क्यों हुआ माँ भगवती का प्रादुर्भाव

‘सत्व गुण’, सत्यता पर आधारित हैं तथा अन्य दोनों गुणों से श्रेष्ठ माना जाता हैं क्योंकि सत्य का पालन अत्यंत कठिन हैं। तीनों गुणों से संयुक्त होते हुए पर भी, आद्या शक्ति प्रधानतः सत्वगुणी हैं। ब्रह्माण्ड के पालन तथा स्थिति हेतु, ‘सत्व गुण’ की आवश्यकता होती हैं, जिसके अधिष्ठित देव भगवान विष्णु हैं।

इस गुण में सत्य, पवित्रता तथा शुद्धता के सिद्धांतों का समावेश हैं, किसी भी जीव को मन, वचन, शारीरिक रूप से किसी भी प्रकार का कष्ट न देना, सर्वदा सत्य का आचरण तथा भाषण, पवित्र स्थानों में रहन-सहन जैसे दैनिक कृत्यों का प्रतिपादन होता हैं। भगवान विष्णु तथा उनकी पत्नी कमला या लक्ष्मी, सम्पूर्ण जगत के पालन कार्य का निर्वाह करती हैं, उनमें सत्व गुणी प्राकृतिक शक्ति का समावेश हैं। निर्माण या जन्म के पश्चात, प्राकृतिक गुणों के अनुसार जीव के आचरण-चरित्र का निर्माण होता हैं, यद्यपि प्रधानिक गुण जन्म के साथ ही जीव के साथ विद्यमान रहते हैं।

जैसे गाय सत्व गुणी सम्पन्न हैं वह हिंसक नहीं हैं, इस के विपरीत सिंह हिंसक हैं तथा तमो गुण प्रधान है। सत्य का आचरण, पवित्रता, त्याग तथा अहिंसा की भावना, किसी को भी शारीरिक तथा वचन दोनों प्रकार से किसी प्रकार का कष्ट न देना इत्यादि सत्व गुणी आचरण तथा स्वभाव हैं। मनुष्य के स्वभाव में किसी एक गुण की प्रधानता होती हैं, बाकी अन्य दो गुण निम्न, अथवा अधिक व न्यूनतम मात्रा में विद्यमान रहती हैं।

राजस, राजसिक अथवा रजो गुण,,,,, तीनों लोकों के निर्माण तथा ज्ञान हेतु प्राकृतिक शक्ति दूसरी प्राकृतिक शक्ति, ‘राजस या रजो गुणी’ नाम से जानी जाती हैं।

इस शक्ति के अंतर्गत नव सृजन तथा ज्ञान संचय का समावेश हैं। पितामह ब्रह्मा तथा उनकी पत्नी सरस्वती, सावित्री तथा गायत्री, प्रधान रूप से इस शक्ति के स्वामी हैं, जिस से प्रेरित होकर, ज्ञान प्राप्त कर निपुण हो, संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का निर्माण, इन्हीं के द्वारा किया गया हैं, परिणामस्वरूप ब्रह्मा जी को ‘पितामह’ नाम से जाना जाता हैं। सृजन, रजो गुण के बिना संभव नहीं हैं, सृजन हेतु परिस्थिति के अनुरूप ढालना पड़ता हैं, इस में सत्य तथा असत्य दोनों तथ्यों का समावेश होता हैं।

रजो गुण के अंतर्गत सत्व तथा तमो, दोनों गुणों का समावेश देखा जाता हैं, तथा माध्यम श्रेणी का माना जाता हैं। उदाहरण स्वरूप, समस्त संसारी मनुष्य या नर-नारी इसी गुण के आधीन हैं, अपने परिवार के पालन पोषण के हेतु सत्य तथा असत्य दोनों मार्गों का सहारा लेना पड़ता हैं। पारिवारिक जीवन का पालन करने वाले समस्त जीव, इसी प्राकृतिक शक्ति के अंतर्गत अपना जीवन निर्वाह करते हैं। इसके विपरीत संन्यासी समुदाय, प्रधानतः अन्य दोनों गुणों के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता हैं, जैसे वैष्णव संन्यासी सत्व गुण तथा शैव और शक्ति संन्यासी संप्रदाय तमो गुण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता हैं।

