मौला अली रटने वाले बाबाओं का सच

मोरारी जैसे क़थवाचकों की कौन सी वोट बैंक की विवशता है? हिंदू समाज में ही ऐसे लोग क्यों पैदा होते हैं जो अपने आपको समाज, धर्म, शास्त्र, ऋषि मुनि, राष्ट्र और ईश्वर तक से ऊपर समझते हैं???

ये जो आजकल मोरारी कथावाचक जैसे बीसों आदमी कह रहे हैं कि हमको ईश्वर प्रेरणा दे रहा है, हमको ईश्वर सन्देश दे रहा है, हमारा सीधा ईश्वर के साथ सम्बन्ध है… उनमें से कौन ईश्वर के साथ सचमुच सम्बन्ध रखने वाला है ये बात मालूम पड़नी चाहिये। इसकी कसौटी क्या है?

तो इसकी भी एक कसौटी है, एक परीक्षा है। इसमें ब्रह्मज्ञान होने के बाद की स्थिति अन्य और ब्रह्मज्ञान के पूर्व की स्थिति अन्य है।

सम्पूर्ण वेदों का परम-तात्पर्य है ब्रह्मात्मऐक्य ज्ञान में। तो इसलिये ईश्वर का सच्चा सन्देश वह है जहाँ परमात्मा से अन्य किसी वस्तु का प्रतिपादन नही होता। वहाँ ईश्वर की दृष्टि है, वहाँ ईश्वर का ज्ञान है, वहाँ ईश्वर का अनुभव है।

जहाँ ‘एकम् अद्वितीयम् ब्रह्म, सत्यम् ज्ञान अनन्तम् ब्रह्म, तत्वमसि महावाक्य का जो अर्थ है उसका प्रतिपादन होता है।

वेद के परम-तात्पर्य से जो गुरु मिलता है वो सच्चा गुरु होता है।वहाँ तक पहुचाने के लिये जो साधन हैं जिसमें तत् पदार्थ की भक्ति हो, त्वम् पदार्थ में स्थिति हो, उपाधि का विवेक हो, देह अतिरिक्त आत्मा का विवेक हो, शमदमादि साधन हों, धर्मानुष्ठान हो, उपासना हो… परन्तु सबका लक्ष्य एक हो….सारे मार्ग वहाँ जा के समाप्त होते हों। ये बात है।

नही तो होता क्या है? ये वासनायें बडी़ प्रबल होती हैं और इनके रुप बडे़ सूक्ष्म होते हैं। जन्म-जन्म के संस्कार होते हैं, कोटि-कोटि जन्म के संस्कार होते हैं और जब मनुष्य ध्यान करने बैठता है, समाधि लगाने बैठता है तो वे वासनायें ईश्वर का रुप धारण करके आती हैं, ईश्वर का सन्देश बन करके आती हैं, ईश्वर का ज्ञान बन करके आती हैं, देवता बन करके आती हैं, बडे़-बड़े महापुरुष का रुप धारण करके आती हैं। और आपकी अपनी ये वासनायें ऐसी-ऐसी बातें बताती हैं कि लोग उनके चक्कर में फँस जाते हैं।

इसलिये जो प्रेरणा वेदानुकूल नही है, जो प्रेरणा तत्वमस्यादि वाक्य के साधन के रुप में नही है, त्वमपद वाच्यार्थ में स्थिति, तत् पद वाच्यार्थ में स्थिति और दोनो के लक्ष्यार्थ का बोध हो करके अज्ञान की निवृत्ति। माने जिसमें योग नहीं, जिसमें उपासना नहीं, जिसमें तत्वज्ञान नही, जो अंर्तमुखता की पराकाष्ठा पर पहुँचा के वेद के परम-तात्पर्य का ज्ञान करानेवाला नही … उसको जो ईश्वर का संपर्क है वो झूठा, वासनात्मक और काल्पनिक है।

