ध्यान क्या क्यों कैसे
ध्यान एक यौगिक प्रक्रिया है। ध्यानयोग की चरम उप्लब्धि है–समाधि। बिना समाधि को उपलब्ध हुए अन्तर्जगत् में प्रवेश नहीं किया जा सकता। अंतर्जगत का मतलब है–सूक्ष्म जगत। जब तक सूक्ष्म जगत में प्रवेश कर सूक्ष्म शरीर द्वारा साधना शुरू नहीं होती , तब तक अध्यात्म का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। स्थूल शरीर से हज़ारों वर्ष साधना करते रहना कोई उपलब्धि नहीं है। केवल अपने को भ्रान्ति में डाले रहना है कि हम साधना कर रहे हैं। साधना करना और साधना करने का भ्रम पालना अलग-अलग है। जो व्यक्ति यह कहता है कि वह साधना करते हुए उस उच्च अवस्था को प्राप्त हो चुका है, जिसे समाधि की अवस्था कहते हैं, तो बहुत कुछ सम्भव है कि वह साधना-साधना कह कर साधना की मादकता में डूब जाने को ही साधना समझता हो। साधना और साधना समझने की मादकता में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। बहुत से साधक जो विद्वान नहीं है, केवल अन्ध- विश्वासी ही हैं, वह भजन-कीर्तन, पूजा-उपासना को ही साधना समझते हैं और उसी में मस्त रहते हैं। पूजा-उपासना, भजन-कीर्तन का अपना महत्त्व अवश्य होता है पर वह सब साधना नहीं होती। साधना होती है शरीर साधना, प्राणों को साधना, मन को साधना और अन्त में आत्मा को साधना। सूक्ष्म शरीर से साधना करने को ही सही मायने में आध्यात्मिक साधना करने की शुरुआत कहते हैं।
सूक्ष्म शरीर से साधना करते समय साधक का सूक्ष्म जगत के विभिन्न आयामों में प्रवेश स्वतः हो जाता है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश होने पर साधक के भौतिक शरीर का अतिक्रमण हो जाता है। साधक को भारहीनता का बोध होना शुरू हो जाता है। इसका एकमात्र कारण है–भूतत्व (पृथ्वी तत्व) का अतिक्रमण होना। इस स्थिति में साधक का समय का बोध लुप्त हो जाता है। कब सबेरा होता है, कब साँझ होती है, कब क्या होता है–इन सबकी प्रतीति नहीं होती है ध्यानकर्ता को।
भौतिक जगत का अस्तित्व साधक के लिए न के बराबर हो जाता है। सारा जीवन अंतर्मुखी हो जाता है। ध्यान की सीमा और अवधि बढ़ती जाती है। अन्त में एक ऐसी अवस्था आती है जब पूर्णतया समाधिस्थ हो जाता है वह। अब पहली बार सूक्ष्म शरीर में अपने अस्तित्व का बोध करता है साधक। स्थूल शरीर भी है और स्थूल जगत का भी है अस्तित्व–इन दोनों की स्मृति का अभाव हो जाता है उसके लिए, कारण कि स्मृति और बुद्धि मन की परिधि में होती है और मन माइनस हो जाता है, एक प्रकार से लुप्त ही हो जाता है।
मन की चार अवस्थाएं हैं–चेतन मन की अवस्था, अर्धचेतन मन की अवस्था, अचेतन मन की या अवचेतन मन की अवस्था और अ-मन की अवस्था। सारे अनुभव, सारे बोध मन की तीन अवस्थाओं में ही होते हैं। जब मन की ‘अ-मन ‘अवस्था उपलब्ध होती है तो मन का अस्तित्व लुप्त हो चुका होता है। मन के अस्तित्व के लुप्त होते ही सारे बोध समाप्त हो जाते हैं, सारी स्मृतियाँ भी अस्तित्व खो देती हैं। जब साधक की समाधि टूटती है तो उस समय आत्मा द्वारा की गयी सारी अनुभूतियाँ मन के सहयोग से मन के धरातल पर आकर स्मृतियों का रूप धारण कर लेती हैं। मन के विभिन्न आयामों की सीमा में जो बोध होते हैं, उन्हें अनुभव कहा जाता है लेकिन आत्मा के द्वारा जो बोध होते हैं, उन्हें ही हम अनुभूतियों की संज्ञा दे सकते हैं। यह ही अन्तर है मन के अनुभवों में और आत्म के द्वारा की गयी अनुभूतियों में। आत्मा द्वारा जो भी अनुभूतियाँ होती हैं, उन सब का वर्णन कर पाना बुद्धि और मन के वश की बात नहीं है, फिर भी जो कुछ, जितना भी सामर्थ्य मन में होता है, उसी के अनुसार आत्मा द्वारा की गयी अनुभूतियाँ मन के पटल पर स्मृति के रूप में अंकित हो जाती हैं जिनका वर्णन साधक अपने शब्दों में एक सीमा में कर देता है।
