स्वयं श्रीगणेश की वाणी है गणेश गीता

श्रीगणेश जी ने राजा वरेण्य को जो उपदेश दिए वे गणेश गीता कहलाते हैं। राजा वरेण्य मुमुक्षु स्थिति में थे और अपने धर्म व कर्तव्य को भली भाँति जानते थे।

इस ग्रंथ के ११ अध्यायों में ४१४ श्लोक हैं। श्रीमद्भगवद्गीता और गणेश गीता में लगभग सारे विषय समान हैं। जो गणेश जी के भक्त हैं उन्हें इस ग्रंथ का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।

राजा वरेण्य ने गजानन से प्रार्थना की ….. ‘हे सब शास्त्रों और विद्याओं के ज्ञाता महाबाहु विघ्नेश्वर! आप मेरा अज्ञान दूर कर मुझे मुक्ति के मार्ग का उपदेश कीजिए।’

तब भगवान गजानन ने राजा वरेण्य को योगामृत से भरी ‘श्रीगणेशगीता’ का उपदेश किया। श्रीगणेशगीता को सुनने के बाद राजा वरेण्य विरक्त हो गए और पुत्र को राज्य सौंपकर वन में चले गए। वहां योग का आश्रय लेकर वे मोक्ष को प्राप्त हुए।

“यथा जलं जले क्षिप्तं जलमेव हि जायते| तथा तद्ध्यानत: सोऽपि तन्मयत्वमुपाययौ।।”

जिस प्रकार जल जल में मिलने पर जल ही हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मरूपी गणेश का चिन्तन करते हुए राजा वरेण्य भी उस ब्रह्मरूप में समा गये।”

