मन, बुद्धि, चित्त, प्राण, तन्मात्राओं तथा इन्द्रियों में अंतर और इनका सम्बन्ध

नए नवेले अध्यात्म की ओर आने वाले लोगों को लगता है कि मन की शक्ति सबसे बड़ी है, जबकि ऐसा नहीं है। विशेषकर रामपाल, ओशो, कृष्णमूर्ति, या फिर पाश्चात्य देशों के घोषित कथित आध्यात्मिक जनों को जानने, पढ़ने वाले लोग जो सनातन की मूल गुरुपरम्परा के इतर जाकर खुद से बिना गुरु के मार्गदर्शन के ही शास्त्रालोक का ज्ञान लेने लगते हैं, उन्हें यह भ्रम शीघ्र होता है।

यह भ्रम इसीलिए होता है क्योंकि उन्हें परिभाषाओं का स्पष्टीकरण प्राप्त नहीं रहता। बुद्धि, चित्त आदि मन से परे है। मन सबसे शक्तिशाली तत्व नहीं है। मन वकील है, वह तर्क वितर्क करता है। वह मोलभाव करता है, सङ्कल्प विकल्प करता है। इसीलिए वह सबसे शक्तिशाली नहीं है।

परेण धाम्ना समनुप्रबुद्धा मनस्तदा सा तु महाप्रभावा यदा तु सङ्कल्पविकल्पकृत्या
(प्रपञ्चसार तन्त्र में आद्यशंकराचार्य जी के वचन)

लेकिन मन से बड़ी बुद्धि है क्योंकि वह निर्णय देती है, निश्चयात्मिका शक्ति की स्वामिनी होने से बुद्धि, मनरूपी वकील से बड़ी है, वह न्यायाधीश है।

यदा पुनर्निश्चिनुते तदा सा स्याद्बुद्धिसंज्ञा
(प्रपञ्चसार तन्त्र में आद्यशंकराचार्य जी के वचन)

हालांकि बुद्धि की अपेक्षा चित्त की प्रधानता है, साक्षीभाव का स्वामी होने से, वृत्तियों का संग्राहक होने से वह बुद्धि से भी श्रेष्ठ है।

यदा सा त्वभिलीयतेऽन्तश्चित्तं च निर्धारितमर्थमेषा॥
(प्रपञ्चसार तन्त्र में आद्यशंकराचार्य जी के वचन)

आद्यशंकराचार्य जी ने कहा है :- चिदचिद्ग्रंथिश्चेतस्तत्

जब शक्ति चेतन के अंदर होती है, तो उस शक्ति को माया और चेतन को ब्रह्म कहते हैं। और यदि बाहर रहती है, तो अविद्या कहाती है। यह अविद्या योगदर्शन में वर्णित अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश आदि के साथ रहने वाली पहली अविद्या नाम वाली क्लेश है जो मोक्ष में बाधक है। इस समय उसी चेतन की जीव संज्ञा होती है। इसी व्यतिक्रम में मायाकृत जड़ और ब्रह्मांश जीव के मध्य जो ग्रंथि है, वह चित्त है और वही सबसे शक्तिशाली है। वह सबसे शक्तिशाली इसीलिए है क्योंकि मन, बुद्धि आदि के लीन हो जाने पर भी वह मोक्षप्राप्ति तक बना रहता है :- अक्षयं ज्ञेयमामोक्षात्।

चित्त के अधीन बुद्धि है और बुद्धि के अधीन मन है, मन के अधीन प्राणशक्ति है जो तन्मात्राओं का नियंत्रण करता है।उन तन्मात्राओं से इंद्रियां कार्य करती हैं जो देह के चैतन्यमय होने का अनुभव कराती हैं।

प्राणानां आध्यात्मिकानामिन्द्रियाणां पतिर्मुख्यः प्राणः
(महाभारत)
इंद्रियों का स्वामी प्राणवायु है। यह दो प्रकार की होती है, मुख्य और क्षुद्र। मुख्य प्राण में प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान होते हैं। क्षुद्र प्राण में नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय होते हैं। ये पूरे शरीर का नियंत्रण कक्ष के समान हैं। छींक आने से लेकर भूख लगने तक, पलक झपकने से लेकर हृदय धड़कने तक, प्रसव कराने से लेकर बाल बढ़ने तक गर्मी या ठंड लगने से उंगलियों को चटकाने तक, भोजन पचाने से लेकर शौच कराने तक का काम ये सब संचालित करती हैं।

