हिन्दू जीवन पद्धति – भाग २
***( भोजन संविभाग )***
सनातनहिन्दूधर्म में भोजन का भी संविभाग और विभेद विस्तार के साथ किया गयाहै।सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्,सर्वमन्न- मयं जगत् ,कलौ अन्नगता प्राणाः सूक्तियाँ मनुष्य के लिए भोजनके महत्त्वको दर्शाती हैं।भोजन सात्विक, राजसिक
और तामसिक होता है।महर्षि चरक ने कहा-शरीरका रंग,
सौन्दर्य,जीवन,प्रतिभा,तुष्टि,मेधा,बल सब कुछअन्नसेप्राप्त होता है। (चरक सूत्र २७) महर्षि सुश्रुत ने कहा-आहार ही देहधारियों के तेज, बल,आयु, ओज, स्मृति, उत्साह और पाचक अग्नि को बढ़ाता है- (सुश्रुतसंहिता२४/६८)
* सुखासन पर बैठकर पांचों उंगलियों से दक्षिणहस्त से भोजन करना चाहिए।(अत्रिस्मृति ५/६-७)
* दो बार(दिन,रात में)भोजन करना चाहिए-द्वऔभोजन- कालौ सायं प्रातश्च।मेधातिथि।
*अतिभोजन से आयु,आरोग्य,पुण्य घटता है-मनु२/५७
* मौन भोजन करना चाहिए- बोलकर भोजन करने से आयु घटती है-भुंजतो मृत्युरायुष्यम्।(व्यास:)
* आर्द्र पाद भोजन शुष्क पाद शयन करना चाहिए।
* पूर्व या उत्तरमुख भोजन करना चाहिए।
*शय्या पर बैठकर भोजन नहीं करना चाहिए।
* भोजन की निंदा नहीं करनी चाहिए।
* जल पात्र को दक्षिण ओर रखना चाहिए।
*अन्न को आमंत्रित करना चाहिए-हे अन्नदेव! मुझे नित्य प्राप्त होइये।
* भोजन को भोग लगाकर ही खाना चाहिए।भोग लगाने के वैदिक और पौराणिक मन्त्र हैं।
*गरम भोजन करें-ऊष्णमश्नीयात्।
*रसदार और चिकना खायें-रस्या, स्निग्धा,स्थिरा, हृद्या।(गीता में सात्विक भोजन,१७/८)
*अति तेज,अति धीमा न खाएं- नातिद्रुतं,नविलम्बितम्।
* हँसते,बोलते,चलते नखाएं-अहसन्,अजल्पन्,अगच्छन।
*आत्माभिरुचि भोजन करें।
*अपच में भोजन न लें।
*श्मशान और देवालय में भोजन न लें।
*जूता, चप्पल पहनकर भोजन न लें।
*सोते हुए भोजन न करें।
*एक ही कौर को दो बार में न खाएं-ग्रासशेषं नाश्नीयात्।
*शीतलाष्टमी के अतिरिक्त बासी न खाएं।
* बाएं हाथ से जल न पिएं(ब्रह्मवैवर्त २७/२४)
*भोजन करते समय सिर न खुजलायें।
*आधा पेट भोजन करें,एक चौथाई जल पियें,एक चौथाई वायु के लिए छोड़ें-(ब्रह्मपुराण)
*गो घृत को दाल-सब्जी में डालकर भोजन करने से आयु बढ़ती है।(देवल)
*महर्षि अंगिरा ने भार्या के साथ एक थाल में भोजन करने को दोष नहीं माना है।
*अनेक लोगों के बीच अकेले खाने से दृष्टि दोष लगता है।
*साधक तपस्वी सात्विक भोजन लेते हैं ।राजसिक लोग कटु ,अम्ल, तीक्ष्ण, क्षार भोजन लेते हैं। तामसिक लोग दुर्गंध युक्तखाद्य ,तेल, बासी, उत्कट मद, अनुपयुक्त मांस आदि लेते हैं।सैनिक किसी भी प्रकारका भोजनले सकता है।श्रेष्ठ भोजन श्रेष्ठ जीवन देता है।
जैसा अन्न वैसा मन।
अन्न और दुग्ध पृथ्वी पर प्रत्यक्ष जीवन है।
***( जीविका-व्यवहार )***
सनातन हिन्दूधर्म में जीविका की शुद्धिपर सर्वाधिक ध्यान केंद्रित किया गयाहै।सात्विक धनके भक्षण से व्यक्ति धर्म, यश प्राप्त करता है।असात्विक धन व्यक्ति का भक्षण कर जाता है।जो अन्याय द्वारा धन अर्जित करताहै उसके सारे
