मकर संक्रांति की महत्ता

“मकर संक्रांति का संबंध अँग्रेजी कैलेंडर की तिथि से न होकर सूर्य के रिलेटिव मोशन से है। इस संदर्भ में हिन्दू खगोलीय गणना अधिक परफेक्ट है। सूर्य के परिक्रमण गति का ज्ञान भारतीयों को था इसका प्रमाण है मकर संक्रांति।”

मकर संक्रांति की परफेक्ट गणना करने में अंग्रेजी कैलेंडर विफल रहा है। जबकि हिन्दू कैलेंडर इस गणना में परफेक्ट है। आप पूछेंगे कैसे? तो प्रस्तुत है उत्तर। स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था मकर संक्रांति को। उस दिन अंग्रेजी तिथि 12 जनवरी 1863 था। आपको विश्वास नहीं होता मेरी बातों का तो आप उनकी जीवनी पढ़ लीजिए एक बार। इससे यह स्पष्ट होता है कि 1863 में मकर संक्रांति मनाया गया था 12 जनवरी को। कुछ वर्षों तक मकर संक्रांति मनाया जाता था 14 जनवरी को। किन्तु अब मकर संक्रांति मनाया जाता है 15 जनवरी को। क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि अंग्रेजी कैलेंडर बनाने वाले लोग इसका विचार करने में सक्षम नहीं थे। उनके कैलेंडर को मकर संक्रांति से कोई लेना देना न तब था न अब है। पूरे यूरोप में संक्रांति की न कोई कल्पना रही है और न ही सेलिब्रेशन। अब मकर संक्रांति विदेशों में सेलिब्रेट होता है तो भारतीयों के विदेश में होने के कारण। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मकर संक्रांति की तिथि प्रत्येक पचास वर्ष में एक तिथि खिसक जाती है। संक्रांति वहीं रहती है। अंग्रेजी कैलेंडर खिसक जाता है। अर्थात अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक दो वर्ष में लगभग एक घंटे का अन्तर आ जाता है संक्रांति के समय में। अब विवेकानंद के जन्म को 156 वर्ष हो चुके तो इसीलिये 156 वर्षों में संक्रांति की तिथि 12 से 15 जनवरी तक खिसक चुकी। इस वर्ष संक्रांति 14 जनवरी को रात्री 2 बजे के लगभग हुआ है।

हमारे सनातन पञ्चाङ्ग में न केवल मकर संक्रांति वरण सभी बारह संक्रांतियों का विस्तृत व सटीक विवरण उपलब्ध है। आप कहेंगे बारह संक्रांति? आश्चर्य मत करिए। आकाशमंडल में सौर मंडल के निकट बारह तारा समूह हैं जो हमारे सौर मंडल के सभी पिंडों के परिक्रमण पथ में सामने आते हैं। जैसे मकर राशी के सामने सूर्य के आते ही मकर संक्रांति होती है। अर्थात सूर्य का मकर राशी में संक्रमण होता है। वैसे मकर से जब सूर्य कुम्भ राशी के समीप के आकाश को स्पर्श करता है तब कुम्भ संक्रांति होती है। ऐसे ही मीन संक्रांति, मेष संक्रांति, वृष संक्रांति, मिथुन संक्रांति, कर्क संक्रांति होता है। कर्क संक्रांति से सूर्य दक्षिणायन होने लगते हैं। तभी देवशयनी एकादशी होता है। और जैनियों का चतुर्मासा होता है। इसके पश्चात सिंह संक्रांति, कन्या संक्रान्ति, तुला संक्रान्ति, बृश्चिक संक्रान्ति, धनु संक्रान्ति और फिर मकर संक्रान्ति। यह है सभी बारह संक्रान्तियों का वर्ष भर का चक्र। सूर्य इसी प्रकार अपने परिक्रमा पथ पर राशियों से सापेक्षिक गति करता हुआ परिभ्रमण करता रहता है। इसी सापेक्षिक गति को अंग्रेजी में रिलेटिव मोशन कहा जाता है।

किन्तु हमारे हिन्दू पञ्चाङ्ग में इसके कालक्रम में चूक नहीं होती। हर वर्ष यह मकर संक्रांति पौष-माघ माह में ही होता है। और इसकी तिथि हमें काल गणना के गणित से ज्ञात हो जाता है जो पञ्चाङ्ग में वर्णित होता है। वैसे ही पूरे वर्षभर के सूर्य से जुड़े एक एक घटनाक्रम का हम आकलन गणितीय सूत्रों के आधार पर कर लेते हैं। चूँकि ब्रह्मांड के सभी पिंडो की एक निश्चित गति है। इसीलिए हम गणित के सूत्रों के आधार पर निश्चित गति को प्रतिमान मानकर सूर्य समेत सभी ग्रहों की स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। उनकी परस्पर दूरी और स्थिति ज्ञात हो जाने से हमें एक एक आकाशीय पिंड से संबंधित सभी आकाशीय घटनाओं का ज्ञान हो जाता है। सूर्य, चंद्रमा और पृथिवी की परस्पर स्थिति का ज्ञान हो जाने से हम सहजता से सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण की घटनाओं का पल, क्षण और निमेष का ज्ञान भी प्राप्त कर लेते है।

सूर्य की अनेक घटनाओं में एक बात उसका घूर्णन और परिभ्रमण भी है। सूर्य के घूर्णन का ज्ञान हमें लाखो वर्षों से था। इसीलिए हम हरेक पूजा के बाद सूर्य का अनुसरण करते हुए घूर्णन की क्रिया करते हैं। और बड़े अनुष्ठान, यज्ञ इत्यादि में परिक्रमा भी करते हैं। बड़े महापुरुषों, गुरु इत्यादि की भी हम आदरपूर्वक परिक्रमा करते हैं। यह कुछ और नहीं वरण सूर्य की कर्मठता को जानकर उसका अनुसरण करने की क्रिया है। संक्रांति का ज्ञान भी यह प्रमाणित करता है कि हमें सूर्य की परिक्रमण गति का ज्ञान था। ग्रहण का ज्ञान भी सूर्य की घूर्णन और परिक्रमण गति के हमारे ज्ञान का परिणाम है। सूर्य की सभी ऊर्जा का स्रोत होने का ज्ञान भी हमें था। तभी सूर्य निकट आने से गर्मी बढ़ेगी और सूर्य दूर जाने से ठंढक बढ़ेगी यह हम जानते हैं। उत्तरायण होने पर सूर्य मानव जनसँख्या वाले सभी महादेशों के निकट होता है। दक्षिणी गोलार्ध में सागर ही अधिक है। अधिकांश मानव जनसँख्या उत्तरी गोलार्द्ध में है इसीलिए जीवन के लिए आवश्यक गर्मी सूर्य के उत्तरी गोलार्ध के ऊपर आने से ही मिलती है।

सूर्य के अंदर चल रहे संलयन और विलयन की प्रक्रिया का भी हमें ज्ञान था। सूर्य गर्म है यह तो हम जानते ही थे। सूर्य के अत्यधिक गर्म होने से होने वाली समस्याओं के बारे में हमारा ज्ञान प्रमाणित है। संज्ञा, यमी, यम, शनि और छाया की कथा का वर्णन और विश्वकर्मा द्वारा सूर्य का तेज कम करने के उपायों की प्रतीकात्मक कथा भी इस ज्ञान से हमारे अवगत होने का प्रमाण है। सूर्य के सात घोड़ों का वर्णन भी बहुत कुछ स्पष्ट करता है। सात घोड़े का अर्थ है वह साधन जिसके सहारे सूर्य की किरणें यात्रा करती हैं। अर्थात सूर्य किरणों के सात अवयव अर्थात सूर्य की किरणों में अंतर्निहित सात रंग। विभग्योर। ईनके सहारे ही तो सूर्य किरणे लंबी यात्रा कर पाती हैं और अत्यधिक ऊष्मा सन्निहित कर पाती हैं। केवल्य सूर्य की किरणों का ही नहीं तो ब्रह्मांड के विभिन्न पिंडों से आने वाली अनेकानेक प्रकार की किरणों का ज्ञान हमें था। और उन किरणों का धरती पर पड़ने वाले प्रभावों का भी ज्ञान हमे था।

