राम भक्त का अपराध भूलकर भी न करें

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि यदि कोई राम जी का अपराधी हो तो राम जी उसे क्षमा कर देते हैं । लेकिन यदि कोई भक्त का अपराध करता है तो उसे इसका दंड किसी न किसी रूप में अवश्य भुगतना पड़ता है-

जो अपराध भगत का करई। राम रोष पावक सो जरई।

मित्रों, शास्त्रों में पावक किसे कहते हैं? पावक कहते हैं भगवान के क्रोध को “राम रोष पावक सौं जोरहीं” भक्त के अपमान के समय भगवान् को जो रोष आता है उसको पावक कहते हैं, भगवान् सब कुछ सहन कर सकते हैं लेकिन अपने भक्त का अपमान सहन नहीं करते, रामजी तो कहते हैं कि मैं तो संतो का दास हूँ, संत तो मैरे शीश पर रहते हैं।

मै तो हूँ संतन को दास, संत मेरे मुकुटमणि।

पग चापूँ और सेज बिछाऊँ, नौकर बनूँ हजाम।

हाँकू बैल बनूँ गडवारौ, बिनु तनख्वा रथवान।

मैं तो हूँ संतत को दास, संत मेरे मुकुटमणि।

श्री हनुमानजी इतने अभियान शून्य है, अपने बल का उपयोग अपने मान-अपमान के लिये कभी नहीं करते, बल का उपयोग भगवान् के कार्य के लिए करते हैं, और चूंकि हनुमानजी अभिमान शून्य है इसलिए प्रभु के प्रिय है, आप कोई झांकी ऐसी नहीं देखेंगे जो बिना हनुमानजी के हो, इसलिये किसी ने अच्छा गाया है कि “दुनिया चले न श्रीराम के बिना, रामजी चले ना हनुमान के बिना”

भगवान् बिना हनुमानजी के एक कदम भी नहीं चलते, “जय हनुमान ज्ञान गुण सागर” श्री हनुमानजी ज्ञान और गुण के सागर है, सिन्धु है, समुद्र है, “ज्ञनिनाम अग्रगण्यम” इतना बल व ज्ञान होने के बावजूद भी श्रीहनुमानजी अभिमाशून्य है, इसलिये हनुमानजी की सदैव जय होतीं हैं, हनुमानजी को माँ का आशीर्वाद है “होहुँ तात बल शील निधाना” देखिये गुण के साथ शील होना आवश्यक है।

सज्जनों! शील आयेगा माँ के आशीर्वाद से, भक्ति की कृपा गुण में शील के साथ जुडी है और भक्ति श्रीहनुमानजी के आशीर्वाद से मिलेगी, अन्यथा तो गुण अभिमानी हो जाता है, हमारे गुण अभिमान लेकर आते हैं और हनुमानजी के गुण भगवान को लेकर आते हैं, गुण माने योग्यता तथा गुण रस्सी को भी कहते हैं, गुणवान अनेक प्रकार के बन्धनों में बंधे भी देखे जाते हैं, गुण अभिमान के बन्धन में हमको बाँध देते है, गुण बहुत धीरे धीरे शील के साथ आते हैं।

सिमिटि सिमिटि जल हरहिं तलाबा।

जिमि सदगुन सज्जन पहिँ आवा।।

गुण के साथ शील चाहिये, धर्मशील, विनयशील, दानशील “विनयशील करूणा गुण सागर जयति बचन रचना अति नागर” शील माने दयालुता, विनम्रता, सरलता, सहजता, सज्जनों! आपने प्रहलादजी की कथा सुनी होगी, प्रहलादजी ने अपने तपोबल से तीनो लोकों का राज्य अपने वशीभूत कर लिया, इन्द्र घबराकर भगवान के पास आए और इन्द्र ने कहा महाराज लगता है कि मैरा सिंहासन भी जानेवाला है।

क्योंकि प्रहलादजी ने अपने बल से तीनों लोकों पर आधिपत्य कर लिया है, मैरा राज्य मुझे कैसे मिले? युद्ध मै उनसे कर नहीं सकता, क्योंकि प्रहलादजी इतने बलवान है, भगवान् ने कहा कि प्रहलादजी भी दानशील व शीलवान है, आप ब्राहमण का वेष बना कर जाइये और जो माँगना है उनसे माँग लीजिये, वे मना नहीं करेंगे, ब्राह्मण वेष बनाकर इन्द्र प्रहलादजी के दरबार में आए, प्रहलादजी ने अन्तदृष्टि से जान लिया कि ब्राह्मणरूप में इन्द्र है।

पूछा, आओ ब्राह्मण देवता कैसे आगमन हुआ, क्या चाहते हैं, ब्राह्मण ने एक-एक करके बल, वैभव, सम्पति, ऐश्वर्य, राज्य, शक्ति जो कुछ भी उनको माँगना था माँगते चले गयें, तथास्तु – तथास्तु प्रहलादजी देते चले गये, जब सब कुछ दे दिया तो इन्द्र ने कहा कि अब मुझे आपका सत्य चाहिये तो प्रहलादजी ने सत्य भी दे दिया, शक्ति भी चाहिये शक्ति भी दे दी, अंत में कहा कि हमें आपका शील चाहिये।

प्रहलादजी ने कहा कि हम आपको शील नहीं दे सकते, तो ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने कहा आपने तो सब कुछ देने का वचन दिया है, तो प्रहलादजी ने मुस्कुराकर कहा कि ब्राह्मण देवता शील मांगना न तो आपके हित में है और न मैरे हित में है, पूछा कैसे? तब प्रहलादजी ने हँसते हुये कहा महाराज, मैं आपको जानता हूँ, आप तो इन्द्र हैं और ब्राह्मण वेष में आप मुझसे छल करके माँगने आये हैं।

यह जानने के बावजूद भी कि आप छल करके मुझसे सब कुछ माँग रहे है, फिर भी मैं दे रहा हूँ यह मैरा शील ही तो है, अगर मैं शील भी आपको दूँगा तो मारपीट कर के सब कुछ आपसे वापिस छीन लूँगा, इसलिये भलाई इसी में है कि शील छोड जाइये, सब कुछ ले जाइये, अन्यथा शील मैंने आपको दे दिया तो सब कुछ आपसे छीन लूँगा।

ज्ञान के साथ अगर शील है तो भगवान रहेंगे, गुण के साथ अभिमान रहेगा तो मान और अपमान के साथ हमेशा रोते रहेंगे, इसलिये हमारे ऋषियों ने शील पर बहुत कुछ कहाँ हैं, भाई-बहनों! जीवन में शील का प्रादुर्भाव होगा श्री हनुमानजी की भक्ति से।

जय श्री रामजी!

जय श्री हनुमानजी!

– पण्डित कृष्ण दत्त शर्मा

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