इसमें पुनः प्राण, अपान, व्यान आदि के भी सात सात भेद होते हैं।
उदाहरण के लिए प्राण शक्ति के प्रथम भेद यानी मुख्य प्राणों में प्रथम प्राण के भी उर्ध्वनामक अग्नि, प्रौढ़नामक आदित्य, अभ्यूढ़ नामक चन्द्रमा, विभुनामक पवमान अथवा वायु, योनिनामक अप् अथवा जल, प्रियनामक पशु, और अपरिमित नामक प्रजा आदि प्रकार होते हैं।

सप्त प्राणाः सप्तापानाः सप्त व्यानाः ॥
योऽस्य प्रथमः प्राण ऊर्ध्वो नामायं सो अग्निः ॥
योऽस्य द्वितीयः प्राणः प्रौढो नामासौ स आदित्यः ॥
योऽस्य तृतीयः प्राणोऽभ्यूढो नामासौ स चन्द्रमाः ॥
योऽस्य चतुर्थः प्राणो विभूर्नामायं स पवमानः ॥
योऽस्य पञ्चमः प्राणो योनिर्नाम ता इमा आपः ॥
योऽस्य षष्ठः प्राणः प्रियो नाम त इमे पशवः ॥
योऽस्य सप्तमः प्राणोऽपरिमितो नाम ता इमाः प्रजाः ॥
(अथर्ववेद)

इसमें भी एक एक प्रकार आपके इन्द्रिय, मन, आदि पर बहुत बारीक प्रभाव डालता है। जैसे प्राणशक्ति का प्रथम प्रकार (मुख्य) के भी प्रथम प्रकार प्राणवायु का जो छठा भेद है, जिसे हमने प्रियनामक पशु संज्ञक कहा, उसे ही कारण आपके दिमाग में लज्जा, भय अथवा लोभ जैसी भावनाएं आती हैं।

इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने तीसरे अध्याय में कहा :-

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥

बाह्य परिच्छिन्न और स्थूल देह की अपेक्षा सूक्ष्म अन्तरस्थ और व्यापक आदि गुणों से युक्त होनेके कारण श्रोत्रादि पञ्च ज्ञानेन्द्रियोंको पर अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं। तथा इन्द्रियोंकी अपेक्षा संकल्पविकल्पात्मक मन को श्रेष्ठ कहते हैं और मन की अपेक्षा निश्चयात्मिका बुद्धि को श्रेष्ठ बताते हैं। एवं जो बुद्धिपर्यन्त समस्त दृश्य पदार्थों के अन्तरव्यापी है जिसके विषय में कहा है कि उस आत्माको इन्द्रियादि आश्रयों से युक्त काम ज्ञानावरण द्वारा मोहित किया करता है वह (बुद्धि का द्रष्टा चेतन) है।

आपको कई बार जो मिलता है, क्या उसके बारे में आपको मेहनत करनी पड़ती है ? कई बार जो मिला क्या वास्तव में वो आपने अपने परिश्रम से पाया ?? कई बार बहुत कुछ बिना किये मिलता है, कई बार करने के बाद भी नहीं मिलता। जीवन खेती की तरह है। यहां किसान की मेहनत ही पर्याप्त नहीं हैं। बीज की गुणवत्ता, खेत की उर्वरता, मौसम का हाल और फसल की सुरक्षा भी आवश्यक है। परिश्रम एवं भाग्य, दोनों एक ही रथ के दो पहिये हैं, एक के बिना दूसरा व्यर्थ है। दोनों साथ मिलकर सफलता को जन्म देते हैं।

जीवन में केवल परिश्रम ही नहीं, सही समय, सही स्थान, सही दिशा और सही नियोजन भी आवश्यक है। और सबसे बड़ी बात, आज का फल कल ही मिले, आवश्यक नहीं। क्योंकि धान की फसल चार महीने में तैयार होती है जबकि गन्ने की फसल एक साल में। आज जो आम खा रहे हैं, वो बीस वर्ष पहले लगाया गया था। आज जो आम लगाया है, वो बीस वर्ष बाद फलेगा। हाँ, ये बात अवश्य है कि प्रत्येक कर्म आम ही नहीं होता, वो मिर्च भी हो सकता है, शीघ्र फलित हो सकता है, किन्तु प्रत्येक कर्म मिर्च भी नहीं होता, आम भी हो सकता है। यही प्रारब्ध है और ऐसा ही जीवन भी है।

मन की शक्ति सङ्कल्प विकल्प करने की है, निर्णय लेने की, निश्चय करने की नहीं।
सङ्कल्पो वाव मनसो भूयान्यदा वै सङ्कल्पयतेऽथ मनस्यत्यथ वाचमीरयति तामु नाम्नीरयति नाम्नि मन्त्रा एकं भवन्ति मन्त्रेषु कर्माणि।
(छान्दोग्योपनिषत्)

इसी प्रकार मन से जो श्रेष्ठता से युक्त है, वह बुद्धि तर्क वितर्क नहीं करती, वह निर्णय देती है, निश्चय करती है। तो क्या सङ्कल्प विकल्प, तर्क वितर्क करने वाला मन छोटा हो गया, महत्वहीन हो गया ? नहीं ऐसा नहीं है।

तानि ह वा एतानि सङ्कल्पैकायनानि सङ्कल्पात्मकानि सङ्कल्पे प्रतिष्ठितानि समकॢपतां द्यावापृथिवी समकल्पेतां वायुश्चाकाशं च समकल्पन्तापश्च तेजश्च तेषाँ सङ्कॢप्त्यै वर्षँ सङ्कल्पते वर्षस्य सङ्कॢप्त्या अन्नँ सङ्कल्पतेऽन्नस्य सङ्कॢप्त्यै प्राणाः सङ्कल्पन्ते प्राणानाँ सङ्कॢप्त्यै मन्त्राः सङ्कल्पन्ते मन्त्राणाँ सङ्कॢप्त्यै कर्माणि सङ्कल्पन्ते कर्मणां सङ्कॢप्त्यै लोकः सङ्कल्पते लोकस्य सङ्कॢप्त्यै सर्वँ सङ्कल्पते स एष सङ्कल्पः सङ्कल्पमुपास्स्वेति ।
(छान्दोग्योपनिषत्)

सङ्कल्प की शक्ति अद्भुत है। सङ्कल्प विकल्प, तर्क वितर्क, उहापोह (आज की भाषा में साईंटिफिक रिसर्च) की शक्ति के ही कारण आकाश, पृथ्वी, अंतरिक्ष, प्रकाश, ध्वनि, तरंग, अन्न, अनेकों प्रकार की प्राण शक्ति आदि का ज्ञान सम्भव है। इससे मन प्राण, शरीर आदि को निर्देश कर पाता है, इसी ज्ञान के कारण सही निर्णय तक पहुंचकर कर्म करने की योग्यता आती है, इसीलिए इस शक्ति की, मन की अधिवक्ता शक्ति को धारण करना चाहिए।

तन्मात्रा वह माध्यम है जिससे इंद्रियों को अपने सम्बंधित विषयों को ग्रहण करने की शक्ति मिलती हैं। जैसे आप अपने वाहन के माध्यम से गंतव्य तक जाते हैं वैसे ही इंद्रियों को अपने विषय तक पहुंचने के लिए तन्मात्रा की आवश्यकता होती है।

उदाहरण के लिए, नेत्र रूपी इन्द्रिय, रूप तन्मात्रा के माध्यम में दृश्य रूपी विषय को ग्रहण करती है। अथवा कर्ण रूपी इन्द्रिय, शब्द तन्मात्रा के माध्यम से ध्वनि रूपी विषय को ग्रहण करती है। यदि तन्मात्रा न रहे तो आंख और कान रहने पर भी व्यक्ति अंधा या बहरा हो जाएगा।

अपने शरीर की तन्मात्रा का संचालन प्राण करता है। वही इंद्रियों के तन्मात्रा से प्राप्त विषयों को मन तक ले जाता है। जैसे जब शरीर की ऊर्जा क्षीण होती है तो कृकल नाम का क्षुद्र प्राणवायु मन को यह सन्देश देता है कि भूख लग रही है और तब वह ऐसे हॉरमोन या रसायन को निकालता है जिससे व्यक्ति की भोजन करने की इच्छा होती है। ऐसे ही जब हमारी आंखों को पलक झपकाना होता है तो यहां कूर्म नामक क्षुद्र प्राणवायु कार्य करता है। जम्हाई लेने के लिए देवदत्त नामक क्षुद्र प्राणवायु का प्रयोग किया जाता है। ऊपर हमने सबों के नाम और विभाजन लिखे हुए हैं।

कूर्म उन्मीलने तु सः। कृकलः क्षुतकायैव देवदत्तो विजृंभणे॥
(लिंगपुराण)

इन्द्रिय और विषय की कड़ी तन्मात्रा है, यहां विषय छोटा है और इन्द्रिय बड़ी। इन्द्रिय और मन की कड़ी प्राणवायु है, यहां इन्द्रिय छोटा है और मन बड़ा। धी और आत्मा की कड़ी चित्त है, यहां धी छोटी है और आत्मा बड़ी। इसी बात को संक्षेप में हमने ऊपर श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक का उदाहरण देकर कहा है।

यहां एक नया शब्द आया :- धी। सामान्य रूप से धी शब्द का प्रयोग बुद्धि के लिए किया जाता हूं किन्तु वास्तव में धी के गुणों और चर्चा करें तो यहां इंद्रियों की ग्रहण शक्ति, मन की तर्क वितर्क की शक्ति, बुद्धि की निर्णयशक्ति और चित्त की साक्षीभाव की शक्ति सब सम्मिलित है, इसीलिए कह सकते हैं कि किसी भी वस्तु को देखने या सुनने के बाद, सोचने विचारने के बाद, निर्णय लेकर क्रियान्वयन करने तक की प्रक्रिया में लगे समस्त तत्वों का समूह ही धी कहाता है।
अष्टाभिर्गुणैः शुश्रूषा श्रवणं ग्रहणं धारणमूहनमपोहनं विज्ञानं तत्त्वज्ञानं चेति तैः॥
(महाभारत)
इस धी के लक्षण में ऊपर दिए सूत्र में विज्ञान शब्द भी आया है। इस विज्ञान से जो वस्तु हम नहीं जानते, जिस बात का हमें बोध नहीं होता, वो बात भी हम जान जाते हैं, उस बात का निश्चयात्मिका रीति से बोध भी हमें हो जाता है, यह हमारे सनातन धर्म का उद्घोष है।
अविज्ञातस्य विज्ञानं विज्ञातस्य च निश्चयः
(अग्निपुराण)

यह विज्ञान आखिर करता क्या है ?

विज्ञानं यज्ञं तनुते । कर्माणि तनुतेऽपि च । विज्ञानं देवाः सर्वे । ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते । विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद । तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति शरीरे पाप्मनो हित्वा । सर्वान्कामान्समश्नुत इति ।
(तैत्तरीयोपनिषत्)

विज्ञान से यज्ञ का विस्तार होता है। अन्य अभी कर्मों का भी विस्तार होता है। सभी देवता अपने आप में विज्ञान ही हैं। और इसी विज्ञान का आश्रय लेकर ब्रह्म की उपासना भी की जाती है। इसीलिए एक प्रकार से विज्ञान ही ब्रह्म है, हम ऐसा भी कह सकते हैं। इसीलिए विज्ञान के माध्यम से शरीरजन्य पापकर्मों का, अशुभ वृत्तियों का नाश करके सभी कामनाओं की प्राप्ति करता है, ऐसा वेदवाक्य है।

आज हम दुनिया भर में कहते फिर रहे हैं कि धर्म में क्या रखा है, विज्ञान को पकड़ो, वैज्ञानिक बनो, विज्ञान श्रेष्ठ है। किंतु जो सनातन को जानता है, वही सच्चा वैज्ञानिक है। विज्ञान कैसा हो ? पाप्मनो हित्वा, पाप का नाश करने वाला हो। आज के मूर्ख वैज्ञानिक पाप के लिए ही विज्ञान को बढ़ा रहे हैं। हमारे यहां तो यज्ञ तक विज्ञान से ही होते हैं :- विज्ञानं यज्ञं तनुते।

