मानव देह के भीतर की संध्या उपासना कैसे
संध्याकाल ….. दो श्वासों के मध्य का संधिकाल “संध्या” कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है । लौकिक रूप से तो संध्याकाल …. प्रातः, सायं, मध्यरात्री और मध्याह्न में आता है, पर एक भक्त के लिए प्रत्येक प्रश्वास और निःश्वास, व निःश्वास और श्वास के मध्य का समय “संध्याकाल” है ।
हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं, यह उनका प्राणियों को सबसे बड़ा उपहार है । हर एक प्रश्वास जन्म है, और हर एक निःश्वास मृत्यु । इनके मध्य के संध्याकाल में सदा परमात्मा का स्मरण होना ही चाहिए । यह ही वास्तविक संध्या उपासना है ।
एक सूक्ष्म श्वास आज्ञाचक्र से ऊपर भी चलता है जो परमात्मा की कृपा से ही समझा जा सकता है । नाक से नाभि तक इस भौतिक देह में जो सांस चलता है वह सूक्ष्म देह में डोल रहे प्राण-तत्व की प्रतिक्रया मात्र है ।
प्राण-तत्व को भी परमात्मा की कृपा द्वारा ही समझा जा सकता है । जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है । यह प्राण-तत्व हमें मेरुदंड में सुषुम्ना, तत्पश्चात आज्ञाचक्र से ऊपर उत्तरा-सुषुम्ना में अनुभूत होता है । इसके बाद की भी अवस्थाएँ हैं जो अनुभूतियों द्वारा परमात्मा की कृपा से ही समझ में आती हैं जिनका यहाँ वर्णन व्यर्थ है ।
हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान केन्द्रों में ही रहता है तब वह धर्म की हानि है । हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तक व उससे ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है ।
यह एक रहस्य की बात है जिसे सभी को जानना चाहिए कि जब दोनों नासिका छिद्रों से सांस चल रही हो, तब वह परमात्मा की साधना का सर्वश्रेष्ठ समय है । वह समय भी एक संधिकाल ही है । दोनों नासिका छिद्रों से सांस बराबर चलती रहे इस के लिए हठयोग में अनेक क्रियाएँ सिखाई जाती हैं ।
(बायें नासिका में वायु चले तो रात्रि, दाएं में चले तो दिन । बारी बारी से यह चलता रहता है हर समय, जब स्वर बदलता है उस समय संध्या होती है । साधना में सबसे पहले स्वरों को संतुलित करने की प्रविधि अभ्यास करनी चाहिये जो क्रिया परम्परा में गुरु प्रणाम के नाम से एक प्रविधि सिखायी जाती है । और एक प्रविधि है महामुद्रा, वह भी इसी काम को करती है । सुषुम्ना चले तो संध्या ।
आज्ञा चक्र और उस से ऊपर धर्म क्षेत्र है । उसके नीचे कुरुक्षेत्र । कुरुक्षेत्र में जब प्रवृत्ति मार्ग में ही मन, प्राण, चेतना रहे, वह धर्म की हानि है और अधर्म का अभ्युत्थान ।
49 वायुओं में से एक वायु जिसका नाम श्वशीनी है वह आज्ञा चक्र के नीचे प्राण की क्रिया करती है, उस वायु के द्वारा प्रत्याहार होकर आज्ञा चक्र में मन केन्द्रित हो जाता है । उसके आगे फिर गुरु कृपा से आज्ञा और सहस्रार के बीच चल रहे सूक्ष्म श्वास से योगी समाधि के उच्च स्तरों में जाता है – सोमदत्त शर्मा)
आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में सभी सिद्धियों का निवास है। इन सिद्धियों का मोह छूट जाए इसके लिए सहस्त्रार में श्रीगुरु-चरणों का ध्यान करना होता है। सस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है ।
ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता …. परमशिव हैं । वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है ।
कुण्डलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में मनुष्य देह को इस संसार सागर को पार करने की नौका, गुरु को कर्णधार, व अनुकूल वायु को परमात्मा का अनुग्रह बताया है । मैं वहीं से संकलित कर के इसे उद्धृत कर रहा हूँ …..
” बड़ें भाग मानुष तनु पावा | सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ||
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा | पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ||
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
सार की बात यह कि जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है । ये भगवान श्रीराम के वचन हैं ।
ये अनुकूल वायु हमारी साँसें ही हैं । इनके संध्याकाल में परमात्मा सदा हमारी चेतना में रहें । आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं । आप सब को नमन ।
ॐ तत्सत् । ॐ ॐ ॐ ।।
⁃ कृपा शंकर