कर्म विफल हो जाते हैं–
न्यायोपार्जित वित्तेन कर्तव्यं ह्यात्मरक्षणम्।
अन्यायेन तु यो जीवेत् सर्वकर्मबहिष्कृतः ।महर्षि पराशर।
* अन्यायोपार्जित वित्त से किया यज्ञ,अनुष्ठान,धर्म विफल
हो जाता है।ऐसा धन कीर्ति,आयु, यश तथा पर-लोक को नष्ट कर देता है–
अन्यायोपार्जितेनैव द्रव्येण सुकृतं कृतम्।
न कीर्तिरिह लोके च परलोके न तत्फलम्।।देवीभागवत।।
*शुद्ध धन की महिमा—-पवित्र अर्जित धन से ईंट खरीद कर बनाया मकान पीढ़ी दर पीढ़ी फलता है।वंशका वर्धक होता है।अन्यथा वही अशुभ धन वंश को चबा डालता है।शुद्ध धन से किया यज्ञ-धर्म, यश,सुख और पर लोके को
प्रदान करता है–
तस्मात् न्यायार्जितेनैव कर्तव्यं सुकृतं सदा।
यशसे परलोकाय भवत्येव सुखाय च।।देवीभागवत।।
*अशुद्ध धन से यज्ञ की विफलता– जब तक श्रम से उपार्जित पवित्र धन से यज्ञ नहीं किया जाता तब तक वह
यज्ञ अपना फल नहीं देता।अतः शास्त्र का आदेश है कि स्व श्रम उपार्जित धन से धर्म करो।
*श्री और लक्ष्मी–श्री देवी भीतरी धन हैं।ये आत्मा की संपत्ति होती हैं।लक्ष्मी देवी दृश्य बाह्य चल अचल धन होती हैं।धन हत खड़ा हो जाता है श्री हत नहीं।अन्याय से उपार्जित धन दिखता तो है पर वह कब नष्ट हो जाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं।ऋग्वेद में भगवती कहती हैं-
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते।।मैं हीयज्ञ करनेवाले ऋषियों
को स्वर्ण प्रदान करती हूँ।
**लक्ष्मी वृक्ष—विल्व के वृक्ष को वेद में श्रीफल या श्री वृक्ष कहा गया है-वनस्पतिस्तव वृक्षोथ विल्वः।।इस वृक्ष को लगाने वाले व्यक्ति के परिवार में दरिद्रता नहीं आती।
**लक्ष्मी पुष्प–कमल लक्ष्मी का पुष्प है।इससे आराधना करने वाला कभी अकिंचन नहीं होता।
**पांच प्रकार के धन–१- भूमिज २- अन्तरिक्षज ३- अग्निज ४- दैवज तथा ५- – वारुण ।।अपनी अभिरुचि और विशेषज्ञता के अनुसार इन साधनों का चयन करना चाहिए।
**व्यवसाय चयन में कर्म-अकर्म-विकर्म का ध्यान देना चाहिए।कर्म अकर्म चिह्नित हैं। विकर्म विवेक और निष्ठा पूर्वक त्याज्य होता ।स्व वर्ण के विहित कार्य को छोड़ कर दूसरे वर्ण के कार्य को करना विकर्म कहलाता है।
**निष्काम कर्म जीवन को महान बना देता है।उसमें विफल हो।पश्चाताप नहीं करना पड़ता।अपनी सम्पूर्ण योग्यता के अनुसार प्रबल श्रम करता हुआ मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
धनार्जन की प्रक्रिया को महाभारत और अर्थ शास्त्र से समझना चाहिए।सम्भूय समुत्थान के व्यवसाय मित्र और पवित्र भाव वालों के साथ करना चाहिए।दूसरी पीढ़ी के लोग साझे व्यवसाय को नष्ट करने में लग जाते हैं।ध्यान रखे धन आपके कर्म का फल है।यदि यह अन्याय से बढ़ेगा तो विदेश भागने को विवश कर देगा।अतः
अपनी भूमि अपना धन उत्तम जीवन नेक करम।।
डॉ कामेश्वर उपाध्याय
अखिल भारतीय विद्वत्परिषद।।