धर्म और मननुसार कर्म में अंतर समझें और शास्त्र मर्यादा का अतिक्रमण न करें

बहुत से लोग (विशेषकर आज के नए नवेले मनमौजे सम्प्रदायों वाले) ऐसी बातें करते हैं कि हमें तो सन्ध्या गायत्री आदि नहीं करनी, हमें तो भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं। बस गुरुदेव ने कहा कि भगवान का नाम लो, तो ले रहे हैं, नाम जपते रहो, काम करते रहो, बाकी सब भगवान देख लेंगे। कर्मकांड आदि तो केवल प्रपञ्च मात्र है, इसकी क्या आवश्यकता, आदि आदि।

भगवान ने शास्त्र मर्यादा के अतिक्रमण को करके भजन करने नहीं कहा। भगवान ने गीता में कहा :-
यज्ञदानादिकं कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥

यज्ञ, दान, तप आदि कर्म बुद्धिमानों को पवित्र करने वाले हैं इसीलिए इनका परित्याग न करे।
किन्तु ऐसा नहीं है कि केवल महंगे खर्च से यज्ञ होंगे। भगवान ने ये भी कहा, यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि। सभी यज्ञों में जपयज्ञ, भगवान के नामजप का जो जपयज्ञ है, वह मैं हूँ, मतलब वह सर्वोत्तम है। इसीलिए यज्ञ को पापनाशक, उसमें भी जपयज्ञ को सर्वोच्च बताया गया है।

अब आते हैं दान पर। भगवान केवल पवित्रात्मा को ही मिलते हैं (यहां आत्मा शब्द मूलरूपी जीव नहीं, मायावरण से युक्त मोहबद्ध जीव का वाचक है)। पवित्र करने वाले कर्मों में यज्ञ, दान और तप के विषय में कहा।

दानों में ज्ञानदान सर्वोच्च है क्योंकि उससे व्यक्ति लोक और परलोक दोनों को शुभ बनाता है। कन्यादान कर दिया, लेकिन ज्ञान ही न रहे कि प्राप्त पत्नीरूपा कन्या के साथ व्यवहार कैसे करना है तो अनर्थ है। अन्नदान कर दिया, प्राप्त भोजन की सामग्री का करना क्या है, इसका ज्ञान न हो तो भी अनर्थ है। अतएव छोटी छोटी बातों से लेकर ब्रह्मबोध तक सब कुछ ज्ञान ही पर आश्रित है। इसीलिए ज्ञानदान करे क्योंकि एक तो वही ज्ञानानंद आत्मा का मूल रूप है, दूसरे इससे बड़ा प्रायश्चित्त दूसरा नहीं।

ज्ञानं नैवात्मनो धर्म: न गुणो वा कथञ्चन।
ज्ञानस्वरूप एवात्मा नित्यस्सर्वगत: शिव:॥
(आदित्य पुराण)

ज्ञान आत्मा का गुण या धर्म आदि कुछ भी नहीं है। सर्वव्यापी शिवरूपी आत्मा का स्वरूप ही ज्ञान है। ज्ञान स्वयं आत्मा है।

शिवेन विष्णुनाजेन श्रुत्या परमयापि च।
ज्ञानयज्ञसमं नास्ति प्रायश्चित्तं न संशय:॥
(मानव पुराण)

शिव, विष्णु, ब्रह्मा अथवा वेदोक्त निर्गुण ब्रह्म से सम्बंधित ज्ञानचर्चा रूपी यज्ञ से बड़ा कोई भी पापनाशक प्रायश्चित्त नहीं है।

अब आते हैं तपस्या पर। इसके भी गीता के सत्रहवें अध्याय में मानसिक, शारीरिक और वाचिक आदि भेद बताए गए हैं। भाव यह है कि तपस्वी वास्तव में वही है जिससे किसी भी निरपराध को मन, वाणी या कर्म से कष्ट न पहुंचे। ध्यान रहे, यह केवल निरपराध के लिए है, उसे कष्ट न हो। भगवान ने सबों पर दया करने नहीं कहा, क्योंकि गीता बताई ही इसीलिए गयी ताकि दुष्टों का संहार करने की अर्जुन की प्रवृत्ति पुनः जागृत हो, मामनुस्मर युद्ध्य च। गीता अर्जुन को स्वधर्मपालन और रक्षण हेतु कही गयी, न कि जंगल जाकर फक्कड़ बनने। वो काम भी कर सकते हैं, किन्तु जिसके लिए, जब जहां धर्म के लिए जिस कर्म की आवश्यकता हो, भूखे रहकर व्रत करने से लेकर, दान देने तक, शास्त्रार्थ करने से लेकर व्यापार करने तक, सिर कटाने से लेकर सिर काटने तक, धर्म के लिए, निरपराध जनों को कष्टमुक्त करने हेतु किया गया प्रत्येक समयोचित कार्य ही तपस्या है।

किन्तु यह मनमाने रूप से नहीं हो सकता। भगवान ने गीता में कहा कि,

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥

ऐसे पाखण्डी लोग, जो धर्म को ताक पर रखकर मनमाने ढंग से भजन (जपयज्ञ), पूजन, (द्रव्ययज्ञ) अथवा कर्षयन्तः शरीरस्थं आदि श्लोकों के अनुसार तपस्या करते हैं, वे आसुरी सम्पदा वाले लोग केवल नाममात्र का ही धर्म करते हैं, जो अविधिपूर्वक है, उचित विधि के विरुद्ध है। अतएव अपने वर्ण, आश्रम एवं वेदसम्मत सम्प्रदाय के अनुसार ही साधना, भजन आदि करना चाहिए।

क्योंकि शास्त्र के आलोक, विधि, श्रद्धा आदि से रहित किया गया तप, दान, यज्ञ शुभ कर्म भी निष्फल हो जाता है, उसका फल न इस लोक में न परलोक में मिलता है, ऐसा गीता के सत्रहवें अध्याय में भगवान ने कहा :-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥

कुछ लोग ये भी पूछते हैं कि आत्मा जब निर्विकार है तो सुखादि का उपभोग कौन करता है ? यही प्रश्न हिमालय ने भी भगवती से किया था, तब उन्होंने कहा कि जैसे स्फटिक के ऊपर लाल फूल रखने से स्फटिक भी लाल वर्ण का प्रतीत होने लगा लगता है वैसे ही बुद्धि और इन्द्रिय के सानिध्य से आत्मा की भी वैसी ही विकृतियुक्त प्रतीति होती है। वस्तुतः मन, बुद्धि एवं अहंकार ही फल के भोक्ता हैं किंतु उनसे अपने आप को भिन्न न मानने के कारण वह उपभोग आत्मा को प्राप्त होते प्रतीत होते हैं :-

बुद्धीन्द्रियादिसामीप्यादात्मनोऽपि तथा गतिः।
मनोबुद्धिरहंकारो जीवस्य सहकारिणः॥
स्वकर्मवशतस्तात फलभोक्तार एव ते।
सर्वं वैषयिकं तात सुखं वा दुःखमेव वा॥
(महाभागवत शाक्तोपपुराण)

कई लोगों के मन में यह सन्देह होता है कि जब यह जगत् वेदों में स्वप्नगाथा के समान मिथ्या बताया गया है, तो यह कैसे सम्भव है क्योंकि कई बार स्वप्न में घटी घटनाओं के समान घटना हमारे जीवन में भी घटित होती है।

स्वप्न में जो होता है, वह घटना बाद में अलग से सत्य हो सकती है, आगे के समय में समतुल्यता से सत्य हो सकती है किंतु उसी समय सच नहीं होती।

जैसे आपने स्वप्न में हाथ कटते देखा। हो सकता है कि आपका हाथ दो दिन बाद कट जाए, वह स्वप्न सत्य हो गया, किन्तु जब आप स्वप्न देख रहे थे उस समय साथ साथ समतुल्य भाव से हाथ नहीं कट रहा होता है। स्वप्न में नहाने पर, खाने पर यहां नहीं भीगता, यहां नहीं कटता।

किन्तु स्वप्न में स्वप्नदोष होने पर यहां भी व्यक्ति प्रभावित होता है, वैसे ही यदि वृत्तियां अत्यधिक प्रबल हो जाएं तो इस मिथ्या जगत् में किये गए कर्म भी संस्कार के माध्यम में कर्मफल देते हैं जो प्रारब्ध कहाता है।

आत्मा जब माया से आवरण से अलग हो जाता है, तभी अकर्ता रहता है। आवरण युक्त होने पर तो वही कर्ता है। जैसे आप जब ऑफिस में रहते हैं तो काम करते हैं, और जब नहीं रहते तो नहीं करते हैं। कर्ता तो चेतन ही हो सकता है किंतु कार्य हेतु माया रूपी उसकी आत्मशक्ति चाहिए। इसीलिए वह आत्मशक्ति से युक्त होकर देहादि अधिष्ठान से कार्य करता है और जब माया के आवरण से रहित होकर ब्रह्मरूप में रहता है तो अकर्ता रहता है।

लेकिन गीता में तो कहा गया कि गुणा गुणेषु वर्तन्ते, अर्थात् खाना पीना, सोना, जागना ये सब गुण ही गुण में होता है, आत्मा में नहीं। फिर आत्मा को कर्ता कहें या अकर्ता ?

जैसे स्वप्न में आप भोजन करते हैं, आपने अपनी ही शक्ति से एक शरीर बनाया, एक अन्न बनाया, और खाया, उस समय तृप्ति भी हुई। लेकिन मूलतः क्या हुआ ? न कोई भोज्य था न कोई भोक्ता। यही गुणों का गुणों में बरतना हुआ। अपने अंदर ही सब हो रहा है, किन्तु मूल में कुछ नहीं।

इस बात को सीधे सीधे ऐसे समझें :-

२ :- आत्मा हर समय अकर्ता अभोक्ता है क्योंकि ये उसका मूल स्वभाव है। जैसे कपड़े पहनना आपके देह के लिए मूलतः आवश्यक नहीं है। वो आपके अस्तित्व का मूल अंग नहीं, इसीलिए नंगे पैदा होते हैं।

२ :- अंतःकरण और महत्तत्व के कारण माया का जो आवरण बनता है, उसके आवरण ये युक्त होकर आत्मा कर्म में प्रवृत्त होता है। जैसे आप नानाविध रंग रूप के वस्त्र पहनते हैं, और उसी के अनुरूप कार्य भी करते हैं। काम आपको ही करना है, क्योंकि आप ही चेतन हैं। जड़ तत्व कार्य करने में समर्थ है ही नहीं, वह चेतन की शक्ति से क्रियाशील होता है।

पुनः आप तो मूल रूप में अकर्ता हैं, किन्तु अलग अलग कामों को अलग अलग कपड़े हैं, मान लें कि यूनिफॉर्म। पुलिस का काम करना हो तो पुलिस का, डॉक्टर के समय डॉक्टर का, वकालत के समय वकील का आदि आदि। यदि आप हर समय कर्ता होते तो हर समय तद्वत् काम करते। किन्तु आपका कार्य यूनिफॉर्म के साथ जुड़ा हुआ है। यूनिफॉर्म रूपी आवरण से जुड़े, ऑफिस गए तो कर्म किये, न जुड़े, ऑफिस न गए, तो मूल रूप में स्थित रहे, अकर्ता रहे।

इसीलिए भले ही चेतन की शक्ति से ही काम होना है, इसीलिए एक दृग्सिद्धान्त से वह कर्ता हुआ। किन्तु वह स्वाभाविक रूप से कर्ताभाव से रहित है, वह तो अपने आवरण के अनुसार कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, इसीलिए अन्तःकरण वाला आवरण ही मुख्य कारक हुआ, क्योंकि उससे युक्त आत्मा में ही कर्ताभाव आता है, इसीलिए एक दृग्सिद्धान्त से आत्मा अकर्ता भी हुआ। किन्तु ये युति शाश्वत नहीं, इसीलिए यह आत्मा के मूलरूप में परिवर्तन नहीं करती, अपितु नानाविध आवरण, यूनिफॉर्म से नानाविध कर्मों को अनुसार उसकी प्रतीति कराती है।

जहां आत्मा को कर्ता और भोक्ता कहा गया है, वहां उसके कर्ताभाव और भोक्ताभाव से युक्त होने की बात है, जो अंतःकरण के आवरण से युक्त होने और प्रतीत होती है। मूल रूप में आत्मा अकर्ता और अभोक्ता ही है।

जीवत्व की स्थिति में चेतन कार्याभिमान से युक्त हो जाता है इसीलिए कर्ता भाव का रोपण उसमें हो जाता है। ब्रह्मत्व की स्थिति में उस कार्यभेदजनक अभिमान का नाश हो जाता है इसीलिए वह अकर्ता है।

ब्रह्म और उनकी अभिन्नतद्रूपता की शक्ति माया, अथवा शिव-शक्ति, प्रकृति-पुरुष, अथवा उन्हें चेतन एवं चितिशक्ति कहें, इसके मध्य दो प्रकार के सम्बंध हैं। जब यहां शक्तितत्त्व शिवतत्व को बाहरी भाव से आवृत्त करके रहती है जो चेतन की जीव संज्ञा हो जाता है, और जब उसी की वह शक्ति अंदर में समाहित रहती हैं, तो उस चेतन की ब्रह्म संज्ञा होती हैं। ब्रह्म और जीव हैं एक ही चेतन, किन्तु उनकी ही शक्ति माया के स्थानबद्ध स्थिति से उस चेतन की ब्रह्म और जीव संज्ञा होती रहती है।

अभेद दो में होता है, एक में नहीं। जीव बिम्ब है ब्रह्म का। जैसे आपका बिम्ब दर्पण में बनता है वैसे ही ब्रह्म का बिंब माया में बनता है। बिम्ब का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं, वो बस उसकी प्रतीति मात्र है। प्रतीति ही भ्रम है और इसी का नाश ब्रह्मज्ञान है।आत्मरूप का ध्यान और ब्रह्म का ध्यान एक ही है। ब्रह्म का रूप ही आत्मरूप है। इसीलिए सनकादि हरि: शरणम् में भी अपना ही चिंतन करते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है कि अपने को जो मान लिया, जो चिंतन कर लिया वही धर्म हो गया, वही सत्य ही गया, वही तत्वज्ञान या ब्रह्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार हो गया। आपके सोच लेने मात्र से सूर्य प्रकाशहीन तो नहीं हो जाएगा, या फिर विष्ठा सुगंधित तो नहीं हो जाएगी। जो जैसा है, वैसा ही रहेगा। आपकी धारणा आपका दृष्टिकोण मात्र है। वह सत्य के अनुकूल भी हो सकती है, प्रतिकूल भी हो सकती है। इसीलिए अपने चिंतन को श्रुति, स्मृति, पुराण आदि के मापदंडों पर खरा उतार कर ही उस चिंतन की कल्याणकारिता को परखना चाहिए।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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