राम जानकी विवाह
आज विवाह पंचमी है, आज के दिन ही प्रभुश्रीराम माता जानकी का विवाह हुआ था। आज हम आपको इस पावन अवसर पर प्रभुश्रीराम माता जानकी के विवाह की कथा विस्तार से बतायेगे। रामचरितमानस में बाबा तुलसी ने लिखा है…
*निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥
भावार्थ:-अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नहीं तो) श्री रघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग श्री जानकीजी और श्री रामजी की कृपा से सदा सुख पावेंगे।
*सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥
भावार्थ:-श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेंगे, उनके लिए सदा उत्साह (आनंद) ही उत्साह है, क्योंकि श्री रामचन्द्रजी का यश मंगल का धाम है॥
अहिल्या जी पर कृपा करके भगवान राम-लक्ष्मण मुनि विश्वामित्र के साथ चले हैं लेकिन आज प्रभु को हर्ष नही हैं थोड़ा दुःख हैं। की आज मैंने मुनिवर की पत्नी को चरणों से स्पर्श किया हैं। हालाँकि होना तो नही चाहिए लेकिन फिर भी भगवान हैं ना। दुःख हैं की मैं एक क्षत्रिय कुल में आया हूँ और एक ब्राह्मण की पत्नी को मेरे पैरों का स्पर्श हुआ हैं। फिर भगवान गंगा जी के तट पर पहुंचे हैं।
वहां पर विश्वामित्र जी ने गंगा माँ की कथा सुनाई हैं की किस प्रकार से गंगा जी धरती पर आई। तब प्रभु ने ऋषियों सहित (गंगाजी में) स्नान किया। ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान पाए। गंगा स्नान करने के बाद भगवान प्रसन्न होकर चले और सोच रहे हैं की जो थोड़ा बहुत पाप हुआ होगा वो गंगा स्नान से दूर हो गया होगा। और फिर भगवान जनकपुर के निकट पहुँच गए हैं।
जिस नगर की सोभा का गोस्वामी जी ने सुंदर वर्णन किया हैं। श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं। जहाँ नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं।
भगवान विश्वामित्र जी एक साथ एक आम के बगीचे में ठहरे हैं। और मुनि ने कहा की मैं यहाँ बैठा हूँ तुम दोनों भाई जाकर फूल ढूंढिए। मुझे पूजा करनी हैं। विश्वामित्र जी एक सुंदर भूमिका तैयार कर रहे हैं। भगवान को फुलवाड़ी लेने के लिए भेज दिया हैं।
इधर जनक जी को खबर हुई हैं तो तुरंत विश्वामित्र जी से मिलने तुरंत आये हैं। इनके साथ में विद्वान, ब्राह्मण और मंत्री भी हैं। विश्वामित्र जी को बहुत सम्मान दिया हैं। चरण धोये हैं। और आसान पर बिठाया हैं। जब सब बैठ गए हैं तभी दोनों भाई वहां आ गए हैं। विश्वामित्र जी ऐसे ही चाहते थे की जब सारी सभा बैठी हो तब राम और लक्ष्मण आएं। और इसी तरह से हुआ।
जब दोनों भाई आये तो उनका रूप देखकर सभी दंग रह गए और जनन जी समेत सारी सभा खड़ी हो गई हैं। दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए। सबके नेत्रों में आनंद और प्रेम के आँसू उमड़ पड़े और शरीर रोमांचित हो उठे। रामजी को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए।
अब जनक जी ने पूछ लिया हैं की ये दोनों सुंदर बालक कौन हैं? जिनका दर्शन करते ही मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है। इनका दर्शन करने के बाद मेरे मन में प्रेम उमड़ रहा हैं। कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
जनक जी ने अपने प्रेम को योग-भोग रूपी डिब्बे के बीच में बंद करके रखा हुआ था। वो आज जाग्रत हो गया हैं। और बार-बार विश्वामित्र जी पूछ रहे हैं ये कौन हैं?
