क्या ईश्वर का अस्तित्व है ?
आज के अधिकतर युवाओं का यही प्रश्न होता है । वे प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं ,किन्तु वे ये नहीं जानते प्रमाण प्रत्यक्ष ,अनुमान ,आगम-निगम भी प्रमाण हैं ।
सुविख्यात जर्मन दार्शनिक इमैन्युएल काण्ट (In manual Kant) साहबने गम्भीर तत्त्वों और विचारों से पूर्ण बहुतेरे ग्रन्थ प्रणयन करनेके बाद उपसंहारमें कहा है कि ; “इस संसार में दो वस्तुओं को देखकर मुझे भय लगता है; उनमें एक है ‘नक्षत्रखचित आकाश’–(Starry Heaven) , और दूसरा है ‘विवेककी अनुभूति’ सदसद् का अन्तर्ज्ञान (Moral Conscience ) .”
इन दोनों वस्तुओंसे उनको भय क्यों होता था ,उसका कारण कांट साहब ने बतलाया है । उन्होंने कहा है कि “अँधेरी रात में जब मैं नक्षत्रखचित आकाशकी ओर देखता हूँ तो मेरा मन कहता है कि ‘कौन हो तुम महाशक्तिमान् पुरुष,जो इस अगणित सृष्टिमय विश्वब्रह्माण्डका संचालन कर रहे हो ? जिस प्रकार बालक गेंद खेलते हैं ,उसी प्रकार खेल-खेलमें तुम अनन्त ब्रह्माण्डों को अपने-अपने कक्षमें दौड़ा रहे हो । तुम कितने महान् हो ,कितने विराट हो । और तुम्हारे सामने मैं कितना क्षुद्र हूँ ! कितना क्षुद्रातिक्षुद्र हूँ ,कीटादपि कीट हूँ ।’ यह सोचते ही मन विस्मयाविष्ट हो जाता है ,और भय लगता है । उसकी महत्ता और अपनी क्षुद्रताके बीच जब इतना विशाल व्यवधान पाता हूँ ,तब भय से अभिभूत हुए बिना मैं नहीं रह सकता ।’
दूसरी वस्तु जो कांट साहब के लिये भयजनक जान पड़ी है ,वह है अन्तरमें विवेककी वाणी या अन्तर्यामीका अनुभव । इस सम्बन्ध में वे कहते हैं कि “मैं जब कोई अनुचित कार्य करता हूँ ,तब मानो कोई मेरे भीतर से बिजली-सा कड़ककर कहता है कि ‘तुम यह अनुचित कर रहे हो !’ तब सोचता हूँ –वह कौन है ,जो मेरे ही भीतर रहता है पर मुझसे बड़ा है ,मुझपर हुकुम चलाता है ,मेरे विचारों के ऊपर अपनी राय देता है । उसकी बातें स्पष्ट सुनाई पड़ती हैं ,उसमें ननु-नच नहीं है । उसकी बातों में एक कठोर (Imperative) अनुशासन है ,जो मुझको अपने आदेशके अनुसार कार्य में प्रवृत्त करने के लिये बाध्य करता है ,तब भय लगता है । मुझे जैसा बनना उचित था ,वह उसे बतला देता है । तब मुझे जैसा बनना उचित था और मैं जैसा कुछ बन गया हूँ ,उस आदर्श (Ideal) और यथार्थ (Actual) के बीच जो व्यवधान इतना बड़ा है वह मेरी आँखों के सामने आ जाता है । वह व्यवधान है कि उसका विचार करते ही मेरे प्राण भयके मारे स्तब्ध हो जाते हैं । आदर्शकी अपेक्षा मैं कितना नीच हूँ ,कितना छोटा हूँ –इसका विचार करते ही मैं भयभीत हो उठता हूँ ।”
इसके बाद कांट साहब कहते हैं कि ‘मालूम होता है ये दोनों वस्तुएँ यथार्थ में दो नहीं हैं । नक्षत्रखचित आकाशके अन्तरालमें जो शक्ति है और मेरे भीतर छिपी हुई जो संचालिका शक्ति है ,वे दोनों मेरे मन ही जान पड़ती हैं । ‘ कांट कहते हैं कि ‘ ये दोनों शक्तियाँ एक हैं ,ऐसा मेरा अनुमान होता है । परन्तु निश्चयपूर्वक ठीक-ठीक कह नहीं सकता । क्योंकि इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता । ऐसी आशा भी नहीं कि किसी दिन इसका प्रमाण मिल जाएगा ।’
कांट साहब की इस उक्तिके समान उच्च तत्त्वज्ञान पाश्चात्यदर्शनमें अधिक नहीं है — यों कहें तो अत्युक्ति न होगी । पाश्चात्य विचारों को आध्यात्मिक गवेषणाकी सीमान्त-रेखा यहीं आकर विलीन हो जाती है । अत्यन्त आश्चर्यपूर्वक कांट साहब की आध्यात्मिक गवेषणाके साथ भारतीय आर्य-ऋषियोंकी गम्भीर अनुभूतिका एक विशेष सादृश्य दिखलायी देता है ।
आर्य-संस्कृतिके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ वेद हैं । वेदका सर्वश्रेष्ठ मन्त्र-ब्रह्म-गायत्री है । इस गायत्री-मन्त्रमें ही आर्य-ऋषिकी सर्वातिशायी गंभीरतम अनुभूति मूर्तिमान् हुई है । कांट साहब ने उसके दर्शन से जिस अन्तिम तत्त्वकी बात कही है ,भारतीय ऋषियोंने गायत्री-मंत्र में भी उसी चरम सत्य की बात कही है । -” ॐ भू: भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।”
उन्होंने कहा है कि ‘भू:, भुवः, स्व: इत्यादि चतुर्दश भवनात्मक इस समस्त ब्रह्माण्डके जो प्रसविता देवता हैं ,तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य – उनकी वरणीय ज्योतिका हम ध्यान करते हैं । क्यों करते हैं ? उनके साथ हमारा सम्बन्ध क्या है ? धियो यो न प्रचोदयात् – वे हमारी बुद्धिके प्रचोदयात् अर्थात् प्रेरणकर्ता हैं । जो ब्रह्माण्डके चालक हैं ,वे ही हमारी बुद्धिके चालक हैं ।’
कांट के साथ वैदिक ऋषियोंकी अनुभूति का यह मेल भी है और दोनोंमें पृथकता भी है । वह यह है कि कांट ने कहा है कि दोनों वस्तुएँ एक ही हैं ,यह उनका अनुमानमात्र है ,वे निश्चय करके कुछ भी नहीं कह सकते । भारतीय ऋषि कहते हैं कि दोनों एक ही हैं ,इस बात को हम सुनिश्चितरूप से जानते हैं । ‘वेदाहमेतम् ‘ । हमने उनको देखा है । अन्धकारके उस पार उस परमज्योतिकी सत्ताका हमने प्रत्यक्ष किया है । हमारे ज्ञान में सन्देह ,भ्रम और प्रमाद नहीं है ; क्योंकि सत्यके साथ एकात्मता प्राप्त करके हमने उसको अपरोक्ष अनुभूति जाना है ।
गायत्री-मन्त्र में तीन वस्तुओं का पता लगता है
१. ‘सवितुर्वरेण्यं भर्ग: ‘ अर्थात् परात्पर तत्त्व ,परमात्मा ।
२. ‘धियो न: ‘ अर्थात् जीव का बुद्धितत्त्व ।
३. ‘प्रचोदयात् ‘– इन दोनों का प्रचोदनात्मक सम्बन्ध । गायत्री-मन्त्र साथ आदि में सप्त व्याहृति ‘भू: भुवः स्व: मह: जन: तप: सत्यम् ‘– एक अनन्त ब्रह्माण्डका केन्द्र है ,दूसरा व्यष्टि जीवका जीवन-केन्द्र है और तीसरा इन दोनोंके बीच का प्रणोदन अर्थात् प्रेरणामूलक आन्तर सम्बन्ध है । इन तीन तत्त्वों के ऊपर ही विश्व के समस्त दर्शन और विज्ञान प्रतिष्ठित है । भारतीय शास्त्रों के समग्र अनुशीलन का बीज है यह ब्रह्मगायत्री । इसी कारण भगवान् श्रीमुख से कहते हैं कि -‘गायत्री छन्दसामहम् ‘ । इन्द्रयातीत परमात्मा इन्द्रियों का विषय नहीं ,फिर इन्द्रियों से गोचर कैसे होगा ? वह तो ज्ञानस्वरूप अन्तर्यामी है ,अन्तःकरण में ही स्फुरित होता है । जब तक उसे इन्द्रियों से खोजेंगे तब तक उस तक पहुंच नहीं होगी । उसके लिये अन्तस् की यात्रा प्रारम्भ करनी होगी ।
साभार शरण तिहारी श्रीहरिदासकी दुलारी