द्वितीय वसुमंडल
द्वितीय वसुमंडल
*************
इस मण्डल में लगभग दो प्रकार के लोग हैं, पहले तो जो यहाँ के मूल निवासी हैं और दूसरे वे जो भूमंडल से अपनी साधना पूर्ण करने के उद्देश्य से यहाँ आते हैं। जिस साधक की किसी कारणवश संसार में साधना या तपश्चर्या अधूरी रह जाती है, वह उसे पूर्ण करने के लिए आ जाता है। साधना पूर्ण हो जाने पर योग्यतानुसार ऊपर के किसी वसुमंडल या उससे सम्बंधित किसी लोक में वह चला जाता है या फिर वापस पृथ्वी पर चला जाता है और योग्य गर्भ को उपलब्ध हो जाता है। ऐसे साधकों को योग्य गर्भ की प्राप्ति शीघ्र नहीं होती। उसके आध्यात्मिक संस्कार के अनुरूप योग्य माता-पिता और अनुकूल वातावरण का होना आवश्यक है। ऐसे साधक मनुष्य शरीर ग्रहण कर धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से समाज का बहुत बड़ा कल्याण करते हैं। स्वभाव से एकान्तप्रिय, निस्पृ-ह, निरपेक्ष और विरक्त होते हैं वे। प्रायः वे अंतर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं। उनको जानना-समझना सबके वश की बात नहीं है।
जो द्वितीय वसुमंडल के स्थायी निवासी हैं, वे भी आवश्यकतानुसार पृथ्वी पर मानव शरीर ग्रहण करते हैं, विशेषकर उनका उद्देश्य होता है– मानव-कल्याण। जैसा कि ज्ञात होना चाहिए कि पञ्चतत्वों से निर्मित स्थूल शरीर केवल मनुष्य को ही प्राप्त है और सबसे महत्वपूर्ण तत्व मनस्- तत्व जो अन्य प्राणियों के लिए दुर्लभ है, उसे उपलब्ध है। इन महत्वपूर्ण कारणों से आकर्षित होकर अन्य लोक-लोकांतरों की तमोगुणी दुष्ट प्रवृत्ति की आत्माएं पृथ्वी पर आ जाती हैं और मनुष्य शरीर धारण कर पृथ्वी पर नाना प्रकार के उपद्रव करती हैं। नाना प्रकार के विध्वंसक कार्य करती हैं। देश और समाज में ऐसा कुत्सित वातावरण तैयार कर देती हैं कि चारों ओर हाहाकार मच जाता है, चारों तरफ अशान्ति फ़ैल जाती है। नाना प्रकार के जघन्य अपराधों और हत्याओं से एकबारगी त्रस्त हो उठती है मानव जाति। कहने की आवश्यकता नहीं–ऐसी विकट और विषम परिस्थिति में उन उच्चकोटि के संस्कारवान महापुरुषों का अवतरण धर्म और मर्यादा की पुनर्स्थापना के लिए किसी न किसी रूप में होता है पृथ्वी पर।
यह द्वितीय वसुमण्डल अध्यात्म प्रधान है। यहाँ स्थायी और अस्थायी दोनों प्रकार के लोग दिव्य पुरुष हैं और अपने अनुकूल आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण कर अपनी आध्यात्मिक अवस्था में लीन रहते हैं सदैव। इस मण्डल पर केवल युवावस्था ही रहती है। न बाल्यावस्था और न तो वृद्धावस्था। जो कुछ है, वह वर्तमान है, न अतीत है और न भविष्य। यहाँ केवल मात्र है–वर्तमान काल। जैसा कि हम सभी जानते हैं। काल का खण्डरूप केवल पृथ्वी पर है। यहाँ अतीत है और भविष्य है, लेकिन वर्तमान नहीं के बराबर है। बीते हए क्षण के तुरन्त बाद जो क्षण मिलता है, वह क्षण भविष्य का होता है। वर्तमान तो टिकता ही नहीं–हमने कभी इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार किया ही नहीं है। हम सब चलन में बोलते रहते हैं–भूत, वर्त्तमान