समाधि की अवस्था में उपलब्ध रहस्यमय और अप्रकट ज्ञान भण्डार को वाणी का रूप देना सम्भव उसी के लिए है, जिसने सभी आध्यात्मिक विषयों का जीवन में गहनतम अध्ययन, चिन्तन और मनन किया हो। जो व्यक्ति केवल भक्ति मार्ग से समाधि को उपलब्ध होता है, ज्ञानमार्ग का उसने जीवन में कभी अनुसरण नहीं किया है, उसे समाधि में सारे बोध तो होंगे लेकिन समाधि भंग होने की स्थिति में समाधि की अनुभूतियों का वर्णन वह अपनी वाणी द्वारा नहीं कर सकता।
अब तक इस संसार में जितने भी गूढ़, गोपनीय और रहस्यमय विषय अवतरित हुए हैं, वे सब समाधि की अवस्था में ही अवतरित हुए हैं जिन्हें ‘ऋतम्भरा’ वाणी द्वारा सर्वप्रथम ऋषियों ने सूत्रों का रूप दिया था जिन्हें समझ पाना सर्वसाधारण के वश की बात नहीं है।
शरीर में तीन महत्वपूर्ण केंद्र
योगसाधना स्थूल शरीर से शुरू होकर आत्मा तक की अंतरंग साधना-यात्रा है और वह भी एक जन्म में नहीं पूरे चौदह जन्म लग जाते हैं पूर्ण होने में उसे। मनुष्य शरीर में तीन महत्वपूर्ण केंद्र हैं। उन्हीं से आत्मा का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है और उसी से जीवन हर पल संचालित रहता है। यदि उन केंद्रों का ज्ञान साधक को नहीं है तो वह क्या खाक साधक है ? किस बात का साधक है वह ? उसकी साधना कभी भी सफल नहीं हो सकती–यह निश्चित है और यह भी निश्चित है कि साधक कभी भी आत्मतत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता।
स्थूल शरीर में उन महत्वपूर्ण केंद्रों में पहला केंद्र है–‘मस्तिष्क’। वैसे यदि विचार- पूर्वक देखा जाय तो मस्तिष्क का सम्बन्ध मन से है। मन का कार्यक्षेत्र मस्तिष्क है। मस्तिष्क के लिए मन महत्वपूर्ण है। मन के माध्यम से मस्तिष्क का सम्बन्ध आत्मा से है। मस्तिष्क और आत्मा के बीच मन है।
हृदय दूसरा केंद्र है। प्राणों के माध्यम से हृदय का सम्बन्ध आत्मा से है। ह्रदय और आत्मा के बीच प्राण हैं।
तीसरा केंद्र है–नाभि। नाभि से आत्मा का सम्बन्ध सीधा है। उन दोनों के बीच किसी की मध्यस्थता नहीं है। मानव शरीर को जीवन प्रवाह जहाँ से मिलता है, वह है–नाभि और यही कारण है कि नाभि केंद्र सबसे पहले विकसित होता है शिशु का। मानव के शरीर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु नाभि है। गर्भावस्था में इसी बिन्दु से शिशु का सम्बन्ध माता के प्राणों से, चेतना से और जीवन से जुड़ा हुआ रहता है।
ज्ञान, कृपा, करुणा, प्रेम, स्नेह आदि का जन्म—
मस्तिष्क और मन के संयोग से ज्ञान, बुद्धि, विवेक, प्रज्ञा और विचार का जन्म होता है। हृदय और प्राणों के संयोग से प्रेम, स्नेह, दया, कृपा, करुणा, अनुकम्पा आदि का जन्म होता है हृदय में और यही एकमात्र कारण है कि मनुष्य मस्तिष्क और हृदय पर सर्वाधिक बल देता रहता है।
जितनी भी शिक्षाएं हैं, वे सब मस्तिष्क की शिक्षा है। सारा ज्ञान मस्तिष्क का ज्ञान है। नाभि पर किसी का ध्यान नहीं जाता और जाता भी है तो बहुत कम। अन्य केंद्रों से सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र नाभि को मानते हैं योगी और साधकगण। सभी प्रकार के लोगों का जीवन मस्तिष्क से हीे उलझा हुआ रहता है। मस्तिष्क की ही परिक्रमा करता रहता है वह।
नाभि सम्पूर्ण शरीर का केंद्र बिन्दु है। योगी और साधकों की साधना धारा सर्वप्रथम मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर हृदय केंद्र पर आती है और वहां से आती है नाभि केंद्र पर। नाभिकेंद्र एक ओर तो आत्मा से जुड़ा हुआ है और दूसरी ओर जुड़ा हुआ है हृदय से भी। मनुष्य को प्राणऊर्जा प्राप्त होती है नाभि से। इसलिए कि नाभि का आतंरिक सम्बन्ध हृदय से है। गर्भस्थ शिशु की नाभि से निकल कर एक नाड़ी जिसे योग की भाषा में ‘पीयूष नाड़ी’ कहते हैं, माता के हृदय से जुडी हुई रहती है। इसी रहस्यमयी नाड़ी के द्वारा शिशु प्राणशक्ति और उस प्राणशक्ति के माध्यम से जीवनीशक्ति को बराबर प्राप्त करता रहता है।
मानव सभ्यता जैसे-जैसे विकसित होती गयी, वैसे-ही-वैसे मनुष्य मस्तिष्क को अधिक-से- अधिक महत्त्व देता चला गया। मस्तिष्क उसके लिए मुख्य हो गया। शरीर का मूल्य कम तथा मस्तिष्क का मूल्य सर्वाधिक हो गया उसकी दृष्टि में लेकिन मनुष्य को यह समझना चाहिए कि मस्तिष्क को मुख्य मानना और उसे महत्त्व देना वर्तमान समय में उसके लिए सर्वाधिक घातक सिद्ध हो रहा है।
मस्तिष्क के अत्यधिक विकास का परिणाम:
वर्तमान समय में एक पूर्ण योग्य और पूर्ण विवेकशील व्यक्ति का दर्शन दुर्लभ हो गया है और यही एकमात्र कारण है कि आज का प्रत्येक व्यक्ति मानसिक रूप से अस्थिर है, उद्भ्रान्त है और तनावग्रस्त है। वह क्या करना चाहता है और कर क्या रहा है–इसका होश उसे नहीं और यही एकमात्र कारण है कि इस समय जितने भी रोग और जितनी भी व्याधियां हैं, उनमें 80 % मन से सम्बंधित हैं, शरीर से नहीं। यदि भविष्य में भी ऐसी ही स्थिति रही तो एक दिन ऐसा आएगा जब 100 % लोग मानसिक रूप से रुग्ण हो जायेंगे।
महाभारत काल में तीनों केंद्रों का उपयोग होता था समय- समय पर। उसके बाद मानव जीवन, मानव सभ्यता और मानव संस्कृति में भारी परिवर्तन हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि मनुष्य का ध्यान नाभि केंद्र से हट गया और केंद्रित हो गया मस्तिष्क केंद्र और हृदय केंद्र पर। इसके फलस्वरूप आध्यात्मिक उन्नति हुई और अध्यात्म से सम्बंधित योग, तंत्र आदि का विकास हुआ और उन पर आधारित हज़ारों ग्रन्थों की भी रचनाएँ हुईं। कालान्तर में सर्वाधिक भक्ति और प्रेम-रस का भी विकास हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि रस, प्रेम, श्रृंगार, सौंदर्य, त्याग आदि का आश्रय लेकर विभिन्न प्रकार के काव्यों की रचना कवियों ने की लेकिन नाभि केंद्र का उपयोग बहुत कम होता गया। इसका भी परिणाम सामने आना ही था और वह आया पतंजलि, बुद्ध, महावीर आदि जैसे कुछ ही योगी प्रत्यक्ष रूप में संसार को अपने-अपने ज्ञान से प्रकाशित कर सके, इससे अधिक नहीं।
मस्तिष्क के विकास का परिणाम
पिछले 500 वर्षों में मनुष्य ने सर्वाधिक उपयोग मस्तिष्क का किया है और अभी भी कर रहा है जिसके परिणामस्वरूप प्रबल रूप से ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ और उसके प्रत्येक क्षेत्र की उन्नति हुई। लेकिन मनुष्य को यह ज्ञात होना चाहिए कि मस्तिष्क अत्यन्त नाजुक अंग है और ऐसे नाजुक अंग पर पिछले 500 वर्षों से इतना भार बराबर दिया जा रहा है कि अब तक मस्तिष्क के तन्तु टूटकर बिखरे क्यों नहीं ?–यह आश्चर्य की बात है। सोचने की बात है कि मानव मस्तिष्क पर कितना भार पड़ता है–दुःख का भार, कष्ट का भार, चिन्ता का भार, शोक का भार, रोग का भार, शिक्षा का भार, ज्ञान का भार यहाँ तक कि सम्पूर्ण जीवन का भार।
मस्तिष्क में अरबों-खरबों कोशिकाएं हैं और लगभग सात करोड़ सूक्ष्म तन्तु हैं। इसी से समझ लेना चाहिए कि मस्तिष्क कितना नाजुक है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि उन सात करोड़ तन्तुओं से पृथ्वी को नापा जाय तो पूरी पृथ्वी का व्यास उसके अन्दर आ जायेगा। इतने सूक्ष्म हैं वे तन्तु।
मस्तिष्क पर सर्वाधिक भार विचारों का पड़ता है। विचारों का भार जब अपनी सीमा से अधिक हो जाता है तो मनुष्य को पागल बनने में देर नहीं लगती। अत्यधिक विचार करने पर जीवन की जो धारा है, वह मस्तिष्क के चारों ओर घूमने लगती है। एक साधक उसी जीवन धारा को अपनी विशेष साधना बल से नीचे उतारने का प्रयास करता है। लेकिन यह तभी सम्भव है जब वह शरीर विज्ञान से सम्बंधित आवश्यक ज्ञान प्राप्त किये हुए होता है।
शरीर के प्रति दो दृष्टियां हैं:
वे दो दृष्टियां हैं–भोग दृष्टि और त्याग दृष्टि। जो इन दोनों से ऊपर उठ जाता है अर्थात्–न भोग और न त्याग। वही साधक सफल होता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जो भी महत्वपूर्ण है और जो भी उपलब्ध करने योग्य है, उसका मार्ग शरीर के भीतर है। जो उस मार्ग से भली भांति परिचित है, वही जीवन धारा को नाभि केंद्र तक ले जा सकने में समर्थ है।
ध्यान के तीन चरण
तीनों केंद्रों से सम्बंधित ध्यान के तीन चरण हैं।
प्रथम चरण– प्रथम चरण में अपनी दोनों भौंह के मध्य नीलज्योति का ध्यान करना चाहिए। नीलज्योति का सम्बन्ध मस्तिष्क से है। जौ के आकार की नीलज्योति की कल्पना करके उसी पर मन को केंद्रित करना चाहिए। इस ध्यान का सम्बन्ध रात्रि के अन्धकार से। रात्रि का समय हो, एकान्त स्थान हो, हल्का-हल्का अँधेरा हो। उस समय मस्तिष्क में किसी भी प्रकार के विचारों को न आने दें क्योंकि विचारों के कारण ही मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है। विचारों को उत्पन्न न होने देना या न आने देना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसके अभ्यास के लिए कुछ दिन दीर्घ श्वास जोर जोर से भरना चाहिए और जोर से छोड़ना भी चाहिए। इसका परिणाम यह होगा कि आप थक जायेंगे। थकने से आपके मस्तिष्क की मांसपेशियां, स्नायु तन्तु और नस-नाड़ियां शिथिल हो जाएँगी और जब मस्तिष्क शिथिल होगा तो वह अपने अन्तराल में अपने आप डूबने लगेगा। ध्यान के समय मस्तिष्क को हल्का और शिथिल छोड़ना आवश्यक है। जब आपका अभ्यास हो चुकेगा तो इसे आप बंद कर सकते हैं।
मस्तिष्क को शिथिल कर ध्यान का यह प्रथम चरण पूरे एक वर्ष नित्य करना चाहिए। हाँ, एक बात का ध्यान रहे– ध्यान के स्थान और समय में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। (इसके पीछे एक रहस्य है और वह रहस्य यह है–जिस समय आप ध्यान करते हैं और गहराई में डूबते हैं, उस समय आपके मस्तिष्क से कुछ विद्युत् चुम्बकीय तरंगें निकलती हैं जो आपके ध्यान के स्थान पर चारों और बिखरती रहती हैं। उन विद्युत् चुम्बकीय तरंगों से आपके मस्तिष्क का सम्बन्ध होता है, इसलिए जब उस स्थान पर आप दुबारा ध्यान लगाने बैठते हैं तो पूर्व से बिखरी हुई तरंगों के संयोग से शीघ्र ही आपका मस्तिष्क ध्यानस्थ हो जाता है)।