तामसिक अथवा तमो गुण,,,,,, तीनों लोकों के संहार हेतु प्राकृतिक शक्ति तीसरी शक्ति को ‘तामसिक अथवा तमो’ गुण के नाम से जाना जाता हैं। ब्रह्माण्ड के समस्त तत्वों के उपयोग पश्चात नष्ट तथा संहार का समावेश इस गुण के अंतर्गत हुआ हैं, तथा इस के स्वामी भगवान शिव तथा उनकी पत्नी सती या पार्वती, काली, दुर्गा इत्यादि को बनाया गया है। प्रधानतः शिव तथा शक्ति, सर्वदा नित्य संहार कार्य में संलग्न रहते हैं, त्यागी हुई समस्त जीवित अथवा निर्जीव तत्व के शिव स्वामी हैं। प्राणी के देह त्याग के पश्चात, शव रूप में शिव ही देह में विद्यमान रहते हैं तथा मृत देह के पंचत्व में विलीन होने की शक्ति, शिव तथा शक्ति ही हैं।

तमो गुण नाम वाले, इस प्राकृतिक गुण को निम्न श्रेणी का माना गया हैं क्योंकि इस के अंतर्गत हिंसा, अपवित्रता, असत्यता के सिद्धांतों का प्रतिपादन होता हैं। वास्तव में देखा जाये तो संहार किसी नियम के अधीन नहीं रह सकती, संहार बिना उत्पत्ति संभव नहीं हैं, संहार के अंतर्गत सभी तथ्यों में, विनाश ही सर्वप्रथम सम्मिलित हैं, फिर इस का रूप भयंकर ही क्यों न हो। संहारक कार्य या विनाश, भयानक ही होता हैं इस में संशय नहीं हैं।

नारद जी द्वारा ब्रह्मा जी से ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति कर्ता के सम्बन्ध में प्रश्न करना,,,,,,

देवी भागवत पुराण के अनुसार, एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा जी पूछा कि! “सम्पूर्ण ब्राह्मण का आविर्भाव कैसे हुआ तथा इस चराचर जगत का परम परमेश्वर कौन हैं ?” ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया कि! “इस प्रश्न का उत्तर देना भगवान विष्णु के लिये भी संभव नहीं हैं, जल प्रलय के पश्चात, उन्होंने अपने आप को एक कमल पुष्प में आविर्भाव हुआ देखा, तदनंतर कमल के आदि तथा अंत न पाने में असमर्थ उन्होंने आकाश-वाणी के अनुसार मैंने तपस्या की।

मधु तथा कैटभ नामक दो महा-दैत्यों द्वारा प्रताड़ित होने पर, भगवान विष्णु उनकी सहायतार्थ प्रकट हुए। उन्होंने मेरी रक्षा हेतु दैत्य भ्राताओं से पाँच हजार वर्ष तक युद्ध किया, परन्तु विजय न प्राप्त कर सकें। तदनंतर, उन्होंने आदि शक्ति की स्तुति की तथा उनकी सहायता प्राप्त कर मधु तथा कैटभ का वध किया। दैत्यों के मृत्यु के पश्चात भगवान शिव का प्राकट्य हुआ।

वास्तव में भगवान विष्णु के अन्तः करण की शक्ति आद्या शक्ति महामाया, योगमाया हैं, उन्हीं से प्रेरित होकर वे दुष्टों का संहार कर तीनों लोकों का पालन करते हैं। तदनंतर, हम तीनों को सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्यभार स्वयं भगवती आदि शक्ति द्वारा प्रदान किया गया। परन्तु शक्ति हीन होने के कारण, हम तीनों के मन में नाना प्रकार के शंका का उदय हुआ। तदनंतर, शंका निवारण तथा शक्ति प्रदान हेतु आदि शक्ति माता हम तीनों देवों को अपने रमणीय निवास स्थल या लोक में ले गई।”

