शिव रुद्राष्टक स्तोत्र कथा भावार्थ सहित

जानिये किन परिस्थितियों में हुई “श्री शिव रुद्राष्टक स्तोत्र” की रचना, साथ ही शिव रुद्राष्टक स्त्रोत भावार्थ सहित …

भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अनेक मंत्र, स्तुति व स्त्रोत की रचना की गई है। इनके जप व गान करने से भगवान शिव अति प्रसन्न होते हैं।

“श्री शिव रुद्राष्टक स्त्रोत्र” भी इन्हीं में से एक है। यदि प्रतिदिन शिव रुद्राष्टक का पाठ किया जाए तो सभी प्रकार की समस्याओं का निदान स्वत: ही हो जाता है। साथ ही भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है।

नित्य, सोमवार, महाशिवरात्रि, श्रावण अथवा चतुर्दशी तिथि को इसका जप किया जाए तो विशेष फल मिलता है।

श्री रामचरित्र मानस के उत्तर काण्ड में वर्णित इस रूद्राष्टक की कथा कुछ इस प्रकार है।कागभुशुण्डि परम शिव भक्त थे। वो शिव को परमेश्वर एवं अन्य देवों से अतुल्य जानते थे। उनके गुरू श्री लोमेश शिव के साथ-साथ राम में भी असिम श्रद्धा रखते थे। इस वजह से कागभुशुण्डि का अपने गुरू के साथ मत-भेद था।

गुरू ने समझाया कि; स्वयं शिव भी राम नाम से आनन्दित रहते हैं तो तू राम की महिमा को क्यों अस्विकार करता है। ऐसे प्रसंग को शिवद्रोही मान कागभुशुण्डि अपने गुरू से रूष्ट हो गए।

इसके उपरांत कागभुशुण्डि एक बार एक महायज्ञ का आयोजन कर रहे थे। उन्होंने अपने यज्ञ की सुचना अपने गुरू को नहीं दी। फिर भी सरल हृदय गुरू अपने भक्त के यग्य में समलित होने को पहुँच गए।

शिव पुजन में बैठे कागभुशुण्डि ने गुरू को आया देखा। किन्तु कागभुशुंडी अपने आसन से न उठे, न उनका कोई आदर सत्कार ही किया। सरल हृदय गुरू ने एक बार फिर इसका बुरा नहीं माना।

पर महादेव तो महादेव ही हैं। वो अनाचार क्यों सहन करने लगे ??

भविष्यवाणी हुई – अरे मुर्ख, अभिमानी ! तेरे सत्यज्ञानी गुरू ने सरलता की कि तुझपर क्रोध नहीं किया। लेकिन, मैं तुझे श्राप दुंगा। क्योंकि नीति का विरोध मुझे नहीं भाता। यदि तुझे दण्ड ना मिला तो वेद मार्ग भ्रष्ट हो जाएंगा।

जो गुरू से ईर्ष्या करते हैं वो नर्क के भागी होते हैं। तू गुरू के सन्मुख भी अजगर की भांति ही बैठा रहा। अत: अधोगति को पाकर अजगर बन जा तथा किसी वृक्ष की कोटर में ही रहना।

इस प्रचंण श्राप से दुःखी हो तथा अपने शिष्य के लिए क्षमा दान पाने की अपेक्षा से, शिव को प्रसन्न करने हेतु; गुरू ने प्रार्थना की तथा रूद्राष्टक की वाचना की तथा आशुतोष भगवान को प्रसन्न किया।

कथासार में शिव अनाचारी को क्षमा नहीं करते; यद्यपि वो उनका परम भक्त ही क्यूँ ना हो।

परम शिव भक्त कागभुशुण्डि ने जब अपने गुरू की अवहेलना की तो; वे भगवान शिव के क्रोध-भाजन हुए। अपने शिष्य के लिए क्षमादान की अपेक्षा रखने वाले सहृदय गुरू ने रूद्राष्टक की रचना की तथा महादेव को प्रसन्न किया।

गुरु के तप व शिव भक्ति के प्रभाव से यह शिव स्तुति बड़ी ही शुभ व मंगलकारी शक्तियों से सराबोर मानी जाती है। साथ ही मन से सारी परेशानियों की वजह अहंकार को दूर कर विनम्र बनाती है।

शिव की इस स्तुति से भी भक्त का मन भक्ति के भाव और आनंद में इस तरह उतर जाता है कि; हर रोज व्यावहारिक जीवन में मिली नकारात्मक ऊर्जा, तनाव, द्वेष, ईर्ष्या और अहं को दूर कर देता है।

यह स्तुति सरल, सरस और भक्तिमय होने से शिव व शिव भक्तों को बहुत प्रिय भी है। धार्मिक दृष्टि से शिव पूजन के बाद इस स्तुति के पाठ से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं।

सम्पुर्ण कथा रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित है।

“श्री गोस्वामी तुलसीदास कृतं शिव रूद्राष्टक स्तोत्रं”

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥

भावार्थ:-हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात्‌ मायादिरहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर (अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले) आपको मैं भजता हूँ॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥

करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥

भावार्थ:-निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥

भावार्थ:-जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित है॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥

भावार्थ:-जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं, सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाला पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥

भावार्थ:-प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मे, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥

चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥

भावार्थ:-कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानंदघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए॥

न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥

भावार्थ:-जब तक पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले हे प्रभो! प्रसन्न होइए॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥

जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥

भावार्थ:-मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥

भावार्थ:-भगवान्‌ रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान्‌ शम्भू प्रसन्न होते हैं।

– पंडित कृष्ण दत्त शर्मा

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