विस्वामित्र जी कहते हैं- ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥ जहाँ तक संसार में लोग हैं ना ये सबको प्यारे लगते हैं।
मुनि की रहस्य भरी वाणी सुनकर श्री रामजी मन ही मन मुस्कुराते हैं हँसकर मानो संकेत करते हैं कि रहस्य खोलिए नहीं। भगवान सोच रहे हैं की ये भेद ना खोल दें की मैं भगवान हूँ।
जनक जी सोच रहे हैं की मैं पूछ रहा हूँ ये कौन हैं? और मुनि कहते हैं ये सबको प्यारे लगते हैं।
तब मुनि ने कहा- ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मेरे यज्ञ को पूरा करने के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है। राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है।
ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं। सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥
मानो आज मुनि इस बात का जनक जी को संकेत कर रहे हैं की इन्होने मेरा यज्ञ तो पूर्ण करवा दिया हैं तुम चिंता मत करो तुम्हारा भी यज्ञ भी ये ही पूरा करवाएंगे।
इसके बाद जनक जी इनको जनकपुर में लेकर आये हैं। और एक सुंदर महल जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। संत-महात्मा बताते हैं की ये जानकी जी(सीता जी) का निवास हैं। और जानकी को अपने महल में बुला लिया है।
रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे।
गोस्वामी जी कहते हैं की जब दोपहर हुई तो लक्ष्मण जी के मन में एक लालसा जगी हैं। क्यों ना हम जनकपुर देख कर आएं? परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए कुछ बोल नही पाते हैं और मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं।
एक बात सोचने की हैं की लक्ष्मण जी के ह्रदय में आज तक कोई लालसा नही जगी हैं। बस एक ही लालसा हैं की भगवान राम के चरणों में प्रीति जगी रहे। लेकिन आज क्यों लालसा जगी हैं। इसका एक कारण हैं जो संत महात्मा बताते हैं- लक्ष्मण जी कहते हैं ये मेरी माँ का नगर हैं। क्योंकि लक्ष्मण सीता जी को माँ ही कहते थे। और कौन होगा जिसका मन अपने ननिहाल को देखने का ना करे? बस इसलिए आज लालसा लगी हैं।
लेकिन भगवान राम जान गए हैं आज लक्ष्मण की अभिलाषा। अब रामजी ने गुरुदेव को कह दिया हैं की-
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥ जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥
हे गुरुदेव! आज मेरा लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, लेकिन आप के डर और संकोच के कारण बोल नही पा रहा हैं । यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही वापस ले आऊँ।
गुरूजी कहते हैं- अच्छा ठीक हैं अगर लक्ष्मण नगर देखना चाहता हैं तो उसे भेज दो। जनक जी के नौकर खड़े हैं मैं उन्हें बोल देता हूँ और वो दिखाकर ले आएंगे।
राम जी कहते हैं- नही, नही, गुरुदेव बात ऐसी हैं यदि मैं दिखाने चला जाता तो? मैं साथ चला जाऊं?
गुरुदेव बोले- बेटा, देखना उसे हैं, दिखाएंगे जनक जी के नौकर। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? तुम क्या करोगे? आज गुरुदेव रामजी के मन की भी देखना चाह रहे हैं।
राम जी बोले गुरुदेव , अगर मैं साथ जाता तो अच्छे से दिखा कर लाता।
गुरुदेव बोले की अच्छा, तुम पहले से जनकपुर देख चुके हो क्या? क्योंकि वो ही दिखायेगा जिसने खुद देखा हो।
रामजी ने संकेत किया- गुरुदेव, लखन छोटा हैं। कहीं नगर देखने के चक्कर में ज्यादा देर ना लगा दे। अगर मैं जाऊंगा ना, तो लक्ष्मण को तुरंत ले आऊंगा।
गुरुदेव ने आज्ञा दे दी हैं। और कहा हैं अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब नगर निवासियों के नेत्रों को सफल करो। दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले हैं।
आज सबसे पहले बालकों ने भगवान के रूप का दर्शन किया है। और बालक इनके साथ हो लिए हैं।
एक सखी कहती हैं ए दोऊ दसरथ के ढोटा। ये दसरथ के पुत्र हैं। लक्ष्मण जी कहते हैं भैया ये तो अपने पिताजी को जानती हैं देखूं की कौन हैं?
