श्री गणेश चतुर्थी के दिन पूजी जानेवाली मूर्ति कैसी हो? 

जो कुछ भी शास्त्रों के अनुसार हो, वही आदर्श तथा लाभदायक सिद्ध होता है । यदि श्रीगणेशजी की मूर्ति मूर्तिविज्ञान के अनुसार बनी हो तो उसकी पूजा करनेवालों को उसका लाभ मिलता है ।

दुर्भाग्य से आजकल धर्मशास्त्र का विचार न कर, मूर्तिविज्ञान का आधार लिए बिना, अपनी-अपनी अभिरुचि व कल्पनानुसार विभिन्न आकारों एवं विविध रूपों में श्री गणेश की मूर्तियां (उदा. गरुड पर बैठे हुए श्री गणेश, श्रीकृष्ण के वेश में श्री गणेश एवं नृत्य करनेवाले श्री गणेश) पूजी जाती हैं । इससे श्रीगणेशजी का अपमान होता है । गणेश चतुर्थी की अवधि में घर-घर में एवं सार्वजनिकरूप से बहुत बडी संख्या में गणेशमूर्तियों का पूजन किया जाता है ।

इस अवधि में मूर्ति के संदर्भ में यह अनुचित कृत्य बहुत स्पष्ट दिखाई देता है । अतः, श्री गणेशमूर्ति शास्त्रानुसार कैसी हो, यह आगे दिया है ।

१. ‘श्री गणपति अथर्वशीर्ष’ में वर्णित श्री गणेश का मूर्तिविज्ञान

‘श्री गणपति अथर्वशीर्ष’ में श्री गणेश के रूप का (मूर्तिविज्ञान का) वर्णन इस प्रकार है – ‘एकदन्तं चतुर्हस्तं…।’ अर्थात ‘एक दांतवाले, चार भुजाओंवाले, पाश एवं अंकुश धारण करनेवाले, एक हाथ में (टूटा हुआ) दांत धारण करनेवाले तथा दूसरे हाथ से वरदान देने की मुद्रावाले, जिनके ध्वज पर मूषक का चिह्न अंकित है ऐसे रक्त (लाल) वर्णी, लंबे उदरवाले, सूप के समान कानवाले, रक्त (लाल) वस्त्र पहने, शरीर पर रक्तचंदन का लेप लगाए हुए एवं रक्त (लाल) पुष्पों से पूजित ।’

२. चिकनी मिट्टी अथवा खडिया मिट्टी से मूर्ति बनाने का शास्त्रीय कारण

प्लास्टर आॅफ पेरिस से बनी मूर्तियां
प्लास्टर आॅफ पेरिस से बनी मूर्तियां
मां पार्वतीद्वारा निर्मित श्री गणेश महागणपति के अवतार हैं । उन्होंने मिट्टी से आकार बनाकर उसमें श्री गणेश का आवाहन किया था । धर्मशास्त्रीय विधान यह है कि, ‘भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी के दिन मिट्टी की गणेशमूर्ति बनाएं ।’

२ अ. चिकनी मिट्टी अथवा खडिया मिट्टी के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु से मूर्ति बनाना धर्मशास्त्र के विरुद्ध है ! : वर्तमान में नारियल, केले, सुपारी, सिक्के, ‘सीरिंज’ आदि वस्तुओं से भी श्री गणेशमूर्तियां बनाई जा रही हैं । ऐसी वस्तुओं से मूर्ति बनाना धर्मशास्त्र के विरुद्ध है । ऐसी मूर्ति में श्री गणेश के पवित्रक आकर्षित नहीं होते ।

आ. मूर्ति प्राकृतिक रंगों से रंगी हो ।

इ. श्री गणेशमूर्ति पीढे पर बैठी अवस्था में हो ।

र्इ. मूर्ति यथासंभव बाएं सूंड की हो ।

उ. मूर्ति बडी ना हो अपितु छोटी (एक से डेढ फुटतक ऊंची) हो !

२८ फुट गणेश मूर्ति
२८ फुट गणेश मूर्ति
भगवान परशुराम के रुप में विशाल गणेश मूर्ति
भगवान परशुराम के रुप में विशाल गणेश मूर्ति
ऊ. धर्मशास्त्र के अनुसार बनाई गई श्री गणेशमूर्ति पर्यावरण के लिए अनुकूल है ! : मूर्तिशास्त्र के अनुसार श्री गणेशमूर्ति खडिया मिट्टी से बनाई तथा नैसर्गिक रंगों से रंगी होनी चाहिए । मूर्तिशास्त्र के अनुसार बनाई गई ऐसी श्री गणेशमूर्ति में गणेशतत्त्व अधिकतम मात्रा में आकर्षित होकर उससे भक्तोंको आध्यात्मिक लाभ होता है । धर्मशास्त्र के अनुसार किया गया कोई भी कृत्य प्रकृति की ओर ले जाता है । अर्थात, ऐसा कृत्य पर्यावरण के लिए अनुकूल होता है ।

ऊ १. ‘इको फ्रेंडली’ गणेशमूर्तियों के भ्रामक प्रचार से सावधान !

आजकल कुछ संस्थाओंद्वारा ‘इको-फ्रेंडली (‘इकॉलॉजिकली फ्रेंडली’ अर्थात पर्यावरण के लिए अनुकूल) श्री गणेशमूर्ति’ बनाने का आवाहन किया जाता है । इनमें से कुछ मूर्तियां कागज की लुगदी से बनी होती हैं । मूर्ति बनाने की यह पद्धति अशास्त्रीय तो है ही, पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है । कागद की लुगदी से श्री गणेशमूर्ति बनाने पर होनेवाली कुछ घातक हानियां . . .