त्रिगुणात्मक, प्राकृतिक शक्तियों की आवश्यकता तथा निरूपण।

त्रिगुणात्मक प्रकृति, शक्ति या बल, “सात्विक (सत्व), राजसिक (रजो) तथा तामसिक (तमो)” तीन श्रेणियों में विभाजित हैं। हिन्दू वैदिक दर्शन के अनुसार संसार के प्रत्येक जीवित और निर्जीव तत्त्व, की उत्पत्ति या जन्म इन्हीं गुणों के अधीन हैं। ब्रह्मांड के सुचारु संचालन हेतु, यह तीन प्राकृतिक बल या गुण अत्यंत अनिवार्य तथा आवश्यक हैं, इनके बिना ब्रह्मांड का सञ्चालन संभव नहीं हैं।

निर्माण, पालन और विनाश के बिना संभव नहीं है, जन्म रजो से, आयु सत्व से तथा मृत्यु तामसी गुण से सम्बंधित हैं। इसी अनुसार तत्व की उत्पत्ति रजो से, सत्ता या अस्तित्व सत्व से तथा विनाश तमो गुण से संचालित होते हैं। किसी भी एक बल की अधिकता या न्यूनतम, संसार चक्र सञ्चालन के संतुलन को प्रभावित कर, समस्त व्यवस्था को आच्छादित, असंतुलित कर सकता हैं। विनाश के बिना नूतन उत्पत्ति या सृष्टि करने का कोई लाभ नहीं हैं, अन्यथा तत्वों की बाढ़ जैसे स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

(उदाहरण स्वरूप, आज सर्वत्र हम प्लास्टिक के उपयोग से होने वाले ‘प्रदूषण’ को देख रहे हैं, कैसी विकराल स्थिति उत्पन्न हो गई हैं और इसका एक ही कारण हैं, उपयोग के पश्चात प्लास्टिक नष्ट नहीं हो पता हैं।)

परिणाम स्वरूप इस संसार चक्र का अस्तित्व नष्ट हो सकता हैं। आद्या शक्ति, जिन्होंने समस्त जीवित तथा अजीवित तत्व का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से निरूपण किया हैं, वे भी इन्हीं तीनों गुणों के अधीन भिन्न-भिन्न रूपों में अवतरित हुई।

महा-काली, पार्वती, दुर्गा, सती तथा अनगिनत सहचरियों के रूप में, वे ही तामसिक शक्ति हैं, महा सरस्वती, सावित्री, गायत्री इत्यादि के रूप में वे ही राजसिक शक्ति हैं, महा लक्ष्मी, कमला इत्यादि के रूप में वे ही सात्विक शक्ति हैं। साथ ही इन देवियों के भैरव क्रमशः भगवान शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु, क्रमशः सात्विक, राजसिक, तामसिक बल से सम्बंधित हैं।

इस चराचर जगत के समस्त जीवों का जन्म, स्वभाव तथा प्रकार इन तीनों गुणों से अंतर्गत प्रतिपादित होता हैं। जन्म के अनुसार हिंसक प्राणी जैसे सिंह, बाघ, कुत्ता, बिल्ली इत्यादि तामसिक गुण सम्पन्न हैं इसी के विपरीत गाय, छाग, मेष, महिष इत्यादि सात्विक गुण सम्पन्न हैं।

गिलहरी, मछलियाँ इत्यादि जो दोनों आमिष तथा निरामिष भोजी हैं, राजसिक गुण से सम्पन्न हैं। स्वभाव से किसी को किसी भी प्रकार से कष्ट पहुँचना तामसिक हैं, अपने शत्रु तथा मित्र दोनों में सम भाव रखना, किसी द्वेष का न रखना, निंदा, चर्चा, वाणी तथा शरीक रूप से कष्ट न देना सात्विक गुण हैं।

संसार के समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों में इन्हीं आद्या शक्ति का अंश व्याप्त होना।