राम जी कहते हैं नही लक्ष्मण ।
फिर वो कहती हैं एक राम हैं और एक लक्ष्मण हैं। राम जी की माँ कौसल्या हैं और लक्ष्मण की सुमित्रा है।
अब लक्ष्मण बोले की भैया ये तो अपने नाम और माता का नाम भी जानती हैं। अब तो देखना ही पड़ेगा।
भगवान बोले सावधान रहना ऊपर बिलकुल मत देखना। क्योंकि मर्यादा नही हैं ना।
तभी एक जनकपुर की मिथलानी बोली की हमे लगता हैं ये दोनों भाई बेहरे हैं। हम इतना बोल रही हैं ये हमारी ओर देख ही नही रहे हैं। तभी दूसरी बोली की मुझे लगता हैं की बेहरे ही नही गूंगे भी हैं। क्योंकि ये आपस में बात भी नही कर रहे हैं इशारे ही कर रहे हैं।
लक्ष्मण जी बोले की प्रभु अब इज्जत बहुत खराब हो रही है। हमे गूंगा, बहरा बना दिया है। रामजी आप एक नजर ऊपर डाल दो। तभी भगवान ने एक नजर उन पर डाली हैं और मिथिलापुर के नर-नारियां, बालक, वृद्ध सब निहाल हो गए हैं। सबने भगवान के रूप रस का पान किया है।
इसके बाद भगवान ने वह स्थान देखा हैं जहाँ पर धनुष यज्ञ का कार्यक्रम होगा। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन था। चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को यज्ञशाला की रचना दिखला रहे हैं।
श्री रामजी भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को आश्चर्य के साथ देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे गुरु के पास चले। अगर देर हो गई तो गुरूजी नाराज हो जायेंगे। फिर भगवान ने कोमल, मधुर और सुंदर बातें कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया॥
फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे। भगवान ने संध्यावंदन किया है। फिर रात्रि के 2 प्रहर तक भगवान की प्राचीन कथाओं को कहा है और फिर मुनि के चरण दबाये हैं। तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। मुनि के बार बार कहने पर भगवान भी सोने चले गए हैं।
गुरुदेव विश्वामित्र जी ने राम-लक्ष्मण का परिचय जनक आदि लोगों से करवाया। अब भगवान प्रातः काल उठे है और स्नान कर गुरूजी की पूजा की है। गुरुदेव ने उन्हें फूलवाड़ी के लिए भेजा है। गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले। भगवान फुलवारी के लिए पधारे हैं।
और भगवान मधुर-मधुर फूल चुन रहे हैं। उसी समय जनकनन्दनी श्री सीता जी का वहां आगमन हुआ हैं। और वहां पर एक सखी ने भगवान को देखा है-एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
एक सखी सीताजी का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी। और अपनी सुध-बुध खो बैठी है दौड़कर सीताजी के पास गई। और कहती हैं 2 बहुत प्यारे हैं-स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥
एक श्याम हैं और एक गोरे हैं मैं कैसे उनके रूप का वर्णन करूँ? क्योंकि जिन आखों ने देखा हैं वो बोल नही सकती और जिसको जुबान हैं वो देख नही सकती है। क्योंकि शब्दों से प्रेम को व्यक्त नही किया जा सकता है। फिर भी जैसे तैसे सीताजी को बताया है।
अब सीताजी भगवान का दर्शन पाने के लिए चली हैं।
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥ मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
सीता जी के जब चल रही हैं तो उनके नुपुर से अलोकिक ध्वनि आ रही है। जब भगवान ने इस शब्द को सुना है तो रामजी के ह्रदय में हलचल हो गई हैं और लक्ष्मण को कहते हैं- अरे लक्ष्मण! ये वही जनकनन्दनी हैं जिनके लिए यज्ञ हो रहा है।
लक्ष्मण जी बोले की मुझे क्यों बता रहे हो, आप ही देखो। क्योंकि लक्ष्मण की तो माँ हैं और उनका ध्यान तो बस चरणों में है।
लेकिन कोई भी मर्यादा नही टूटी है यहाँ बहुत अद्भुत मिलान है।
राम को देख कर के जनकनन्दनी, बगिया में खड़ी की खड़ी रह गई।
राम देखे सिया, सिया राम को , चारों अँखियाँ लड़ी की लड़ी रह गई॥
बस मन में दोनों के प्रेम जग गया है। यों तो रामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजी के रूप में लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छबि रूप मकरंद रस को भौंरे की तरह पी रहा है।
सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। आप रामचरितमानस जी में पढ़ सकते हैं गोस्वामी जी ने कितना सुंदर इनके मिलान का वर्णन दिया है।
तभी एक सखी कहती हैं की बहुत देर हो गई है हमें चलना चाहिए। सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं। देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और उनका ध्यान करती हुई अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं।
अब सीताजी महल में आकर सोच रही हैं ये शिव जी का धनुष (Shiv Dhanush) कितना कठोर है भगवान इसको किस प्रकार तोड़ पाएंगे। सीताजी भवानी माँ के मंदिर में गई और भगवान की वंदना की है-
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥ जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो!
मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण पकड़ लिए।
गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं–हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा। और माँ कहती हैं –
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्री रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥
इधर भगवान लौटकर आये हैं और श्री रामचन्द्रजी ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया। राम कहा सबु कौसिक पाहीं। फूलों से गुरु जी पूजा की है। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्री राम-लक्ष्मण सुखी हुए॥
इसके बाद भगवान ने संध्या वंदन किया है। पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ।पहले राम सुंदर चन्द्रमा को जानकी जी के मुख के समान मान रहे थे लेकिन फिर कहते हैं नही,नही ये चन्द्रमा मेरी जानकी से तुलना नही कर सकता है। इसमें तो कलंक हैं और मेरी किशोरी निष्कलंक है।
भगवान कहते हैं मैंने गलती कर दी ये कह कर की सीताजी का मुख चन्द्रमा जैसा है। मुझे इसका दोष जरूर लगेगा। फिर भगवान सोचते इस प्रकार बड़ी देर हो गई ये जानकार भगवान गुरुदेव के पास गए हैं। फिर भगवान ने शयन किया है।
प्रातःकाल भगवान उठे हैं। गुरुदेव को प्रणाम किया है। दैनिक नित्यकर्म पुरे किये हैं। फिर शतानन्दजी जी आये हैं और कहा हैं की धनुष यज्ञ का कार्यक्रम शुरू हो गया हैं गुरुदेव। आप राम लक्ष्मण को लेकर पधारिये।
अब राम-लक्ष्मण को लेकर गुरुदेव चल रहे हैं और कहते हैं – सीय स्वयंबरू देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
विश्वामित्र जी राम और लक्ष्मण को कहते है चलो, शिव धनुष यज्ञ देखने चलते है। और देखते है आज भगवान किसको बड़ाई दिलवाते है। कौन इस धनुष को तोड़ेगा। लक्ष्मण को ये बात पसंद नही आई। जो गुरुदेव ने कहा की किसको बड़ाई मिलेगी ये मालूम नहीं।
लक्ष्मण जी कहते हैं- लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥
लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा)॥
लक्ष्मण की इस बात को सुनकर मुनि बहुत प्रसन्न हुए। इस तरह से राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र जी धनुष यज्ञ के कार्यक्रम में पहुंचे हैं। बड़ा ही सुंदर मंडप सजाया गया हैं। सारे मिथिलापुरी के वासी आये हुए हैं। बड़े -बड़े राजा और महाराजा आये हुए हैं। जैसे ही भगवान वहां पहुंचे हैं सारा वातावरण ही अद्भुत हो गया हैं। जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
जिसका जैसे भाव था भगवान श्री राम का सबको उसी रूप में दर्शन होने लगा हैं।
मैया सुनैना और और जनक समेत जितने भी वृद्धजन बैठे हुए हैं सबको भगवान एक शिशु के रूप में दिखाई दे रहे हैं। सभी योगियों को भगवान परम तत्व के रूप में दिखाई दे रहे हैं। जितने भी धुरंधर और बलशाली राजा बैठे हुए थे उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। लगने लगा की कोई बहुत बड़ा योद्धा आया हैं।
स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं। और गोस्वामी जी ने यहाँ भगवान के सुंदर रूप का काफी अद्भुत वर्णन किया हैं। मनुष्यों की तो बात ही क्या देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुंदर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं।
तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लेकर आई हैं। यहाँ पर तुलसीदास जी ने भगवान राम को रूप सौंदर्य का तो जैसे तैसे वर्णन कर दिया लेकिन माँ जानकी के रूप का वर्णन कर ही नही पाये। और तुलसीदास जी ने लिख दिया की इनके रूप का वर्णन तो किया ही नही जा सकता हैं। रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता।
क्योंकि माँ जगतजननी के लिए सब उपमाएं और शब्द छोटे पड़ रहे हैं। जो भी अलंकार और शब्द स्त्रियों के लिए कहे जाते हैं वो इस लौकिक जगत में कहे जा सकते हैं। काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गई हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री जानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अंगों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है)
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥
जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर स्त्री, पुरुष सभी मोहित हो गए। लेकिन माँ सीता का मन तो भगवान श्री राम में हैं। इधर जब भगवान राम ने भी जानकी जी का दर्शन किया हैं तो उनकी आँखे स्थिर हो गई हैं।परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं। वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं।
श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया (सब एकटक उन्हीं को देखने लगे)। आज सभी विधाता से प्रार्थना कर रहे हैं की राम और सीता का पवित्र विवाह जल्दी से हो जाये।सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह साँवला ही है।