कागद की लुगदी जल से प्राणवायु सोख लेती है और उससे जीवसृष्टि के लिए हानिकारक ‘मिथेन’ वायु की उत्पत्ति करती है ।
‘कागद की लुगदी में ‘टाल्क’ नामक असेंद्रिय रसायन मिलाया जाता है । यह पानी में नहीं घुलता ।
वृक्ष से निर्मित कागद की लुगदी में ‘लिग्नीन’ नाम का विषैला पदार्थ होता है । यदि यह पदार्थ पानी में घुल गया, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं ।
कागद की लुगदी से पानी में बि.ओ.डी. (बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड) एवं सी.ओ.डी. (केमिकल ऑक्सीजन डिमांड) की मात्रा अत्यंत बढ जाती है, जिससे पानी का रंग काला हो जाता है ।
पानी में तैरनेवाले लुगदी के टुकडे मछलियों के कल्लों में फंसते हैं, जिससे वे बडी संख्या में मरती हैं ।’
इसलिए ध्यान में रखें कि, संबंधित संस्थाओंद्वारा किया जानेवाला पर्यावरण की रक्षा का विचार केवल ढोंग होता है । हिन्दू धर्मशास्त्रने प्रकृति की रक्षा के साथ मानव की सर्वांगीण उन्नति का भी विचार किया है ।

अशास्त्रीय पद्धति से बहुत हाथ और बहुत सिर के साथ बनायी गई मूर्ति

अशास्त्रीय पद्धति से बोतलों से बनार्इ गर्इ मूर्ति
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्री गणपति’

ऊ १. इको फ्रेंडली गणेशमूर्ति के संबंध में फैलाए जानेवाले भ्रम से सावधान !

आजकल कुछ संस्थाआें द्वारा इको फ्रेंडली इकौलॉजिकल अर्थात पर्यावरण के लिए अनुकूल गणेश मूर्तियां बनाने का आह्वान किया जाता है । उनमें से कुछ मूर्तियां कागज की लुगदी से बनाई जाती हैं । यह पद्धति अशास्त्रीय तो है ही, अपितु पर्यावरण के लिए भी हानीकारक है; क्योंकि कागज की लुगदी पानी में व्याप्त प्राणवायु का शोषण करती है तथा उससे जीवसृष्टि के लिए हानीकारक मिथेन वायु की उत्पत्ति होती है । यह ध्यान रखें कि ऐसी संस्थाआें द्वारा किया जानेवाला प्रकृति का विचार केवल दिखावटी होता है ।

३. देवताआें की मूर्तिविचित्र रूप में बनाकर देवताआें का अनादर न करेंतथा उनकी अवकृपा के पात्र न बनें !

अ. विविध उपकरणों से बनी गणेशमूर्ति !

स्वतंत्रतासंग्राम के समय जनता के आग्रह सेगांधी अथवा नेहरू के रूप की कल्पना कर मूर्तियां बनाई जाती थीं । उसकी भांति आज भी कुछ स्थानों पर शिवाजी महाराज अथवा किसी संत की भांति दिखनेवाली मूर्तियां बनाई जाती हैं । फुटबॉल अथवा क्रिकेट खेलनेवाले गणेशजी, बुलेटपर विराजमान गणेशजी जैसी मूर्तियां भी बनाई जाती हैं । मुंबई के निकट कल्याण में एक गणेशोत्सव मंडल ने तो चिकित्सा उपकरणों से गणेश मूर्ति बनाई थी । उस मूर्ति को बनाते समय इंजेक्शन की सीरिंजसे सूंड, किडनी ट्रेसे कान, बोतलसे मुकुट, दस्तानों से हाथ, कैप्सूल से आंखें बनाई गई थीं । ऐसी मूर्तियां बनाते समय केवल काल्पनिक और आधुनिक जीवनप्रवाह के साथ निरर्थक एवं निष्फल समन्वय करने का प्रयास किया जाता है । यह पूर्णतः अयोग्य है; क्योंकि गणेशजी की तुलना किसी नेता, सैनिक, खिलाडी आदि से नहीं की जा सकती । लोकप्रियता तथा प्रसिद्धी हेतु गणेशमूर्ति का मानवीकरण किया जाता है । संत एवं देवता में भी अंतर है; अतः संतों के रूप में भी गणेशजी की मूर्ति की स्थापना नहीं करनी चाहिए ।

देवता को विचित्र रूप में दर्शाना, देवता का अनादर !

वर्ष १९५० में महाराष्ट्र शासन द्वारा गणेशमूर्ति का मानवीकरण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था; किंतु कालांतर से ये नियम शिथिल होते गए । विविध रूपों तथा वेशभूषाआें से सुसज्जित मूर्तियों के कारण लोगों के मन में उस देवता के विषय में व्याप्त श्रद्धा एवं भावपर परिणाम होता है, साथ ही देवता को विचित्र रूप में दर्शाए जाने से उस देवता का अनादर ही होता है ।

देवताआें का मानवीकरण कर उनका मनोरंजन हेतु उपयोग करना महापाप !

दिन प्रतिदिन डॉ. सुबोध केरकर, जुझे फिलीप परेरा जैसे कुछ धर्मद्रोही एवं हिन्दूद्रोही कलाकार देवताआें का विकृत चित्र बनाकर उनको लाखों रूपयों में बेचते हैं । केवल अपने आर्थिक लाभ हेतु इस प्रकार से देवताआें का अनादर करना महापाप है ।

Content courtesy: Hindu Janajagruti Samiti

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