श्री गणेश तत्त्व और महोत्सव

भगवान गणेश का प्राकट्य भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तिथि को हुआ था–

नभस्ये मासि शुक्लायाम् चतुर्थ्याम् मम जन्मनि।
दूर्वाभि: नामभिः पूजां तर्पणं विधिवत् चरेत्। ।

तबसे लेकर आजतक उनका महोत्सव मनाया जा रहा है। भाद्रपद मास का वैदिक नाम नभस्य है। प्राचीन काल में मिट्टी की मूर्ति बनाकर अनेक विधियों से भगवान गणेश की पूजा की जाती थी। आज भी उनकी विधिवत पूजा अनेक राज्यों में की जातीहै। कोई तीन दिन, कोई एक सप्ताह तो कोई पूर्णिमा पर्यन्त इनकी मूर्ति की आराधना करता है।

परब्रह्म परमात्मा का ही पृथ्वी पर प्रकटीकरण श्री गणेश के रूप में हुआ था। अतः श्रीगणेश अजन्मा देवता हैं। महाशक्ति ब्रह्मरूपा गौरीदेवी के द्वाराउनका प्रकटीकरण किया गया था। यही कारण हैकि तृतीया तिथि की देवी गौरी और चतुर्थी तिथि के देव श्रीगणेश हैं। माता और पुत्र दोनों का सान्निध्य है।

ॐ ही श्री गणेश के रूप में प्रकट हुआ। गणेश जी की आकृति ॐ जैसी दिखती है। श्री गणेशपुराण में इस तथ्य का प्रतिपादन अनेक स्थलों पर मिलता है–

१- ओंकाररूपी भगवान यो वेदादौ प्रतिष्ठितः(१/१/१५)
२-ओंकाररूपी भगवानुक्तस्ते गणनायकः( १/१२/७)
३-ददृशु:वज्रीमुख्यास्तेआद्यमोंकाररूपिणम्(२/१२५/३२)

इन अनेक प्रमाणों और आद्य पूज्य होने के कारण गणनायक का पंचदेवमें स्थान होने से इनका महत्त्व शिव, दुर्गा, सूर्य, विष्णुके तुल्यहै। महर्षिवेदव्यासजी सेपूजित होने के कारण श्रीगणेश की महत्ता विष्णुरूपी श्रीकृष्णकेतुल्य स्वतः सिद्ध है। इन पांच देवों में अभेद बुद्धि रखने वालाही तत्त्व ज्ञानी होता है।

श्रीगणेश जी को दूर्वा बहुत प्रिय है। उसमें भी २१ नरकोंसे बचाव केलिए २१ दूर्वा को उनको चढ़ाकर व्यक्ति अपने को कष्ट से बचा लेता है। दूर्वा श्यामऔर सफेद दोनों होती है। दूर्वा नरकनाशक, बंशवर्धक, आयुवर्धक, तेजवर्धक होती है–

हरिता श्वेतवर्ना वा पंच – त्रिपत्र संयुता:।
दूर्वांकुरा मया दत्ता एकविंशतिः सम्मिताः।

महर्षि कौण्डिन्य और उनकी पत्नी आश्रया ने दूर्वा से भगवानगणेश की पूजाकर उनका दर्शनप्राप्तकियाथा। शमी और मंदार के पुष्प भी गणेश जी को प्रिय हैं।

एकबार अपने सौंदर्यपर गर्वित हो चन्द्रमा ने लंबोदर गणेश का मजाक उड़ाया था। क्रुद्ध गणेशजीने चन्द्रमा को शाप दिया मेरी तिथि को तुम्हारा अदर्शन हो जाएगा। जब चन्द्रमा ने प्रार्थना की कि-हे वरद!मुझे क्षमाकरें तब गणेश जी ने उन्हें कहा- जाईये अदर्शन तो नहीं होगा पर अपवाद होगा। जो भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को तुम्हारा दर्शन करेगा वह कलंक का भागी बनेगा। अतः आजका चन्द्रमा निषिद्ध दर्शन होता है। दूसरों से कड़वे और अपशब्दवचन सुनकर व्यक्ति कलंक से मुक्त हो पाता है।

शाक्तागम, शैवागम, गणपत्यागम का विद्या और साधना वैभव अपूर्व है। इससे पार पाना असंभव जैसा है। स्कन्द पुराण में भगवान शिव ने कहा है–मेरे आगम( तंत्र शास्त्र) की ही तरह गणपति के आगम का भी बाहुल्य है- आगमा बहवो जाता गणेशस्य यथा मम।

श्री गणेश जी से संबंधित अनेक रहस्यों पर विशद चर्चा बादमें होगी पहले उनके पूजनविधानपर दृष्टि डालते हैं। श्री गणेश जी के अनेक मन्त्र और स्वरूप हैं पर छोटा मन्त्र- “”ॐ गं गणपतये नमः”” सर्वप्रसिद्ध है। श्री गणेश जी की आराधना को निम्नलिखित क्रम में अपनानाचाहिए-१-षोडशोपचारसेपूजन, २-गणेशस्तवराज
का पाठ ३- -गणेशकवच का पाठ ४- गणेश उपनिषद (अथर्वशीर्ष) का पाठ ५ – गणेश शतनाम का पाठ और अंत में श्रीगणेश सहस्रनाम का पाठ करें। उपचार पूजा करते समय ही श्री गणेश यन्त्र का भी विधि पूर्वक पूजन किया जाता है।

जब मूर्ति पूजा का विशाल स्वरूप होता है तब सिद्धि बुद्धि की भी पूजा की जाती है। तंत्र में भगवान गणेश के अनेक गुप्त स्तोत्र हैं जो अलग अलग कार्य के लिए सिद्धि दायक माने गए हैं। भगवान गणेश अपने साधकों का कल्याण और राष्ट्र को विजय प्रदान करें। विघ्नों का नाश और भारत गणराज्य की जीत भगवान वरद गणेश प्रसन्न हो वितरित करें।

सूंड़ बायीं या दक्षिण ओर ?

