धन और सुख का नाता

∫∫ श्री गुरुचणकमलेभ्यो नमः ∫∫

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“भरत सरिस को राम सनेहि , जग जपु राम राम जपु जेहि” !

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नारायण ! शास्त्रों में दरिद्रता को दुःख कहा गया है , लेकिन धन को सुख नहीं । धन कभी सुख नहीं दे सकता । धन के साथ जब सन्तोष बढ़ता है , तब आदमी सुखी होता है। धन इच्छाओं को भड़काकर असन्तोष बढ़ाता है। असन्तोष दुःख का मूल है । सुखी होने के लिए सन्तोष चाहिए ; लेकिन सन्तोष मिलना आसान नहीं है । इसके लिए सन्त समागम चाहिए । सन्तों से मिलने से जीवन में सन्तोष आता है ; क्योंकि उनका जीवन सन्तुष्टि और पूर्णता का प्रतीक होता है ।

जीवन में अभाव हो तो आदमी कोई भला काम नहीं कर सकता । “भूखे भजन न होइ गोपाला” इसीलिए कहा गया है । अभाव में रहनेवाला आदमी जीवन का अर्थ नहीं समझता ; बड़े – बड़े मूल्यों – आदर्शों पर ध्यान नहीं दे पाता । स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे कि भूखे को वेद की शिक्षा नहीं , रोटी देना ही सबसे बड़ा धर्म है । आदमी का पेट भरा हो , तब उसमें भले काम करने की इच्छा जागती है । तब वह विचार करने की स्थिति में होता है ।

धन का जीवन में बड़ा महत्त्व है । जब वह अभाव दूर करता है , तब आदमी की शक्ति बनता है , जब वह लोभ को बढ़ाता है , तब आदमी को क्षय करता है । धन की तलवार दुधारी है । उसे सँभलकर इस्तेमाल करने से जीवन में सुख बढ़ता है ; कुछ कर पाने की शक्ति आती है ; आदमी का आत्मगौरव बढ़ाता है । किसीके सामने हाथ पसारकर जलील होने से वह बचता है ।

धन के इसी महत्त्व के कारण मुनि भरद्वाज जीवन और प्राण के साथ उसे जोड़ते हैं । निस्सन्देह , जीवन और प्राण न हों तो धन माटी बन जायेगा । इसीलिए तीनों की महत्ता है । तीनों व्यक्ति को बहुत प्रिय होते हैं ।

भरतलाल को राम इतने ही प्रिय थे । इसीलिए मुनि भरद्वाज भरतलाल को सौभाग्यशाली मानते हैं । जो धन , प्राण और जीवन से अधिक प्रभु को माने , उसे महिमा में कौन छू सकता है । धन का मोह बड़ा प्रबल होता है। प्रायः आदमी भगवान् की पूजा करता है तो धन ही माँगता है । क्योंकि धन सुख का आधार है ; हर कोई सुख चाहता है । ऐसे विरले होंगे , जो भगवान् से भगवान् को माँगते हों । यदि भगवान् स्वयं आकर वर माँगने को कहें तो इस संसार में शायद ही कोई कहे कि हे प्रभु ! मुझे आप अपने चरणों की भक्ति दीजिए । अधिक संख्या में लोग धन माँगेंगे , ख्याति माँगेंगे , यश माँगेंगे । कोई कुबेर बनना चाहेगा , कोई प्रधानमन्त्री होना चाहेगा , कोई फिल्म स्टार बनने का प्रस्ताव करेगा ; किन्तु प्रभु का कोई नहीं बनना चाहेगा ।

नारायण ! एक कथा हमें याद आती है । एक बार मुनि नारद ने श्रीविष्णु भगवान् से कहा कि “महाराज” मृत्युलोक में धर्म का बड़ा प्रबल भाव जाग्रत हो गया है । सभी लोग भागवत , गीता आदि सुन रहे हैं , देवी जगरण कर रहे हैं , मन्दिरों में आपके प्रिय भक्त हनुमान् की जय – जयकार कर रहे हैं । चारों तरफ धर्म – ही – धर्म है । ” भगवान् बहुत खुश हुए ; किन्तु लक्ष्मी अम्बा ने कोई खुशी जाहिर नहीं की । उन्होंने कहा — “नारद धोखा खा गये हैं । आदमी धार्मिक नहीं हुआ है , भयभीत हो गया है। धर्म के कारण नहीं , भय के कारण पूजा कर रहा है । प्रभु , मैं अच्छी तरह जानती हूँ । आदमी आपका ऐश्वर्य नहीं , मेरा वैभव चाहता है । ”

नारद मुनि को यह बात अच्छी नहीं लगी । उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि वे स्वयं चलकर अपनी आँखों से सबकी भक्ति – भावना देख लें । प्रभु तैयार हो गये । एक विद्वान् का रूप बनाकर वे शाम को एक व्यक्ति के घर पहुँचे । उन्होंने कहा — “मैं यात्री हूँ । शाम हो गयी है । मुझे रात – भर यहाँ रहने दें तो बड़ी कृपा होगी । ”

घर में विद्वान् अतिथि को पाकर वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ । विनय के साथ बोला — “मेरा अहोभाग्य , जो आप आये ! आप यहाँ विश्राम करें । आपकी सेवा करके मुझे प्रसन्नता होगी । ”

भगवान् वहाँ रुक गये । भोजन के बाद परिवार के लोगों के साथ बैठकर सत्संग किया । प्रभु की वाणी में अमृत था । आदमी बहुत प्रभावित हुआ । दूसरे दिन उसने उन्हें जाने नहीं दिया । विशाल कथा का आयोजन किया । लाखों लोग भगवान् की अमृतवाणी सुनने के लिए जुटने लगे । प्रभु को नारद की बात पर विश्वास हो आया ।

