आहार आध्यात्म का प्रथम सोपान
जो व्यक्ति “आहार संयम” नहीं कर सकते, वे इस जीवन में तो कभी भी भगवान की भक्ति नहीं कर सकते।आध्यात्म का क्षेत्र उन के लिए नहीं है।
तामसी आहार का त्याग किए बिना भक्ति असंभव है। आहार सात्विक और भगवान को समर्पित हो।
जो भगवान को प्रिय है वही खाना चाहिए क्योंकि वैश्वानर के रूप में वे ही तो आहार ग्रहण करते हैं।
आइए देखें आध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति के मापदंड…
आचार्यों ने सात मापदंड बताए हैं जिनसे हम अपनी आंतरिक प्रगति को माप सकते हैं:
(१) आहार संयम (२) वाणी का संयम (३) जागरुकता (४) दौर्मनस्य का न होना (५) दुःख का अभाव (६) श्वास की संख्या में कमी हो जाना (७) संवेदनशीलता
हमें आहार इस प्रकार से लेना चाहिए जैसे औषधि ली जाती है। उतना ही खाना चाहिए जो शरीर के पोषण के लिए पर्याप्त हो।
स्वाद में रुचि का समाप्त हो जाना एक अच्छा लक्षण है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं…
“नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः| न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन||६:१६||”
“युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु| युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||६:१७||”
आहार संयम हो जाएगा तो वाणी का संयम भी हो जाएगा। फालतू की बात करने की इच्छा ही नहीं होगी। जब वाणी का संयम हो जाएगा तब जागरूकता भी उत्पन्न होगी। जब जागरूकता आएगी तब दूसरों के प्रति दुर्भावना भी समाप्त हो जाएगी। धीरे धीरे दुःखों से भी मुक्ति मिल जाएगी। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ….
“यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||”
धीरे धीरे हम पायेंगे कि हमारे साँसों की गति भी कम होने लगी है। तब हम आंतरिक रूप से संवेदनशील भी हो जाएंगे। यह आंतरिक संवेदनशीलता जागृत होने पर हमारा अहंकार भी नष्ट होने लगेगा और भावों में करुणा व पवित्रता स्वतः आने लगेगी।
इति शुभम् |
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वसुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!!
⁃ कृपा शंकर