भगवान श्रीगणेश की सूंड़ बायींओर मुड़ी होनी चाहिए या दाहिनी ओर यह विषय निरन्तर चर्चा में बना रहताहै। लोग इस विषय को लेकर भ्रम में रहते हैं। क्या सही है?

उत्तरभारत की श्रीगणेश मूर्तियों की सूँड़ें दाईं ओर मुड़ी रहती हैं जबकि दक्षिण भारत की मूर्ति में सूंड वायीं ओर मुड़ी होती है। दक्षिण भारत की परम्परामें प्रतिमा विज्ञानका नेतृत्व “”मयमतम्”” ग्रन्थ करता है। वहीं से इस रहस्य का तांत्रिक भेदन होता है। बायीं ओर मुड़ी सूंड वाली प्रतिमा की पूजा से मोक्षका मार्ग प्रशस्त होता है और दाहिनी ओर मुड़ी सूंड वाली प्रतिमाकी पूजासे समस्त सांसारिक वैभव की प्राप्ति होती है। मयमतं में वहाँ की परम्परा स्पष्ट है-१–श्री गणेश का मुख हाथी का होता है, २-उसमें एक दांत बाहरनिकला रहता है, ३- तीन नेत्र होतेहैं, लालरंग होता है, ४-चार भुजाएं होती हैं, ५- विशाल उदर होता है, ६-सर्प का जनेऊ कंधे से लटकता रहता है, ७- जंघाऔर घुटना सघनऔरप्रबलहोता है, ८-वायां पैर फैला और दाहिना मुड़ा होता है, ९-सूंडवायीं ओर मुड़ी होती है—- वामावर्त्ता$न्गुलियकम्। ३६/१२४। । सभी प्रकार की आगमिक साधना में मोक्ष और लोक प्राप्ति की साधनाका मार्ग अलग रहताहै चाहे वह श्रीचक्र का हो या गणेश वामावर्त्त का हो।

क्यों हैं सिन्दूर वर्ण श्रीगणेशजी ?

जब भगवान शिव ने पार्वती की रक्षा में लगे गणेशजी का सिर काट करउनका बधकर दियातब पुत्र शोक में मूर्छित पार्वती को आश्वस्त करते हुए भगवान भव ने हाथी का सिर उस धड़ से जोड़ कर गणेशजी को जीवित कर दिया। वह जुड़ा सिर सिंदूर से विलेपित था। माता पार्वती अतिस्नेहवश पुत्र गणेश को अपने हाथ में लगे सिंदूर से सहलाती थीं तब वे सिंदूर वर्ण के लगते थे। हाथी का सिर भी वैसा ही निकल आया तब माता पार्वतीने कहा-तुम्हारे मुख पर सिंदूर दिख रहा है। अतः तुम अपने भक्तों से हमेशा सिंदूरसे लेपित होते रहोगे–

आनने तव सिन्दूरं दृश्यते साम्प्रतं यदि।
तस्मात्वंपूजनियो$सि सिन्दूरेण सदा नरै:। । ***शिवपुराण २/४/१८/९ । ।

गणेश जी की अग्रपूज्यता ?

भगवान शिव ने गणेशजी को यह वरदान दिया था कि तुम सभी देवों में अग्र पूजित होवोगे। साथ ही तुम सर्व पूज्य भी बने रहोगे (लिंगपुराण)। भगवती ललितादेवीनेभी गणेशजी को सर्व अग्रपूजित होनेका वरदानदियाथा (ब्रह्मांडपुराण)। यही कारण है कि गणेशजी आज शिव जी और माता ललिताजी से वरदान पाकर इन्द्र, कुबेर आदि द्वारा भी प्रथम पूजित हैं। गणेशजी का प्रातःस्मरण मात्र से दिन भर निर्विघ्न बीतता है। विवाह से उपनयन तक में ‘”गणानान्त्वा गणपति “” मन्त्र गूंजता रहता है।

मूषक वाहन क्यों ?
भगवती पार्वती ने एक बार अतिस्नेह वश पुत्र गणेश को अमरत्व देने हेतु लड्डू में अमरत्व भर दिया। उसे गणेश जी ने खाया पर एक चूहा भी उसे खा लिया। वह अमर हो गया। तब भगवान गणेश ने उसे अपना वाहन बना लिया। स्कन्दपुराण, ७/३/३२–श्लोक- २०, २१ । । अमर वाहन पर अमर गणेशजी सवार होकर चलते हैं।

दो पत्नियाँ

भगवान ब्रह्मा ने श्री गणेश जी का विवाह अपनी दोनों पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि से कर दी। भगवान गणेश के दो पुत्र हैं शुभ और लाभ।

(गणेशपुराण)

– डॉ कामेश्वर उपाध्याय
अखिल भारतीय विद्वत्परिषद

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