लक्ष्मी ने प्रभु का प्रभाव देखा । उन्होंने उसकी सत्यता जानने के लिए एक उपाय किया । जब एक औरत अपना घर बन्द करके कथा सुनने के लिए जा रही थी तो लक्ष्मी बुढ़िया बनकर उसके पास आयीं और कहा — “बेटी , मुझे प्यास लगी है , थोड़ा पानी पिला दे । ”

औरत झल्ला उठी । उसने कहा — “अरे पापिन ! कथा के समय ही तुझे आना था । मैं देर से पहुँचूँगी तो पाप लगेगा । महात्माजी कहते हैं कि कथा शुरू होने से पहले ही पहुँच जाना चाहिए । बाहर घड़ा रखा है , जितना चाहो तुम पानी निकालकर पी लो । ”

बुढ़िया ने औरत को समझाया — “बेटी , मेरे ऊपर एक शाप है । मैं स्वयं पानी नहीं पी सकती । जिस बरतन को मैं हाथ से छू देती हूँ वह सोना बन जाता है । उसमें रखा सामान भी सोना हो जाता है । तू कृपा करके मेरी प्यास बुझ दे । ”

औरत आश्चर्य से भर उठी । उसे कथा में देर से पहुँचने का पाप भूल गया । धन सामने हो तो भगवान् की क्या जरूरत ! उसने प्यार से बुढ़िया को बैठाया । माँज – धोकर एक बड़ा – सा घड़ा लेकर आयी — “माँ तुम मुँह खोलो , मैं इस घड़े से ही तुम्हें पानी पिला देती हूँ । छोटे बरतन जूठे पड़े हैं। मुझे कथा में जाने की जल्दी है । ”

बुढ़िया ने मुँह खोल दिया । औरत पानी पिलाने में नहीं , बुढ़िया से घड़े को छुआने में रुचि रखती थी । पानी पिलाते – पिलाते उसने घड़ा हाथ से छोड़ दिया । घबराकर बुढ़िया ने उसे अपने हाथों से पकड़ा । चमत्कार घटित हो गया । घड़ा सोना बन गया । पानी भी सोना हो गया । औरत घड़ा गिर जाने के लिए झूठ – मूठ की क्षमा माँगने लगी । बुढ़िया ने कहा — “कोई बात नहीं , बेटी , जा तू कथा सुन आ । ”

औरत ने बुढ़िया को आराम करने का सब प्रबन्ध कर दिया । बाहर से घर में ताला बन्द कर वह कथा में पहुँची । और महिलाएँ पूछने लगीं — “तू तो हमेशा कथा शुरू होने से पहले आती थी । आज देरी कैसे हुई ? ” औरत ने सब कहानी बता दी । उसके आसपास बैठी सभी औरतें कथा के बाद उसके घर की ओर दौड़ीं । बुढ़िया को अपना बरतन छुआने लगीं । बुढ़िया ने कहा — “मैं चमत्कार तब कर पाती हूँ , जब कथा चल रही हो । कल कथा के समय आना ” दूसरे दिन औरतें कथा से गायब थीं । भगवान् को आश्चर्य हुआ । उन्होंने सुन रखा था कि औरतें पुरुषों से अधिक धार्मिक होती हैं । लेकिन उन्हें इस बात का पता नहीं था कि धर्म और स्वर्ण में यदि किसी एक को चुनना हो तो स्त्रियाँ स्वर्ण को चुनती हैं ।

कथा में तीसरे दिन पुरुष भी गायब थे । सभी की पत्नियों ने उनके ऊपर घर के सारे बरतन लाद दिये थे , जिससे बुढ़िया से छुआकर उन्हें स्वर्ण बनाया जा सके । पत्नीसेवा छोड़कर कौन पति धर्मसेवा करने को हिम्मत कर सकेगा ! भगवान् जिसके घर में थे , केवल वही कथा सुन रहा था । चौथे दिन उसने भी प्रभु से आकर निवेदन किया — “महाराज , आज आप अकेले ही कथा शुरू करें , मैं अभी दस – पन्द्रह मिनट में आता हूँ।” भगवान् कुछ पूछ नहीं सके , केवल उस आदमी को देखते ही रहे । वह सिर पर बरतनों की गठरी लादे अपनी पत्नी के साथ कहीं जा रहा था ।

भगवान् ने समझा , दाल में कुछ काला है । उन्होंने ध्यान करके देखा तो सारी बात उनकी समझ में आयी । अपने भक्त के लौटने पर उन्होंने उसे डाँटा — “धन के लिए तुमने धर्म छोड़ दिया । परलोक का सुख छोड़ दिया।”

डाँट सुनकर भक्त बिगड़ पड़ा — “आप इतने दिन से कथा कर रहे हो , मुझे क्या मिला । कथा के इन्तजाम में मैंने हजारों रुपये खर्च किये । आप केवल परलोक के सुख की बात करते हैं । उसकी क्या गारण्टी ! पता नहीं परलोक है भी या नहीं । आप ही उसका सुख लें । हमारे लिए तो यह बुढ़िया ही भली है , जो हमें धन देती है , सुखी बनाती है । अब आप अपना डेरा – डंड़ा यहाँ से उठाइए । बुढ़िया माई यहाँ रहेंगी । ”

भगवान् का भ्रम टूट गया । लक्ष्मी की बात उन्हें सच लगी । वे तुरन्त वहाँ से उठकर चल दिये । उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया कि जब धन की बात आती है , तब आदमी के लिए धर्म व्यर्थ हो जाता है । वह धर्म धन पाने के लिए करता है , प्रभु को पाने के लिए नहीं ।

नारायण स्मृतिः

– सर्वज्ञ शंकरेंद्र

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