ध्यान के समय शरीर पर हलके नीले रंग का वस्त्र हो, आसन भी नीले रंग का ऊनी हो और चौकोर हो। आसन को भूमि पर रखकर उसपर बैठना चाहिए। अच्छा हो यदि आसन के नीचे एक चौकोर चौकी हो, इससे आपके और भूमि के बीच थोड़ी दूरी बढ़ जायेगी और भूमि का गुरुत्वाकर्षण बल आपके शरीर की ऊर्जा को आकर्षित नहीं कर पायेगा। निस्तब्ध वातावरण हो, किसी भी प्रकार की कोई आवाज़ न हो।
मस्तिष्क जितना शिथिल होगा, उतना ही वह संवेदनशील होगा। जैसे-जैसे काल्पनिक नीलज्योति पर आपका ध्यान प्रगाढ़ होता जायेगा, वैसे ही वैसे आप अपने भीतर अनिर्वचनीय शान्ति का अनुभव करने लग जायेंगे। कुछ ही अवधि के बाद वह काल्पनिक नीलज्योति साकार हो उठेगी आपके भ्रूमध्य में। जौ के आकार में वह नीलवर्णा ज्योति प्रज्ज्वलित दिखलायी देने लगेगी ध्यानावस्था में।
द्वितीय चरण – – ध्यान के दूसरे चरण में हृदय के मध्य पीले रंग की जवाकृति ज्योति की कल्पना कर उस पर ध्यानावस्था में मन को केंद्रित करना चाहिए। ध्यान के समय हृदय को हल्का और शिथिल रखना चाहिए। किसी भी प्रकार का भाव वहां नहीं रहना चाहिए। जिस प्रकार मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार होते हैं, उसी प्रकार हृदय में भी तरह तरह के भाव होते हैं। ध्यान के समय किसी भी प्रकार का भाव न रहे। जैसे-जैसे काल्पनिक पीली ज्योति पर ध्यान एकाग्र होगा, वैसे-ही-वैसे मन प्रगाढ़ होगा और उसी के साथ एक विशेष प्रकार के आनंद की अनुभूति ह्रदय में होगी। उसी अनिर्वचनीय आनंद को ‘सहजानन्द’ की संज्ञा दी गयी है योग में। समय आने पर ध्यान की परिपक्वावस्था में वह काल्पनिक ज्योति भी जवाकृति रूप में प्रज्ज्वलित हो उठेगी जिसका वर्ण पीला होगा।
तृतीय चरण — तृतीय चरण में नाभि केंद्र जवाकृति शुभ्रज्योति का ध्यान करना चाहिए। जैसे-जैसे मन की एकाग्रता बढ़ती जायेगी और ध्यान गहरा होता जायेगा, वैसे-ही-वैसे ध्यान का विकास होता जायेगा आत्मचेतना के भीतर और जब प्रत्यक्ष रूप से यह अनुभव होने लगे कि काल्पनिक शुभ्रज्योति साकार होकर प्रज्ज्वलित हो गयी है तो समझ लेना चाहिए कि तीसरे नाभिकेंद्र की साधना पूरी हो गयी है। लेकिन ध्यान बराबर होते रहना चाहिए क्योंकि एक समय ऐसा आएगा कि वही ध्यान पूर्णतया प्रगाढ़ होकर समाधि में परिवर्तित हो जायेगा जिसे योग की भाषा में ‘सहज समाधि’ कहते हैं।
सहज समाधि वास्तव में ध्यान का ही प्रगाढ़ रूप है। योग के अनुसार सहज समाधि की अवस्था को उपलब्ध होते ही साधक का सीधा सम्बन्ध ‘चैतन्य’ से स्थापित हो जाता है। जैसे ध्यान का अभ्यास करते-करते वह सहज हो जाता है, वैसे-ही- वह समाधि भी सहज हो जाती है। इसीलिए तो उसे ‘सहज समाधि’ कहते हैं। सहज समाधि न समय देखती है और न देखती है स्थान। वह कभी भी और किसी भी अवस्था में लग जाती है।
सहज समाधि की अवस्था में साधक की बाह्य चेतना कुछ समय के लिए लुप्त हो जाती है और अंतर्चेतना हो उठती है जाग्रत। उस समय वह जिस आनंद की अनुभति करता है, उसे कहते हैं–‘आत्मानंद’।
योग अति दुर्लभ और रहस्यमय वस्तु है लेकिन उसके गम्भीर रहस्य से कुछ ही लोग परिचित हो पाते हैं। वास्तव में योग अंतर्जगत का द्वार है वे द्वार उपर्युक्त तीनों केंद्र हैं जिनमें प्रवेश कर लोक-लोकान्तर ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व ब्रह्माण्ड की भी यात्रा इसी स्थूल शरीर में रहते हुए की जा सकती है।
⁃ ब्रह्मलीन पूज्यश्री पंडित अरुण कुमार शर्मा जी की लेखनी