धर्म सृष्टि का शाश्वत मूल आधार

व्यवहार में मन, बुद्धि और चित्त का एक सा ही प्रयोग कर देते हैं कई बार, किन्तु तत्व देखें तो बहुत बड़ा भेद है। प्रपञ्चसार तन्त्र के अनुसार मन इंद्रियों की तन्मात्रा के द्वारा विषयों को ग्रहण करता है, उसका काम सङ्कल्प और विकल्प, समर्थन एवं विरोध करना है। जबकि चित्त साक्षी भाव से केवल इन विचार और संस्कारों का संरक्षण और संचय करता है, एक खजांची की भांति। बुद्धि सङ्कल्प और विकल्प के मध्य पूर्वस्मृति के संस्कारों से प्रभावित होकर एक पक्ष का चयन करती है, निर्णय देती है।

सो परत्र दुःख पावई, सिर धुनि धुनि पछिताई …
कालहि कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोष लगाई …

क्यों भाई, जब आत्मा निर्लिप्त है तो फिर कैसे ??

जीव संसार का अंश है, इसका अर्थ यह नहीं कि जीव जड़ है। अपितु संसार में क्रियाशील आत्मा को जीव भले कह दें। जैसे चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति को प्रत्याशी कह देते हैं, वही यदि परीक्षा देने जाए तो विद्यार्थी कह देते हैं, किन्तु इससे इनके मूल व्यक्तित्व या मनुष्य होने में भेद नहीं हो जाता।

एकदम सरल उत्तर है उपनिषदों में। जैसे स्फटिक के पास लाल, पीले, नीले, पुष्प या वस्त्र रखने से स्फटिक भी वैसे ही वर्ण का दिखने लगता है, वैसे ही आत्मा निर्लिप्त होने पर भी अंतःकरण में संचित संस्कारों के समीपवर्ती होने से प्रभावित दिखने लगती है। इसीलिए इस भ्रम का नाश अनिवार्य है और नाश होने पर तत्वबोध हो जाता है, फिर वह व्यक्ति कर्मबन्धन से भी मुक्त है।

इसलिए कहता है मन को निर्मल बनाओ, चित्त को शुद्ध बनाओ। क्योंकि आत्मा तो सर्वदा शुद्ध है, उसमें दूषित अंतःकरण के कारण दोष भाव दिखता है। दोष का आरोप अंतःकरण के कारण होता है, यदि ये निर्मल हो जाये तो आत्मा का निर्मलत्व भी स्वतः प्रत्यक्ष हो जाएगा।

बर्फ से ढका कोयला भी सफेद ही दिखता है और मैल से ढका दर्पण भी काला दिखता है, जो दिखता है, वह भ्रम है या सत्य ये रघुवीर ही जी कृपा करके बताते हैं। धूप उगेगी तो बर्फ पिघलेगी।

बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥

भ्रूण में आत्मा गर्भाधान के समय से ही स्थित तो थी, किन्तु शरीर के अवयवों की अव्यवस्था और अपूर्णता के कारण उसकी अभिव्यक्ति सम्भव नहीं थी। जब अभिव्यक्ति सम्भव हुई, तभी जीव का प्रवेश हुआ, ऐसा मानना चाहिए। जैसे वृक्ष में भी आत्मा है, लेकिन वो बोलती नहीं, क्योंकि वो सिस्टम नहीं लगा। फ़ॉर जी सिम को साधारण फोन में लगाएंगे तो भी उसके तरंग क्रियाशील नहीं होंगे, क्योंकि सिस्टम का अभाव है।

जीवात्मा वायुमंडल से जल, जल से अन्न, अन्न से शुक्र और वहां से गर्भ में जाता अवश्य है, किन्तु उसकी मूलभूत अभिव्यक्ति हेतु जितने सिस्टम की आवश्यकता है, उसके अभाव में उद्बोधनहीन रहता है, या यूं कहें कि उसके उद्बोधन और उपस्थिति को समझने हेतु हम जिस सिस्टम के पैमाने को समझते हैं, उसका अभाव होता है, इसीलिए जब मूलभूत अंग बन जाते हैं, तब वह प्रत्यक्ष होता है।

अन्न के बीज और शुक्राणु को अलग अलग समझें। बीज में प्रत्येक बीज में जीवात्मा है, क्योंकि जल के माध्यम से अन्न के बीज में ही वह जाएगा, उसके बाद ही किसी अन्य योनि में। किन्तु शुक्राणु के साथ नहीं। शुक्राणु वही निषेचन करेगा जिसमें जीवात्मा भी हो। जैसे सौ शरीर आप नदी में डाल दें तो प्रवाह में बहेंगे सभी, लेकिन जिसमें चेतन होगा वह इच्छानुसार तैर सकता है, गंतव्य तक जा सकता है, और चेतनाहीन शरीर तभी तक सक्रिय तैरता दिखेगा जब तक प्रवाह का वेग बना हुआ है।