और भविष्य। लेकिन क्या ऐसा है ? वर्तमान के किसी पल को किसी ने पकड़ पाया है ? जब तक बीता नहीं, तबतक तो भविष्य था वह और जब बीत गया तो हो गया अतीत। वर्तमान कब उपलब्ध हुआ। केवलमात्र भ्रम है कि हम वर्तमान में जीते हैं। हम जीते हैं केवल भविष्य में , भविष्य के सुनहरे सपनों में, सुखद आशाओं और अभिलाषाओं में। जब वे पूरी हो जाती हैं तो हम सुखी हो जाते हैं, प्रसन्न हो जाते हैं और जब वे ही आशाएं ,अभिलाषाएं अधूरी रहती हैं तो हम हो जाते हैं–दुखी और उदास।
समस्त लोक-लोकान्तरों का केंद्र पृथ्वी
************************
द्वितीय वसुमंडल में मानसिक चेतना प्रबुद्ध और विकसित हो जाती है, तभी उसमें प्रवेश सम्भव हो पाता है। साधारणतया केवल धर्म-कर्म आदि के बल पर मृत्योपरान्त किसी वसुमंडल में किसी आत्मा का प्रवेश करना दुष्कर है। योग की उच्चावस्था प्राप्त साधक ही इच्छानुसार किसी वसुमंडल में प्रवेश कर सकने में समर्थ हो सकता है।
इस विश्व ब्रह्मांड में जितने भी जगत हैं और जितने भी लोक-लोकान्तर हैं और उनमें रहने वाले जितने भी सद्-असद् प्राणी हैं, उन सभी का एकमात्र केन्द्रबिन्दु पृथ्वी अर्थात् भूमण्डल है। वे सभी किसी न किसी प्रकार मानव योनि प्राप्त करने का बराबर प्रयास करते रहते हैं और उन्हें सफलता भी मिलती है अपने प्रयास में। यदि सद् आत्माओं को मानव योनि उपलब्ध हो गयी तो मानव शरीर का मूल्य और महत्त्व समझते हुए वह उसका उचित उपयोग करेगी और उसके द्वारा ऐसा सत्कर्म करेगी जिससे उसकी और आत्मोन्नति हो और हो उसका आध्यात्मिक कल्याण। इसी प्रकार यदि असद् आत्माओं को मानव योनि में आने का अवसर किसी प्रकार प्राप्त हो गया तो उनको अपने असद् उद्देश्यों को साकार करने में फिर कोई रोक नहीं सकता। धर्म-संस्कृति आदि के नियमों-सिद्धांतों पर तो सर्व प्रथम कुठाराघात करती हैं वे। ऐसा उपद्रव, ऐसा अत्याचार, अनाचार, दुराचार आदि उनके माध्यम से फैलता है कि जिससे देश, समाज और मानव जाति त्राहि-त्राहि कर उठती है। सत्य, दया, करुणा, प्रेम आदि के दर्शन दुर्लभ ही हो जाते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, कपट, स्वार्थपरता आदि पहुँच जाते हैं अपनी चरम सीमा पर। महान् पुरुषों का अपमान, विद्वानों की उपेक्षा और सन्त-महात्माओं की दुर्दशा जो होती है, वह अलग।
युग की गति जैसे-जैसे आगे बढ़ती जायेगी, वैसे ही वैसे असद् आत्माओं की मनुष्य योनि में संख्या बढ़ती जायेगी और साथ ही नगण्य होती जायेगी संख्या मानव आत्माओं की भी। कालान्तर में ऐसा भी समय आएगा जब पृथ्वी के वास्तविक निवासी मानव का सर्वथा आभाव हो जायेगा। शून्य हो जायेगी मानव आत्माओं से पृथ्वी एक दिन। सम्भवतया ऐसी ही किसी स्थिति में परब्रह्म परमात्मा का मानव रूप में या किसी अन्य रूप में अवतरण होता है जिसका अन्य पूर्व अवतारों की तरह होगा एकमात्र प्रयोजन–असद् आत्माओं का नाश और मनुष्यात्माओं का अभ्युदय और कल्याण।
– पंडित शिव कुमार तिवारी द्वारा श्रद्धेय गुरु ब्रह्मलीन पंडित अरुण कुमार शर्मा जी की पुस्तक से संकलित।