मन लगे बिना भी पूजा पाठ से लाभ
मन अति चञ्चल वलवान् मथडालने वाला है, उसे रोकना वायु को रोकने की भाँति बहुत कठिन है; ऐसा अर्जुन ने श्रीभगवान् से कहा। श्री भगवान् ने भी विना किसी विरोध के ही इस बात को स्वीकार किया —
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवतद् दृढ़म्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।(गी.६/३४)।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् (गी.६/३५)।
मानस में भी मनोनिग्रह की बड़ी दुर्लभता का कथन किया गया है—जीतिहि मनहिं सुनिय अस रामचन्द्र के काज।। श्रीराम जी के राज्य में त्रेता सतयुग के समान हो गया था–त्रेता भई सतयुग की करनी।। इस प्रकार जब सतयुग में भी मन को वश में करना कठिन था , तो इस कराल कठिन कलिकाल में मन को वश में करना तो सर्वथा ही असम्भव लगता है। इतना ही नहीं वल्कि अनुभव तथा रामायण जी के अनुसार मन पाप में ही मगन रहना चाहता है, उससे निकलना ही नहीं चाहता—
कलि केवल मल मूल मलीना।
पाप पयोनिधि जन मन मीना।।
इन गीता व मानस जी के वचनों से यह अति स्पष्ट होता है कि इस कलिकाल में मन का पापरहित शुद्ध तथा वश में होना प्रायः असम्भव है। ऐसी स्थिति में शुद्ध एवं अन्य चिन्तन से रहित मन को लगा कर पूजा पाठ ध्यान दान तीर्थ-सेवन आदि करना भी असम्भव दीखता है।अतः यह शङ्का होती ही है कि मन के लगे विना ही किये गए पूजा पाठ आदि से कोई लाभ होता है या नहीं??
समाधानम्— किसी राष्ट्रपति या महात्मा की सेवा पूजा करने वाला व्यक्ति यदि ठीक समय पर नियमानुसार स्नान, भोजन, पादप्रक्षालन, औषधि-दान, आदि द्वारा उसकी सेवा पूजा कर देता है, तो उसे राष्ट्रपति की सेवा से धन एवं महात्मा की सेवा से पुण्य अवश्य प्राप्त होता है। भले ही सेवा करते समय उसका मन अन्य के चिन्तन में मग्न रहा हो। क्योंकि शारीरिक कर्म रूप सेवा तो उसने ठीक से की ही है। इसी प्रकार मन लगे विना भी जो मूर्तिपूजा शास्त्रविधिपूर्वक की जाती है , उसका फल भी अवश्य होता है।
इसी प्रकार अर्थ समझे विना तथा मन लगे विना भी किसी सभा या संगीत शाला में गान विद्या के विधानानुसार किये गए गान का फल धन सम्मान अवश्य मिलता है। क्योंकि वाचिक-कर्मरूप गान तो उसने विधानानुसार ही किया है। इसी प्रकार अर्थ समझे विना तथा मन लगे विना शास्त्रीयविधिपूर्वक किये गये जप स्तोत्र पाठ आदि का फल अवश्य होता है।
यहाँ ऐसी शङ्का की जा सकती है कि — व्यग्रचित्तो हतो जपः-(भाग.माहा.५/७३) -व्यग्र ( चञ्चल) चित्त के कारण जप व्यर्थ होता है” ऐसा भागवत जी में कहा गया है। इसका समाधान यह है कि मन लगाकर पाठ आदि करने पर जितना फल मिलता है, उतना फल व्यग्रचित्त से जप आदि करने पर नहीं मिलता। इसी दृष्टि से उसे व्यर्थ कहा गया है। सर्वथा व्यर्थ हो जाता है, ऐसा भागवत वचन का तात्पर्य नहीं है। इसी प्रकार अर्थ समझकर पाठ आदि करने व सुनने से जितना लाभ होता है, उतना लाभ अर्थ को समझे विना अश्रद्धा से पाठ सुनने तथा करने से नहीं होता। इसी दृष्टि से शास्त्रों में अश्रद्धा से तथा अर्थ समझे विना पाठ करने या सुनने को कहीं कहीं व्यर्थ कहा गया है।
वस्तुतः किस क्रिया वचन और भाव से पाप या पुण्य की उत्पत्ति होती है,यह बात शास्त्रमात्रगम्य है, प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाण गम्य नहीं है। क्योंकि पुण्य पाप प्रत्यक्षादि प्रमाणों के विषय ही नहीं हैं।अतः पूजा पाठ जप तीर्थ यात्रादि के लाभों का जैसा शास्त्रों में प्रतिपादन है, उसे वैसा ही स्वीकार करना चाहिए।
इन विषयों में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि शास्त्रों के पूर्वापर वचनों पर विचार करने से कहां क्या तात्पर्य निकलता है। क्योंकि शास्त्र सर्वत्र अपने तात्पर्य अर्थ में ही सत्य होते हैं–” यत्परःशब्दः स शब्दार्थः” इति।।
तात्पर्य यह कि जिस किसी भी प्रकार से की गई आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती। यदि श्रद्धा की प्रधानता व निष्काम भाव की दृढ़ता हुई, तो श्रीभगवान् त्रुटियों को नहीं देखते। प्रेम देखकर ही रीझ जाते हैं।
यदि कोई यह सोचता हो कि जब मन लगेगा तभी पूजा पाठ आदि करेंगे, तो यह ठीक नहीं है। न मन लगेगा, न पूजा पाठ होंगें। हाँ यदि पूजा पाठ करते रहे तो धीरे धीरे मन भी लगने लगेगा।। अभ्यास व वैराग्य पूर्वक निरन्तर साधन में लगे रहना ही श्रेयस्कर है।
।। जय श्रीराम।
–स्वामि राघवेन्द्रदास