जैसे आप विद्यालय में शरीर से प्रवेश कर गए तो यह नहीं कहा जायेगा कि आपका विद्यालय में प्रवेश हो गया है। जब वहां नामांकन होगा, अभिव्यक्ति होगी, सक्रियता होगी, तभी कहते हैं कि विद्यालय में प्रवेश हुआ। विद्यालय के भवन में आपके शरीर का उपस्थित होना विद्यालय में वास्तविक प्रवेश नहीं कहलाता है।

ऐसे ही आत्मा तो गर्भाधान के ही समय गर्भ और फिर भ्रूण में समाहित हो जाती है, लेकिन उसका नामांकन, या सक्रियता और अभिव्यक्ति न होने से जब तीसरे या चौथे महीने में मूलभूत देह निर्माण के बाद अभिव्यक्ति होती है, तब आत्मा का प्रवेश हुआ, ऐसा कहते हैं।

सती विधात्री इंदिरा, देखे अमित अनूप …

एक ही ब्रह्मांड है, ऐसा नहीं। अनंत ब्रह्मांड हैं। एक ही ब्रह्मा हैं, ऐसा नहीं, अनंत ब्रह्मा हैं।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति, वेद कहैं।

शूद्र और स्त्री पुराण पाठ नहीं कर सकते, श्रवण कर सकते हैं। बृहद्धर्म पुराण में ब्राह्मण के लिए मदिरा पान और शूद्र के लिए पुराण का पाठ ब्रह्महत्या के समान बताया गया है। हां, हिंदी अनुवाद पढ़ सकते हैं, पाठ नहीं कर सकते। कोई साध्वी पतिव्रता ब्राह्मणी हो तो पाठ कर सकती है, ऐसा सम्भवतः सूत संहिता का वचन है। सदाचारी सात्विक शूद्र रामायण का पाठ कर सकता है, ऐसा वाल्मीकीय रामायण के प्रथम अध्याय के अंतिम श्लोक में वर्णित है। गोस्वामी जी ने भी जनमानस के कल्याण हेतु ही लोकभाषा में कलिमलहरणकारिणी रामकथा का विस्तार किया।

हां, यदि सात्विकता और शुद्धता का बोध हो, आस्था और समर्पण हो शास्त्रसिद्ध बातों में तो अधिकृत वक्ता से सुन भी सकते हैं, और हिंदी, बंगाली आदि प्राकृत भाषाओं में भावानुवाद पढ़ भी सकते हैं।

वर्तमान ब्रह्मा जी के अभी तो चार मुख ही बचे हैं। आगे का पता नहीं, आधी आयु में ही चार खो चुके हैं। बाकी आधी आयु में क्या होगा, कौन जाने ? कुछ होगा तो उस समय के ग्रंथों में बता दिया जाएगा।

वैसे ब्रह्मा जी के आठ मुखों की चर्चा वैष्णवागम के माहेश्वर तन्त्र में है। इसके अलावा बृहद्धर्म पुराण में अन्य ब्रह्माण्ड वाले षोडश एवं बत्तीस मुख वाले ब्रह्मा का भी वर्णन है। अंतिम तीन तो तीनों गुणों के विस्तार में लग गए जिनके फलस्वरूप त्रिगुणमयी सृष्टि हुई। पांचवां मुख वेदनिन्दा करने से रुद्रावतार भैरव जी ने काट दिया, शेष चार अभी बचे हैं।

ये अन्य ब्रह्मांड के ब्रह्मा में से कुछ पहले कुत्ता आदि की योनि में थे, गंगाजल के सानिध्य से ब्रह्मलोक के अधिपति बनने की योग्यता आयी। इधर गद्दी खाली नहीं थी इसीलिए दूसरे ब्रह्मांड में नियुक्ति मिली। वैसे भी भगवान् तो अनंतकोटिब्रह्मांडनियामक हैं ही, रोज दो चार सौ ब्रह्मांड बनाते हैं और मिटाते हैं। फिर “जेहि पद सुर सरिता परम पुनीता”, उनके चरणोदक मूल प्रकृति श्रीगंगा जी का माहात्म्य तो वर्णनातीत है।

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतो:।
धर्मो नित्यो सुख दुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
(महाभारत)

कामनाओं के वशीभूत होकर, भय के कारण, लोभ से अथवा स्वयं की प्राणरक्षा हेतु भी धर्म का परित्याग न करे। धर्म नित्य शाश्वत है, सुख-दुःख आते जाते हैं, आत्मा अविनाशी है, उसकी प्रतीति का निमित्त देह आता जाता रहता है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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