धनुष यज्ञ कार्यक्रम आरम्भ हुआ हैं। अब बड़े-बड़े योद्धा शिव धनुष को तोड़ने के लिए आये हैं। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर गौं से (चुपके से) चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक की हिम्मत न हुई)। एक-एक योद्धा धनुष तो तोड़ने के लिए आते हैं लेकिन तोडना तो दूर उसे हिला भी नही पा रहे हैं जिस कारण से उन्हें राजसभा में शर्मिंदा होना पड़ रहा है। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते।
तब 10 हजार राजाओं ने एक साथ धनुष को उठाने का पर्यत्न किया है लेकिन धनुष अपनी जगह से टस से मस भी नही हुआ है। भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
अब राजसभा में सभी राजाओं का उपहास हो रहा है। और सभी राजा हार गए है थक गए है। तो जनक जी को क्रोध आने लगा है।
और जनक जी कहते है मैंने जान लिया है पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। इस धरती पर अब कोई वीर है ही नही। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
सब अपने-अपने घर को लौट जाओ। ऐसा लगता है की मेरी बेटी का विवाह अब होगा ही नहीं। यदि मुझे पहले से पता होता की पृथ्वी वीरों से शून्य है तो मैं ये धनुष यज्ञ का कार्यक्रम रखता ही नही और इस उपहास का पात्र न बनता।
जनक जी के वचन सुनकर लक्ष्मण जी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं, होठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए। और भगवान श्री राम की ओर देखते है और रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाकर कहते हैं-
जिस सभा में रघुकुल मणि बैठे हों और उस सभा में ऐसे वचन अनुचित हैं। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा लूँ तो ये धनुष क्या चीज हैं। जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥
मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ, हे भगवन्! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है। हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँ।
और लक्ष्मण जी ने यहाँ तक कह दिया यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा। जैसे ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी लोग और सब राजा डर गए। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए।
जब खूब बोले हैं तो श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया।
अब विश्वामित्र जी ने शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ। उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥
गुरु के वचन सुनकर श्री राम जी ने चरणों में सिर नवाया, उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए। सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
आज सीता जी राम जी को आते हुए देख रही है लेकिन थोड़ा मन में दर है की तोड़ भी पाएंगे या नहीं। क्योंकि जब पुष्प वाटिका में भगवान फूल तोड़ रहे थे तो उनके चेहरे पर पसीना आ रहा था। और आज धनुष तोड़ने जा रहे हैं तो ना जाने क्या हों जायेगा। माँ जानकी ने भोले नाथ, माँ पार्वती और गणेश जी से प्रार्थना की हैं।
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥
हे गणों के नायक, वर देने वाले देवता गणेशजी! मैंने आज ही के लिए तुम्हारी सेवा की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिए।
और अंत में किशोरी जी ने धनुष से ही प्रार्थना की हैं की आज तुम्हे हल्का हों जाना हैं क्योंकि आज भगवान राम तुझे उठाने जा रहे हैं।
रामजी धनुष की और बढे जा रहे हैं। मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया।
लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा), सबने श्री रामजी को (धनुष खींचे) खड़े देखा। उसी क्षण श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गए॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
तुलसीदासजी कहते हैं (जब सब को निश्चय हो गया कि) श्री रामजी ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब ‘श्री रामचन्द्र की जय’ बोलने लगे।
भगवान श्री राम ने शिव धनुष को तोडा,धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है। चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा- सुहावनी जयमाला पहनाओ।
यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई, पर प्रेम में विवश होने से पहनाई नहीं जाती। (उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डंडियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजी ने श्री रामजी के गले में जयमाला पहना दी।
श्री रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी को वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं।
श्री सीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हों। सखियाँ कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ, किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं। गौतमजी की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्री रामजी के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मन में हँसे।
