मुझे श्री कृष्ण ही चाहिए

(श्री अर्जुन द्वारा श्री कृष्ण का चयन क्यों?)

विराट नगर में श्री अर्जुन संध्या वन्दन कर अभी आसन पर ही बैठे थे तभी उनके पास एक तपस्वी का आगमन हुआ। तपस्वी ब्राह्मण ने कहा–परन्तप! युद्ध होने जा रहा है। इन्द्र या श्रीकृष्ण में से किसी एक को तुम अपने सहयोगी या सारथी के रूप में चुन लो। तब श्रीअर्जुन ने कहा- मुझे तो श्री कृष्ण ही सारथी के रूप में चाहिए।मुझे सहयोग की आवश्यकता नहीं है।तपस्वी ब्राह्मण ने कहा-ऐसा क्यों पार्थ? तब श्रीअर्जुन नेकहा-श्रीकृष्ण मन से जिसकी जय चाह दें उसकी ही जीत होती है।वे अजेय हैं।जो समुद्र को बाहु से तैरने की इच्छा करता है वही श्री कृष्ण को जीतने की इच्छा कर सकता है। जो कैलाश पर्वतको हथेली से मार कर फाड़ने की क्षमता रखता हो वही श्री कृष्णसे युद्ध की इच्छा कर सकता है। जो चन्द्र-सूर्य की गति को रोकने की इच्छा करता हो वही श्री कृष्ण से युद्धकी इच्छा कर सकता है।श्रीकृष्णने अकेले भोज राज को सेना सहित हरा कर रुक्मिणी से विवाह किया।अकेले ही नग्नजित को सेना सहित मार कर राजासुदर्शन को कारागारसे मुक्त कराया।
पांड्य नरेश को अकेले ही किवाड़ के पल्ले से मार डाला। काशीको अकेले जला डाला।सौभ नामक विमान पर चढ़ कर युद्ध करने वाले शाल्व-राज को आकाश में ही मार डाला।उसकी शतघ्नी शक्तिको हाथ से पकड़कर चूर्ण कर दिया था। नरकासुर को अकेले प्राग्ज्योतिषपुर में जा कर मार डाला और निर्मोचन नगरीमें जा कर छःहजारकिवाड़ के सांकलों को एक झटकेमें काट डाला था।वेअसह्य वीर्य हैं। अनन्त हैं। विष्णु हैं। इसलिए मैं उनको सारथी के रूप में इस युद्ध में चाहता हूँ।(वे ब्राह्मण अकस्मात् वहाँ सेचले गए।)उद्योगपर्व ४८/७०-८८।।
श्री कृष्ण से युद्ध में सहयोग मांगने के लिए श्रीअर्जुनऔर
दुर्योधन दोनों गए थे।वासुदेव ने कहा-एकओर में अशस्त्र पाणि रहूँगा,दूसरी ओर मेरे योद्धा ओर सेना रहेगी। बोलो धनंजय तुम क्या चाहते हो ? श्रीअर्जुन ने कहा – मैं आप को सारथी के रूप में चाहता हूँ।दुर्योधन प्रसन्न हो गया।उसे सेना चाहिए थी जो उसे मिल गयी।दुर्योधनके जानेके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने श्री अर्जुन से पूछा- युद्ध न करने वाले मुझ को किस बुद्धि से तू ने वरण किया ?–
आयुध्यमानः कां बुद्धिमास्थायाहं वृतस्त्वया।।
भगवान श्रीकृष्ण को उत्तर देते हुए श्री अर्जुन ने तीन बातें कहीं जो आज भी रोमांचित करती हैं–
१-आप अकेले सभी कौरवों को मारने में समर्थ हैं।मैं भी अकेले समर्थ हूँ।यदि आप मिल गएतो हमदो समर्थ होंगे।
२-आप पृथ्वी पर अकेले कीर्तिमान हैं।यश आपके पीछे चलता है। मैं भी केवल यश चाहता हूँ। इसलिए आपका वरण किया।
३- मैंने अनेक रात्रियों में सोने से पूर्व यही संकल्प किया कि युद्ध में कभी आप मेरे सारथी बनें। आज मेरी चिर कामना पूरी हुई। इसलिए मैं ने आपका वरण किया।
श्री अर्जुन के इस उत्तर को सुन कर भगवान श्रीकृष्ण ने
विहस कर कहा–पार्थ!तुम मुझसे प्रतिस्पर्धा करते हो यह उचित है।मैं तुम्हारा सारथ्य करूँगा —
उपपन्नमिदं पार्थ! यत् स्पर्धसि मया सह।
सारथ्यं ते करिष्यामि कामः सम्पद्यतां तव।।
उद्योगपर्व ७/३५–३८।।
किसी भी विपरीत परिस्थिति में केवल भगवान से उनका मार्ग दर्शन मांगने वाला,सारथ्य मांगने वाला विजयी होता है या उन्हें प्राप्त कर लेता है।धर्म यदि हारता है तो देवता और परमात्मा की हार होती है बशर्ते वह युद्ध निष्काम लड़ा जाए, स्वार्थ के वशीभूत हो कर न लड़ा जाए। श्री अर्जुन की विशेषता थी वे कभी विषाद नहीं करते थे और उनमें अपार धैर्य था।केवल एक बार विषाद ने उन्हें स्पर्श किया था,रणक्षेत्र में।भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा था-
बलं बीर्यं च तेजश्च शीघ्रता लघु हस्तता।
अविषादश्च धैर्यं च पार्थान्नान्यत्र विद्यते।।५९/२९।।
हे वासुदेव! श्रीकृष्ण!!इस देश में पुनःपार्थ जैसा अडिग नायक भेजिए।
डॉ कामेश्वर उपाध्याय
अखिल भारतीय विद्वत्परिषत्।।

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