिससे भविष्य में दुःख न भोगना पड़े ।।
(श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि २९८ अध्याये द्रष्टव्यम्)
– नीरज सक्सेना