इसके बाद परशुराम जी जब पता चला हैं की शिव धनुष तोड़ दिया हैं। तो अत्यंत क्रोध में आये हैं। परशुराम जी को बहुत समझाया गया हैं। तब उन्हें पता चला की ये श्री राम साक्षात भगवान ही हैं तो शांत हुए हैं।
जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया और कहा- प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझ पर कृपा की हैं अब आगे बताइये क्या किया जाये? मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! राम-सीता का विवाह हो चूका हैं। जैसे ही धनुष टुटा तो विवाह तो होना ही था। सभी ये बात जानते हैं।
अब जैसा विधि-विधान ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित हैं वैसा ही करो। अब विवाह की तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। सब महाजनों को बुलाया गया, दूत भेजकर राजा दशरथ को बुलाया गया है। सुंदर मंडप तैयार किया गया है। मंडप की सोभा ऐसी हैं की ब्रह्मा भी आज देखता ही रह गया। गोस्वामी जी ने इतना सुंदर वर्णन किया हैं की कोई कर ही नही सकता है।
दूत ने अयोध्या पहुंचकर राजा दशरथ जी को जनक जी की चिट्ठी दी है। हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुंदर चिट्ठी है। चिट्ठी पढ़ते समय दशरथ जी के नेत्रों में प्रेम और आनंद के आँसू आ गए , शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई। भरतजी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गए। उस दूत ने पुरे धनुष यज्ञ की बात राजा दशरथ जी को बताई है। और अब आप भी देर ना कीजिये महाराज। जल्दी चलिए।
राजा दशरथ जी ने अपनी पूरी नगरी को दुल्हन की तरह सजवा दिया हैं और भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बारात में चलो।
यह सुनते ही दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनंदवश पुलक से भर गए। और सभी ने बारात में बढ़-चढ़ कर भाग लिया है। राजा दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाए तो वह भी पिसकर धूल हो जाए। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मंगल थालों में आरती लिए देख रही हैं और मंगल गीत गा रही हैं।
श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वी पति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुंदर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे। बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता।
जब बारात पहुंची हैं तो सुंदर स्वागत जनक जी की ओर से किया गया है। अगवानी करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनंद छा गया और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाए।
बाराती तथा अगवानों में से कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों। राजा दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गईं। बरातियों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की गई।
पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनंद समाता न था। संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे। आज गुरुदेव जान गए हैं और स्वयं राम लक्ष्मण के साथ दशरथ जी से मिलने जा रहे हैं। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो।
जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले। दशरथ जी ने विस्वामित्र की चरण धूल ली हैं और दोनों भाइयों ने पिता सहित गुरु वशिष्ठ जी को प्रणाम किया है। राम-लक्ष्मण ने फिर भरत और शत्रुघ्न को ह्रदय से लगा लिया है।
श्री रामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे, उन्हें देखकर दशरथजी मन में बहुत आनंदित हुए। अपने सुकृत रूपी कल्प वृक्ष में नए फल (आए) देखकर उनका शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया, सबने कहा कि श्री रामचन्द्रजी का विवाह हो गया।
*हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
भावार्थ:-जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुंदर नवीन कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गई और भाँवरें होने लगीं॥
श्रीराम व सीता का विवाह संपन्न होने के बाद ऋषि वसिष्ठ ने राजा जनक व उनके छोटे भाई कुशध्वज की पुत्रियों मांडवी, श्रुतकीर्ति व उर्मिला को बुलाया। जनक ने राजा दशरथ की सहमति से मांडवी का विवाह भरत से, उर्मिला का विवाह लक्ष्मण व श्रुतकीर्ति का विवाह शत्रुघ्न से कर दिया। अपने सभी पुत्रों का विवाह होते देख राजा दशरथ बहुत आनंदित हुए।
देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी प्रेम और आनंद में मग्न हैं॥
मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि। जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।
सब पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवध नरेश दशरथजी ऐसे आनंदित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गए हों।
– पंडित कृष्ण दत्त शर्मा