पचास-पचास वर्ष समाधि में बैठने वाले, ध्यान लगाने वाले, ब्रह्मसूत्र में जहाँ सिद्धों के प्रामाण्य का विचार है… भाई इनको बडी़ भारी सिद्धि मिली है। ये दूसरों के मन का जान लेते हैं, ये आकाश में उड़ लेते हैं, इनको महिमा, अणिमा, गरिमा सिद्धि प्राप्त है, इनको समाधि लगती है…

बोले सब कुछ है लेकिन समाधि भी चित्त की ही एक अवस्था है इसलिये उसमें भी संस्कार शेष रहते हैं और वहाँ से जो प्रेरणा मिलती है वही सच्ची प्रेरणा है।

यह बात नही कही जा सकती। इसलिये प्रेरणा में प्रामाणिकता उपनिषद की अनुकूलता से, वेदान्त की अनुकूलता से, ब्रह्मसूत्र की अनुकूलता से ही आती है। व्यक्ति विशेष इस विषय में प्रमाण नही हो सकता।

इसलिये गुरु कौन? गुरु वो जो वेद वेदान्त के सिद्धान्त का प्रतिपादन करे और उसके सिद्धान्त के साक्षात्कार की साधना बताये और हमारे जीवन में भी योगाभ्यास के द्वारा, भगवदभक्ति के द्वारा, शरणागति के द्वारा हमारे अंत:करण को शुद्ध करके महावाक्य का जो असली अर्थ है उसका इसी जीवन में साक्षात्कार करा दे उसको गुरु बोलते हैं।

और ये जो वेद को छोड़ करके जो अवैदिक मार्ग हैं और अपना स्वतन्त्र ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ने वाले हैं अथवा ईश्वर को न मानने वाले हैं, कई पन्थ तो ऐसे हैं जो ईश्वर को मानते ही नही और भूतप्रेत और पिशाच को ही मानते हैं।

कोई हैं जो कहते हैं कि ईश्वर का अनुभव नही होता केवल उसके बेटे का अनुभव होता है, कोई हैं जो कहते हैं कि ईश्वर का अनुभव नही होता केवल उसके पैगाम लाने वाले का ही अनुभव होता है। तो साक्षात् ईश्वर को आत्मा रुप में साक्षात्कार कराने वाला ये वेदान्त का मार्ग जो है ये चेतन को (ब्रह्म चैतन्य को) प्रत्यक्षचैतन्याभिन्न रुप से अनुभव कराने वाला ये वेदान्तशास्त्र है।

इसलिये साक्षात् अनुभव में और अनुभव के सहकारी साधन में और साधना के द्वारा साधक को अग्रसर करने में जो मार्ग है वो वैदिक मार्ग, वो वेदान्त मार्ग ही परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला मार्ग है और यही कसौटी है सिद्ध की और यही कसौटी है सन्त की, यही कसौटी है ब्रह्मज्ञानी की। और भिन्न-२ प्रकार का मनोराज्य करनेवाले जो लोग हैं, वेद जिनके मनोराज्य में प्रमाण नही है … मनोराज्य का तो निरोध होना चाहिये…

वे लोग इस प्रसङ्ग में प्रामाणिक नही माने जाते इसलिये जो वैदिक नही है, वेदान्त को मानने वाला नही है, उसको हमारे शास्त्र में अनाच्छादन के रुप में वर्णन किया हुआ है, उसके ऊपर किसी की छत्रछाया नही है, उसका कोई रक्षक नही है। इसलिये गुरु भी श्रोत्रियम् ब्रह्मनिष्ठम्… अर्थात गुरु भी श्रोत्रिय होना चाहिये, ब्रह्मनिष्ठ होना चाहिये।

शक्ल-सूरत से कोई गुरु नही होता, अनुभव से गुरु होता है और अनुभव भी वो जो वेदान्त के द्वारा प्रमाणित हो। जिस पर वेद वेदान्त की मुहर नही लगी है वह अनुभव किसी काम का नही है।

– हिरण्यरेता @Hiranyareta

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *