कल्याण का निश्चित उपाय

भगवान् ने जीव पर कृपा करके उसको अपना कल्याण करनेके लिए ही मनुष्य शरीर दिया है । अपना कल्याण करनेके सिवाय मनुष्य जन्म का कोई प्रयोजन है ही नहीं । शरीर, धन-संपत्ति, जमीन-मकान, स्त्री-पुत्र आदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएं हैं, वे सब-की-सब मिलने और बिछुडनेवाली हैं ।

अतः कोई कितना ही बड़ा धनवान बन जाय, बलवान बन जाय, विद्वान बन जाय, ऊँचे पदवाला बन जाय, बड़े कुटुम्बवाला बनजाय, पर अपने कल्याणके बिना ये सब-की-सब वस्तुएँ अपने कुछ कामन आयेंगी । बिना दुल्हेकी बरातकी तरह सम्पूर्ण सांसारिक भोग व्यर्थ हैं ।इसलिए मनुष्यका खास कर्त्तव्य है—अपना कल्याण करना ।

एक मार्मिक बात है कि अपना कल्याण करनेमें मनुष्यमात्र सर्वथा स्वतंत्र है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है । कारण कि भगवान् जीवको मनुष्यशरीर देते हैं तो उसके साथ ही अपना कल्याण करनेकी स्वतंत्रता, सामर्थ्य, योग्यता और अधिकार भी प्रदान करते हैं ।

अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य अपना कल्याण करनेके लिए क्या करें ?

इसका उत्तर है कि यदि मनुष्य इन चार बातोंको दृढतासे स्वीकार करले तो उसका कल्याण हो जाएगा—

१- मेरा कुछ भी नहीं है ।

२- मेरेको कुछ भी नहीं चाहिए ।

३- मेरा किसीसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।

४- केवल भगवान् ही मेरे हैं ।

मिलने और बिछुडनेवाली वस्तुओंको अपना मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । वास्तवमें अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है । इसलिए ‘मेरा कुछ भी नहीं है’— ऐसा स्वीकार करनेसे जीवनमें निर्दोषता आ जाती है । निर्दोषता आते ही मनुष्य धर्मात्मा हो जाता है ।

जब मेरा कुछ है ही नहीं, तो फिर हम किस वस्तुकी चाहना करें ? अतः ‘मेरेको कुछ भी नहीं चहिये’—ऐसा स्वीकार करते ही जीवनमें निष्कामता आ जाती है । निष्कामता आते ही मनुष्य योगी हो जाता है अर्थात् उसको समत्वरूप योगकी प्राप्ति हो जाती है—‘समत्वं योग उच्यते’ ( गीता २/४८ ) । कोई भी कामना न होनेसे उसको चित्तवृतिनिरोधरूप योगकी भी प्राप्ति हो जाती है—‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ ( योगदर्शन १/२ ) । मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः असंग है—‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ ( बृहदा. ४/३/१५ ) । अतः मिलने और बिछुड़नेवाले किसी भी वस्तु-व्यक्तिके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे मनुष्यको अपनी असंगताका अनुभव हो जाता है । असंगताका अनुभव होनेपर वह ज्ञानी हो जाता है ।

जीवमात्र परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) । भगवान् का अंश होनेके नाते केवल भगवान् ही हमारे हैं । भगवान् के सिवाय दूसरा कोई हमारा नहीं है । इस प्रकार भगवान् में अपनापन स्वीकार करते ही मनुष्य भक्त हो जाता है ।

धर्मात्मा, योगी, ज्ञानी और भक्त होनेमें ही मनुष्यका कल्याण निहित है । ऐसा होनेमें कठिनाई भी नहीं है; क्योंकि वास्तवमें मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः निर्दोष, निष्काम, असंग और भगवान् का अंश है । तात्पर्य है कि हमारा स्वरुप सत्तामात्र है । उस सत्तामें निर्दोषता, निष्कामता और असंगता स्वतःसिद्ध है और वह सत्ता भगवान् का अंश है । इसलिए साधकका कर्तव्य है कि वह उपर्युक्त चारों बातोंको दृढ़तासे स्वीकार कर ले । फिर उसका कल्याण निश्चित है ।

*‘सब साधनोंका सार’* पुस्तकसे …✍🏼

(साभार गीता प्रेस)

जय श्रीकृष्ण 🙏🏻

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