ब्रह्मण्ड के अनेक पिंडो से निकलकर पृथिवी तक अनेक किरणों के आने का विस्तृत ज्ञान वर्णित है ज्योतिष शास्त्र में। आज के वैज्ञानिक विश्व को रेड से परे की कुछ गिनती के किरणों का ही ज्ञान हो पाया तो अपनी अज्ञानता को छुपाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक शब्द गढ़ा इंफ्रा रेड। वैसे ही एक और शब्द गढ़ा गया अल्ट्रा वायोलेट वायोलेट से इतर की सभी किरणों के लिए। और पूरा वैज्ञानिक विश्व अपनी नाकामी छुपा गया। दृश्य किरणों का ज्ञान भी पूरा पूरा नहीं है वैज्ञानिकों को। किन्तु हमारे ऋषियों ने एक लाख प्रकार की किरणों का पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों का विवरण प्रस्तुत किया। और उसे षोडशवर्ग के नाम से अभिव्यक्त किया। विभिन्न अंशात्मक विभाजन करके एक लाख प्रकार के स्टैंडर्ड आलेख तैयार किया जिनका विवरण भृगु संहिता में प्राप्त होता है। राहु केतु नाम के ग्रहों की कल्पना ही स्पष्ट करता है कि ब्रह्मांड से आने वाले विभिन्न प्रकार की किरणों को मोटा मोटी दो बड़े हिस्सों में बाँटकर समझने और समझाने का प्रयास किया था हमने।

सुर्य की ऊर्जा ही पृथ्वी की सभी प्रकार की ऊर्जाओं का अनंतिम श्रोत है यह हमें ज्ञात था। ईसका प्रमाण ऋग्वेद के प्रथम मंडल का प्रथम मंत्र है। अग्निमिळे पुरोहिताः का अर्थ ही है कि सृष्टि के आरम्भ में अग्नि के सभी स्वरूप एक साथ प्रकट होते हैं। अग्नि के सभी स्वरूप मिलकर सूर्य का स्वरूप लेते हैं। यह वर्णन सूर्य की ऊर्जा के विभिन्न स्वरूपों में परिवर्तित होने की क्षमता का दिग्दर्शन है। सूर्य की ऊर्जा के स्थानांन्ततरण (ट्रांसमिशन ऑफ हिट) का ज्ञान भी हमें था। उसके ऊर्जा स्थानांतरित करने की क्षमता का वर्णन सूर्य और संज्ञा की कथा में मिलता है। अग्नि सूक्त के अनेक मंत्र सूर्य की विभिन्न क्षमताओं का वर्णन करते हैं। अग्नि सूक्त का गायत्री छंद में लिखा होना भी बहुत कुछ कहता है। सूर्य की इन्ही क्षमताओं से नतमष्तक होकर हम सूर्य के आराधक हैं। और सूर्य के प्रतिनिधि रूप में हमारे सामने प्रकट होने वाली अग्नि के भी हम आराधक हैं। सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के अनेक उत्सव हैं जिनमे एक मकर संक्रांति भी हैं। आज के दिन विभिन्न जल पिंडों में स्नान करके हम अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। सूर्य का तेज धारण करने का प्रयत्न करते हैं। यही भाव कार्तिक स्नान की परम्परा में भी है और संक्रांति स्नान और माघी स्नान की परंपरा में भी। माघ मास के कल्पवास का संबंध भी इसी आयुर्वेदिक भाव से है।

– मुरारी शरण शुक्ल

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