देवी आद्या शक्ति, नाना स्वरूपों में अवतरित हो, संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त तत्वों में विद्यमान हैं। इनके अनगिनत अवतारी रूप हैं, त्रि-देवों के रूप में ब्रह्मा, विष्णु तथा भगवान शिव हैं तथा त्रि-देवियों या महा देवियों से स्वरूप में ये ही महा काली, महा लक्ष्मी, महा सरस्वती हैं।

महाविद्याओं, के रूप में ये ही १० महाविद्या, काली, तारा, श्री विद्या त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी तथा कमला हैं। नव दुर्गा के रूप में ये ही शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री हैं। समस्त योगिनियां, जो पार्वती की सहचरियां या सहेलियां हैं, भगवान विष्णु की योगमाया शक्ति के रूप में देवी ही महामाया या योगमाया नाम से विख्यात हैं।

जब भी इस संसार के सञ्चालन हेतु देवताओं को संकट का सामना करना पड़ा है, तब-तब इन्हीं देवी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अवतरित हो, देवताओं की सहायता की तथा उन्हें संकट मुक्त किया। असुर जो सर्वदा ही स्वर्ग लोक के राज्य को प्राप्त कर, नाना प्रकार के दिव्य भोगो को भोगने की अभिलाषा रखते थे, ब्रह्मा तथा शिव की कठोर तपस्या कर, उन से कोई वर प्राप्त कर लेते थे।

असुर-दैत्य, स्वर्ग पर आक्रमण कर स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लेते थे तथा समस्त देवताओं के भागों को स्वयं भोगते थे। एसी परिस्थिति में देवताओं को इधर-उधर भटकना पड़ता था तथा स्वर्ग लोक के समस्त भोगो को असुर ही भोगते थे।

जब-जब देवताओं के सनमुख, इस प्रकार की विपरीत परिस्थिति प्रस्तुत हुई, इन्हीं आद्या शक्ति देवी अपने नाना अवतारों में अवतरित हो, समस्त दानवों को युद्ध में परास्त किया तथा देवताओं को भय मुक्त कर उन्हें उनके पद पर पुनः अधिष्ठित किया।

सर्वप्रथम भगवान विष्णु जब मधु और कैटभ से ५००० वर्ष तक युद्ध करते हुए थक गए, उन्होंने सहायता हेतु आद्या शक्ति की आराधना की।

फल स्वरूप आद्या शक्ति प्रकट हुई, और उन्होंने भगवान विष्णु से कहा की मैं इन्हें अपनी माया से मोहित कर दूंगी, तब आप इनका वध कर देना। देवी आद्या शक्ति से मोहित हुए ये दोनों महा दैत्यों ने भगवान विष्णु को आशीर्वाद दिया की, जहाँ न जल हो और न ही भूमि, ऐसे स्थान में उन का वध करें। उस समय प्रलय पश्चात सर्वत्र जल ही जल व्याप्त था, भगवान विष्णु ने अपनी जंघा पर उन महा दैत्यों का सर रख कर अपने सुदर्शन चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया।

दैत्य राज महिषासुर, शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज इत्यादि, समस्त दैत्यों का देवी ही अपने बल तथा पराक्रम से वध कर, देवताओं को भय मुक्त किया। जब-जब देवताओं पर विपत्ति या संकट उपस्थित हुआ, सभी देवों ने मिल कर इन्हीं आद्या शक्ति की आराधना-स्तुति, वन्दना की, तथा इन्हीं शक्ति ने अपने तेजो बल पराक्रम से समस्त संसार को भय मुक्त किया। इन के मुख्य नमो में दुर्गा, तथा काली नाम सर्वाधिक प्रचलित हैं।

दुर्गमासुर नाम के दैत्य का वध करने के कारण इन देवी,दुर्गा नाम से विख्यात हुई, साथ ही दुर्गम संकटों से मुक्ति हेतु भी जगत-प्रसिद्ध हुई। सांसारिक कष्टों ने निवारण हेतु, दुर्गम संकटों से मुक्त करने वाली दुर्गा, के शरण में जाना सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैं।