इस विज्ञान को, जो आज के वैज्ञानिक समझ रहे हैं, यह ऐसा ही नहीं हैं। अभी तो केवल चमड़े की आंखों और शरीर से देखे, सुने और समझे जाने वाले आधिभौतिक पटल पर विज्ञान के अति लघु प्रारूप पर अनुसंधान चल रहे हैं, वो भी ऐसे कि प्रत्येक दो तीन दशक में किसी का नियम, किसी का सिद्धांत गलत सिद्ध होकर नया सिद्धान्त और रिसर्च आ जाता है। आधिदैविक और आध्यात्मिक पटल के विज्ञान तक तो मनुष्य जा ही नहीं रहा, जहां तक हमारे ऋषि महर्षि गए थे।

विज्ञान के ध्यान, चिंतन से ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद जाना जा सकता है।महाभारत, रामायण आदि इतिहास, श्रीमद्भागवत आदि पुराण, वैदिक और पौराणिक ज्ञान, मृत्यु के बाद की स्थिति को प्राप्त पितृगण, दिव्यलोकों के देवता, भूमि की खनिज सम्पदा, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, विद्युत, कीट, पतंग, अणु परमाणु, सूक्ष्मदर्शी जीव, वायुमंडल, श्राद्धकल्प, व्याकरण आदि शब्दविधान, सामुद्रिक विज्ञान, भविष्यदर्शन, तर्कशास्त्र, आपदाप्रबंधन, वनस्पति, परिवहन, औषधि, प्रजनन, ब्रह्मविद्या, युद्धक हथियार, अंतरिक्ष, सौरमंडल, कृषि आदि से भोजनविज्ञान, चिकित्सा, धातुविज्ञान, यांत्रिकी, वास्तुविद्या, राजनीति, न्यायशास्त्र, संचार माध्यम, धर्माधर्म, कर्तव्याकर्तव्य सबका ज्ञान केवल विज्ञान से ही सम्भव है। केवल वैज्ञानिक ही इनको जान सकता है।

अब आप ही बताइए, क्या कुरान और बाइबल वाले लोग किसी भी प्रकार से ये बात अपने ग्रंथों से सिद्ध कर सकते हैं ? हमारे यहां तो विज्ञान ही ब्रह्म है। हां, लेकिन उसको अपने क्षुद्र नए नवेले मस्तिष्क से केवल किताब पढ़कर मनमाना अर्थ लगाकर नहीं, बल्कि योग्य शंकराचार्य, रामानुजाचार्य जी आदि की वेद, पुराण, तन्त्र, स्मृतिसम्मत गुरुपरम्परा से प्राप्त उचित अर्थबल के माध्यम से धी का प्रयोग करते हुए समझना पड़ेगा। अधजल गगरी बनकर छलकना नहीं है।

विज्ञानं वाव ध्यानाद्भूयः विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति यजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यँराशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्र विद्याँ सर्पदेवजनविद्यां दिवं च पृथिवीं च वायुं चाकाशं चापश्च तेजश्च देवाँश्च मनुष्याँश्च पशूँश्च वयाँसि च तृणवनस्पतीञ्छ्वापदान्याकीटपतङ्गपिपीलकं धर्मं चाधर्मं च सत्यं चानृतं च साधु चासाधु च हृदयज्ञं चाहृदयज्ञं चान्नं च रसं चेमं च लोकममुं च विज्ञानेनैव विजानाति विज्ञानमुपास्स्वेति ॥
(छान्दोग्योपनिषत्)

आगे ऋषिगणों का वचन है :-

स यो विज्ञानं ब्रह्मेत्युपास्ते विज्ञानवतो वै स लोकाञ्ज्ञानवतोऽभिसिध्यति यावद्विज्ञानस्य गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति ॥
(छान्दोग्योपनिषत्)