वरेण्य उवाच
किं सुखं त्रिषु लोकेषु देवगन्धर्वयोनिषु ।
भगवन् कृपया तन्मे वद विद्या विशारद ।।२०।।
अर्थ:- वरेण्य बोले – भगवन् ! तीनों लोकों तथा देवता और गंधर्व आदि योनियों में यथार्थ सुख क्या है ? हे विद्याविशारद ! कृपाकर आप यह मुझसे वर्णन कीजिये ।।
श्रीगजानन उवाच
आनन्दमश्नुतेऽसक्तः स्वात्मारामो निजात्मनि ।
अविनाशि सुखं तद्धि न सुखं विषयादिषु ।।२१।।
अर्थ:- श्रीगणेश जी बोले – जो अपनी आत्मा में ही रमण करते हैं और कहीं आसक्त नहीं होते, वे ही आनन्द भोगते हैं, उसीका नाम अविनाशी सुख है, विषयादिकों में (वास्तविक) सुख नहीं ।।
विषयोत्थानि सौख्यनि दुःखानां तानि हेतवः ।
उत्पत्तिनाशयुक्तानि तत्रासक्तो न तत्त्ववित् ।।२२।।
अर्थ:- विषयों से उत्पन्न हुए सुख तो दुःख के ही कारण हैं और उत्पत्ति तथा नाशवाले हैं । तत्त्ववित् उनमें आसक्त नहीं होते ।।
कारणे सति कामस्य क्रोधस्य सहते च यः ।
तौ जेतुं वर्ष्मविरहात्स सुखं चिरमश्नुते ।।२३।।
अर्थ:- काम, क्रोध आदि का कारण उपस्थित रहने पर भी जो उनके आवेगों को रोक लेता है तथा शरीर के प्रति अनासक्त होकर उन्हें जीतने का प्रयत्न करता है, वह बहुत काल तक सुख भोगता है ।
अन्तर्निष्ठोऽन्तःप्रकाशोऽत्न्तःसुखोऽन्तारतिर्लभेत् ।
असन्दिग्धोऽक्षयं ब्रह्म सर्वभूतहितार्थकृत् ।।२४।।
अर्थ:- जिनके हृदय में निष्ठा है, ज्ञान का प्रकाश है, सुख है तथा वैराग्य है, जो सब प्राणियों का हित करता है, वह निश्चय ही अक्षय ब्रह्म को प्राप्त करता है ।
जेतारः षड्रिपूणां ये शमिनो दमिनस्तथा ।
तेषां समन्ततो ब्रह्म स्वात्मज्ञानां विभात्यहो ।।२५।।
अर्थ:- जो काम क्रोधादि छहों शत्रुओं को जीत चुके हैं, जो शम और दम का पालन करते हैं, उन आत्मज्ञानियों को सर्वत्र ब्रह्म ही दिखता है ।
आसनेषु समासीनसत्यक्त्वेमान् विषयान् बहिः ।
संस्तभ्य भ्रुकुटीमास्ते प्राणायामपरायणः ।।२६।।
अर्थ:- सब बाह्य विषयों को त्यागकर एकान्त में आसन में स्थित हो, दृष्टि को भ्रूमध्यमें स्थिरकर प्राणायाम करें ।
प्राणायाममं तु संरोधं प्राणापानसमुद्भवम् ।
वदन्ति मुनयस्तं च त्रिधाभुतं विपश्चितः ।।२७।।
अर्थ:- प्राण और अपान वायुके रोकने को प्राणायाम कहते हैं, बुद्धिमान् ऋषियों ने उसके तीन भेद कहे हैं ।
प्रमाणं भेदतो विद्धि लघु मध्यममुत्तमम् ।
दशभिर्द्व्यधिकैर्वर्णैः प्राणायामो लघु: स्मृतः ।।२८।।
अर्थ:- प्रमाण भेद से प्राणायाम लघु, मध्यम और उत्तम – तीन प्रकारका है, बारह अक्षर का प्राणायाम लघु कहलाता है ।
चतुर्विंशत्यक्षरो यो मध्यमः स उदाहृतः ।
षट्त्रिंशल्लघुवर्णो यः उत्तमः सोऽभिधीयते ।।२९।।
अर्थ:- चौबीस अक्षरों का मध्यम और छत्तीस अक्षरों का उत्तम कहा जाता है ।
सिहं शार्दूलकं वापि मत्तेभं मृदुतां यथा ।
नयन्ति प्राणिनस्तद्वत्प्राणापानौ सुसाधयेत् ।।३०।।
अर्थ:- सिंह, व्याघ्र अथवा मतवाले हाथी को जैसे मनुष्य नम्र करके अपने अधीन करता है, इसी प्रकार प्राण और अपान वायु को साधना चाहिये ।।
पीडायन्ति मृगांस्ते न लोकान् वश्यंगतान्नृप ।
दहत्येनस्तथा वायु: संस्तब्धो न च तत्तनुम् ।।३१।।
अर्थ:- हे राजन् ! जिस प्रकार अपने वश में हुए सिंहादि मृगों को सताते हैं , किन्तु वश में करने वाले लोगों को पीड़ा नहीं देते, इसी प्रकार यह वायु प्राणायाम से स्थिर होकर पापों को भस्म करता है , परन्तु शरीर को नहीं जलाता ।
यथा यथा नरः कश्चित्सोपानावलिमाक्रमेत् ।
तथा तथा वशीकुर्यात्प्राणापानौ हि योगवित् ।।३२।।
अर्थ:- जिस प्रकार क्रम से मनुष्य सीढ़ियों पर चढ़ता है , उसी प्रकार योगी के लिये क्रमसे प्राणापान को वशमें करना उचित है ।
पुरकं कुंभकं चैव रेचकं च ततोऽभ्यसेत् ।
अतीतानागतज्ञानी ततः स्याज्जगतीतले ।।३३।।
अर्थ:- पूरक- रेचक और कुम्भक का अभ्यास कर के यह प्राणी इस जगत में भूत, भविष्य तथा वर्तमान तीनों कालका ज्ञाता हो जाता है ।
प्राणायामैर्द्वादशभिरुत्तमैर्धारणा मता ।
योगस्तु धारणे द्वे स्याद्योगीशस्ते सदाभ्यसेत् ।।३४।।
अर्थ:- बारह उत्तम प्राणायाम से धारणा होती है, दो धारणा से योग सिद्ध होता है , योगी निरन्तर धारणा का अभ्यास करे ।
एवं यः कुरुते राजंस्त्रिकालज्ञ: स जायते ।
अनायासेन तस्य स्याद्वश्यं लोकत्रयं नृप ।।३५।।
अर्थ:- हे राजन् ! जो इस प्रकार साधना करते हैं , उन्हें त्रिकाल का ज्ञान हो जाता है, और अनायास त्रिलोक उनके वश में हो जाता है ।
ब्रह्मरूपं जगत्सर्वं पश्यति स्वान्तरात्मनि ।
एवं योगश्च संन्यासः समानफलदायिनौ ।।३६।।
अर्थ:- वह अपने अन्तरात्मामें सब जगत को ब्रह्मरूप देखता है । इस प्रकारसे कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों समान फल के देने वाले हैं ।
जन्तुनां हितकर्तारं कर्मणां फलदायिनम् ।
मां ज्ञात्वा मुक्तिमाप्नोति त्रैलोक्यस्येश्वरं विभुम् ।।३७।।
अर्थ:- सब प्राणियों के हितकारी और कर्म का फल देनेवाले एवं त्रिलोकी के व्यापक मुझ ईश्वर को जान कर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं ।
श्रीगणेश गीता, अध्याय ४, श्लोक २०-३७

संकलन व प्रस्तुति:- कृपा शंकर व सोमदत्त शर्मा

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