श्राद्ध में मातृभाषा को तिलांजलि देने का प्रपंच?

श्राद्ध पक्ष में हिंदी पखवाड़ा और श्राद्ध दिवस को हिंदी दिवस मनाने वालों की कुत्सित मानसिकता का अभिनंदन।

आगे से ध्यान रहे कि श्राद्ध पक्ष में आप लोग हिंदी का भी पिंडदान न कर दें। हिंदी को पुरखों की भाँति तिरस्कृत न करें। आज की पीढ़ी पुरखों का भी अपमान करती है और हिंदी का भी। पुरखों का सम्मान करेंगे तो जीवन में तेज गति से आगे बढ़ेंगे। जो पुरखों का सम्मान नहीं करता वह जीवन में निर्वाध सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। उसको पितृदोष के कारण जीवन में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

जो अपने माता-पिता, घर के बड़ों, श्रेष्ठ परिवार जनों, गुरुओं, संतों और पूर्वजों का सम्मान नहीं करते, उनकी चिंता नहीं करते उनका बृहस्पति और चंद्र धूमिल हो जाता है। उनका लग्नेश निर्बल हो जाता है। ऐसे में धन लाभ प्राप्त करना लगभग असंभव हो जाता है। आप कैरियर की ऊंचाई छूने से वंचित रह जाते हैं। ठीक वैसे ही जो अपनी निजी मातृभाषा का सम्मान नहीं करता है उसके मस्तिष्क का 1% भी बहुत कठिनाई से सक्रिय हो पाता है। उस व्यक्ति की सीखने की क्षमता घट जाती है। उस व्यक्ति के मस्तिष्क के बहुत से आयाम खुलना शेष रह जाते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने जन्म के उपरांत जो प्रथम भाषा सीखता है उसका मस्तिष्क उसी भाषा में सोचने की आदत डाल लेता है। यह एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जो ऑटो इंस्टाल होता है और जीवन में कभी भी अनइंस्टाल नहीं होता।इसको दिमाग की हार्डडिस्क से रिमूव करना संभव नहीं होता। इसको मेन्युफेक्चरिंग डिफॉल्ट कह लो या इंब्युल्ट कैरेक्टरिस्टिक कह लो, मानव मस्तिष्क इसी आधार पर काम करता है। आप अपनी मातृभाषा में सोचने की आदत जारी रखेंगे तो आपके जीनियस बनने की संभावना जीवित रहेगी। अन्यथा आप पिछलग्गू होने से अधिक जीवन में विकसीत नहीं हो पाएँगे। इसीलिए निज भाषा का सम्मान भी आपके अस्तित्व और सम्मान के स्तर का निर्धारण करता है।

ज्योतिषशास्त्र में जन्मपत्रिका में दूसरा भाव वाणी और भाषा का होता है। यही भाव आपके विद्यालय से पूर्व की शिक्षा का भी होता है। विद्यालय से पहले की शिक्षा का अर्थ है परिवार में मिली शिक्षा और संस्कार। माता, पिता, बड़े भाई-बहन, बुआ, चाचा-ताऊ, दादा-दादी, मामा-मामी, मौसी, नाना-नानी, पड़ोसियों और संबंधियों (अर्थात पितरों के) द्वारा दिया गया शिक्षा और संस्कार का पता भी इसी द्वितीय भाव से पता चलता है। यही भाव परिवार जनों के परस्पर व्यवहार का भी द्योतक होता है। यही स्थान नकद धन का भी होता है। इसी द्वितीय भाव से आपके बैंक बैलेंस और लिक्विडिटी का भी पता चलता है। यही स्थान आपके मन की चिंतन की दिशा का भी होता है। यही स्थान आपके टेम्परामेंट का भी संकेत देता है। यही भाव आपके पुरखों द्वारा आपको दिए हुए पूण्य का संकेत भी देता है। उनके पूण्य से आपको कितना धन मिला है? कितना धैर्य मिला है? कितनी समझ मिली है? कितनी वाक्पटुता मिली है? कितना वाक्चातुर्य मिला है? कैसा व्यवहार मिला है? कैसी छवि मिली है? कितना सुन्दर मुखमंडल और आभा मिला है? कैसी भावभंगिमा मिली है? कैसा नेत्र और कैसे दांत मिले हैं? नाक और गालों के विन्यास का संकेत भी इसी भाव से मिलता है। अर्थात आपने पूर्व जन्म में जितना अपने पूर्वजों का सम्मान किया था उतना उपरोक्त बातें अच्छे या बुरे स्वरूप में आपको इस जन्म में प्राप्त हुई हैं। इस जन्म में जितना अपने वर्तमान पुरखों का सम्मान करोगे उतना ही अच्छा या बुरा उपरोक्त बातें आपको अगले जन्म में प्राप्त होंगी। दूसरी बात आपने जितनी अच्छी भाषा और समझ रखा उसके आधार पर भी उपरोक्त बातें प्रभावित होती हैं। आपके पूर्व जन्म के भाषा का प्रभाव इस जन्म की उपलब्धियों पर है। आपके इस जन्म की भाषा का प्रभाव न केवल इस जन्म की उपलब्धियों पर पड़ेगा वरण इससे अगले जन्म की उपलब्धियाँ भी प्रभावित होंगी।

यदि आपके द्वितीय भाव में दुष्ट ग्रह विद्यमान हैं तो आपकी भाषा कठोर हो जाती है। इन दुष्ट ग्रहों के द्वितीय भाव पर पड़ने वाले प्रभाव से ही आप विदेशी भाषा सीखते हैं। मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य देशी भाषा का ज्ञान शुभग्रहों के स्वामित्व और उपस्थिति के कारण संभव होता है। द्वितीय स्थान में दुष्ट ग्रहों की उपस्थिति से आप क्रोधी प्रकृति के भी हो जाते हैं। आप शार्ट टेम्पर्ड हो जाते हैं। शीघ्रकोपि स्वभाव से युक्त हो जाते हैं। टेम्परामेंटल हो जाते हैं। नाक पर गुस्सा चढ़ जाता है। यहाँ सूर्य, चंद्रमा और शुक्र के विपरीत प्रभाव से चश्मा भी चढ़ने की संभावना रहती है। यह सब बातें परस्पर जुड़ी हुई हैं। इन सब बातों का संबंध द्वितीय स्थान से है। द्वितीय भाव पर दुष्ट ग्रहों का प्रभाव जहाँ यह बताता है कि आपके परिवार में आपके गर्भ में रहते समय और आपके बचपन अर्थात जीवन के आरंभिक दिनों में परिवार के लोगों का भाषा व व्यवहार कटु रहा है जिसका प्रभाव आपके द्वितीय स्थान पर पड़ा है। अर्थात इसका संबंध भी निश्चित रूप से पुरखों से है। आपकी भाषा का संबंध भी आपके पुरखों से है। उनसे भाषा सीखना एक पहलू है और उनसे पूण्य रूप में इसका प्राप्त होना दूसरा पहलू है। जैसे आप पुरखों द्वारा परम्परा में प्रदत धन-संपत्ति को पीढ़ी पीढ़ी दर सम्हाल कर रखते हो वैसा ही एक धन यह भाषा भी है जो आपके पुरखों ने आपको पीढ़ी दर पीढ़ी तपस्या से आपको विकसित करके दिया है। इसको सम्हालकर रखने से भी आप पितृऋण से उऋण होते हैं।

भाषा को केवल संवाद का माध्यम समझना बहुत बड़ी भूल होगी। भाषा अपने साथ सभ्यता, संस्कृति, रीति, नीति, धर्म, अध्यात्म, ज्ञान, वैराग्य, परंपरा, संस्कार, संयम को भी पीढ़ी पीढ़ी दर ढोता है। भाषा पूर्वजों के पुण्य का भी वाहक है। भाषा एक पीढ़ी में विकसित होने वाली चीज नहीं है। इसके विकास में पीढ़ियाँ खपती है इसीलिये भाषा उस स्थान के लोगों की जीवनशैली का दर्शन भी कराता है। अपनी भाषा को त्यागते ही मनुष्य अपने पुरखों से भी पृथक हो जाता है और उनके पीढ़ी दर पीढ़ी के जीवन संदेश और पुण्य से भी दूर हो जाता है। अपनी जड़ों से कटकर वह निर्जीव हो जाता है। इसीलिए अपनी भाषा और भाषा का विकास करने में जिनका जीवन खपा है उन पूर्वजों का सम्मान करिए। भाषा का सम्मान करें उसे सहेजकर रखें और जो पुरखे दुनियाँ से विदा हो गए उनके लिए पितृतर्पण और पिंडदान करें। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यही प्रकार परम्परापुत है। ज्योतिष शास्त्र के इसी गूढ़ विषय को समझ लेने के लिए ग्रामीण भाषा में सरल रूप में कहा जाता है कि बाढ़े पूत पिता के धर्मे। अर्थात पुत्र सदा ही पिता के धर्म के आधार पर ही आगे बढ़ता है। पिता और पितरों के पुण्य के बिना किसी का भी पनपना संभव नहीं हो पाता। पितर और उनकी भाषा दोनों को सहेजकर रखेंगे तो भारत जीवंत रहेगा।

– मुरारी शरण शुक्ल

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