जो व्यक्ति इस विज्ञानरूपी ब्रह्म की उपासना करता है, यह वैज्ञानिक कहाता है, वही इस संसार में बुद्धिमान, विद्वान, ज्ञानवान कहाता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने में समर्थ होता है, इसीलिए विज्ञान को जानना चाहिए, विज्ञान की उपासना (अनुसंधान) करनी चाहिए, विज्ञान को सिद्ध करके ब्रह्मबोध का प्रयोग करके मोक्षकाम होना चाहिए। हमारे यहां शालिहोत्र संहिता का पशु विज्ञान, अगस्त्य संहिता का विद्युत विज्ञान, भारद्वाज संहिता का वैमानिक विज्ञान, चरक संहिता का चिकित्सा विज्ञान, भृगु संहिता का अन्तरिक्ष विज्ञान, वशिष्ठ संहिता का युद्ध विज्ञान आदि सबके सब विज्ञान से भरे हैं।

भगवान भी गीता में कहते हैं :- ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्यामि, मैं तुम्हें विज्ञानसहित ज्ञान का उपदेश कर रहा हूँ। हमारे यहां विज्ञान और धर्म भिन्न हैं ही नहीं। किन्तु यह ध्यान में रहे कि जो पाश्चात्य म्लेच्छ मंदबुद्धि कथित वैज्ञानिकों ने कहते रहते हैं, और जिनके खुद के सिद्धांत और खोज हर बीस तीस सालों में बदलते रहते हैं, उन गली के कुत्ते के समान लक्ष्यहीन केवल आधिभौतिक पटल पर विराजित अनुसंधानों को, जो कथित रूप से स्वयं को पूर्ण वैज्ञानिक मानते हैं, उनकी बातों की अपेक्षा सनातन के आधिभौतिक के साथ साथ आधिदैविक और आध्यात्मिक पटल पर विराजित कल्याणप्रद विज्ञान की ओर भी परम्परा के अनुसार, मर्यादा के अनुसार, अधिकृत रीति से तपोबल के माध्यम से अनुसंधान करें। मन की सङ्कल्प विकल्प की अद्भुत शक्ति का प्रयोग करें। मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु सः। मन से बड़ी बुद्धि और बुद्धि से बड़े आत्मरूप आप चेतन ब्रह्म हैं।

अंत में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की एक कविता, जो शायद अब नहीं पढ़ाई जाती है, उसे लिख रहा हूँ।

शैशव दशा में देश प्रायः जिस समय सब व्याप्त थे,
निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे।
संसार को पहले हमीं ने ज्ञान भिक्षा दान की,
आचार की, व्यापार की, व्यवहार की, विज्ञान की।

‘हाँ’ और ‘ना’ भी अन्य जन करना न जब थे जानते,
थे ईश के आदेश तब हम वेदमंत्र बखानते।
जब थे दिगंबर रूप में वे जंगलों में घूमते,
प्रासाद–केतन–पट हमारे चन्द्र को थे चूमते।

यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते,
पर कर्म से फल कामना करना न हम थे जानते।
विख्यात जीवन व्रत हमारा लोकहित एकान्त था
‘आत्मा अमर है, देह नश्वर’ यह अटल सिद्धांत था।

फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में,
जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में।
इंजील और कुरान आदिक थे न तब संसार में,
हमको मिला था दिव्य वैदिक बोध जब संसार में।

जिनकी महत्ता का न कोई पा सका है भेद ही,
संसार में प्राचीन सबसे हैं हमारे वेद ही।
प्रभु ने दिया यह ज्ञान हमको सृष्टि के आरंभ में,
है मूल चित्र पवित्रता का सभ्यता के स्तम्भ में।

विख्यात चारो वेद मानो चार सुख के सार हैं,
चारो दिशाओं में हमारे वे विजय ध्वज चार हैं।
वे ज्ञान गरिमागार हैं, विज्ञान के भंडार हैं,
वे पुण्य–पारावार हैं, आचार के आधार हैं।

जो मृत्यु के उपरांत भी सबके लिए शांतिप्रदा–
है उपनिषद विद्या हमारी एक अनुपम सम्पदा।
इस लोक को परलोक से करती वही एकत्र हैं,
हम क्या कहें, उसकी प्रतिष्ठा हो रही सर्वत्र है।

है वायुमण्डल में हमारे गीत अब भी गूँजते
निर्झर, नदी, सागर, नगर, गिरि, वन सभी हैं कूजते
देखो हमारा विश्व में कोई नहीं उपमान था
नरदेव थे हम, और भारत देव लोक समान था।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु

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