वास्तव में शक्ति ही, सञ्चालन, निर्माण तथा विध्वंस का प्रतीक हैं, शक्ति या बल के अभाव में स्थिति शून्य ही रहेगी। आद्या शक्ति ही वह बल या कहे तो प्रेरणा का श्रोत हैं, जिनसे इस चराचर जगत के सुचारु सञ्चालन का कार्य पूर्ण होता हैं।

सूर्य से प्रकाश, हवा का वहन, बादल द्वारा जल वर्षा, प्रकृति में घटित होने वाली सभी जैविक तथा अ-जैविक क्रियाएं शक्ति के अभाव में अस्तित्व में नहीं रह सकती हैं। हिन्दू शास्त्र, तंत्रों के अनुसार पत्नी को शक्ति का पद प्राप्त है, अर्थात पुरुष की शक्ति उसकी पत्नी ही हैं। चराचर संपूर्ण जगत की जन्म प्रदाता होने के परिणाम स्वरूप माता के रूप में पूजिता हैं। जीवन की उत्पत्ति तथा विकास, हर चरण मातृ शक्ति द्वारा ही परिचालित है, परिणाम स्वरूप शक्ति संसार में सर्वोपरि है।

श्वेताश्वेत उपनिषद के अनुसार देवी आद्या शक्ति स्वयं त्रि-शक्ति के रूप में अवतरित हुई हैं। आद्या शक्ति, एक होते हुए भी, लोक कल्याण के अनुरूप, भिन्न-भिन्न रूपों में अवतरित हो, ज्ञान, बल तथा क्रिया रूपी शक्तियों से अवतरित होकर महा-काली, महा-लक्ष्मी तथा महा-सरस्वती रूप धारण करती हैं। परिणाम स्वरूप देवी त्रि-शक्ति, नव-दुर्गा, दस महाविद्या तथा ऐसे अन्य अनेक अवतारी नामों से पूजिता हैं।

अथर्व वेद के अनुसार, देवी आद्या शक्ति की महिमा।

अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यम् च।।

समस्त देवता देवी के सनमुख प्रकट हुए और नम्रता से पूछने लगे ! “हे महादेवी तुम कौन हो।” देवी ने उत्तर दिया ! “मैं ब्रह्मा स्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति, समस्त पुरुष तथा असद्रूप और सद्रूप जगत उत्पन्न हुआ हैं।

अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्।।

मैं ही आनंद तथा अनानन्दरूपा हूँ, विज्ञान और अविज्ञान मैं हूँ, जानने योग्य ब्रह्म और अब्राहम भी मैं ही हूँ, पांच महा भूतों से और बिना पांच भूतों से निर्मित तत्व भी मैं ही हूँ। यह समस्त दृष्टि गोचर जगत भी मैं ही हूँ।

वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।।

वेद और अवेद, विद्या और अविद्या, अजा और अनजा, निचे और ऊपर, अगल और बगल सभी ओर मैं ही हूँ।

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ।।

मैं ही रुद्रों तथा वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवो के रूपों में विद्यमान हूँ, मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्रा एवं अग्नि का और दोनों अश्विनी कुमारों का भरण पोषण करती हूँ।

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि।।

मैं सोम, त्वष्टा, पूषा तथा भाग को धारण करती हूँ, तीनों लोकों को आक्रांत करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मा और प्रजापतियों को धारण करती हूँ।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।।

देवताओं को उत्तम हवि पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमानों के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं संपूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्म रूपा और यज्ञ होमो में प्रधान हूँ।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। य एवम् वेद। स देवीं सम्पदमाप्नोति।।

मैं आत्म स्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्म स्वरूप को धारण करने वाली बुद्धि वृति में है। जो इस प्रकार जनता हैं, देवी संपत्ति लाभ करता है।

लेख साभार- पंडित कृष्ण दत्त शर्मा

– चित्र जर्मनी में रहने वाली भारतीय पेंटर ऋचा श्रीवास्तव द्वारा बनाई गई पेंटिंग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *