चैतन्य सूत्र
यदि तुम्हें यह ज्ञात है कि तुम्हें सब कुछ ज्ञात नहीं तो निश्चय ही तुममें सर्वज्ञता प्राप्त करने की क्षमता है। हर प्रकार से अयोग्य व्यक्ति ही भगवान के योग्य होता है। कम से कम उसमें किसी योग्यता का अभिमान तो नहीं होता। छोटा सा अभिमान भी बड़ी योग्यताओं को उसी प्रकार नष्ट कर देता है जैसे एक बूंद नींबू का रस पूरे कड़ाह के दूध को विकृत कर देता है।
ईश्वर ने दुःख और अज्ञान जैसे किसी तत्व को हमारे लिए नहीं बनाया। इन्हें हम बनाते हैं। इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वास्तव में आनंद एवं ज्ञान का अभाव ही दुःख तथा अज्ञान की स्थिति का जनक है। मन न तो जड़ है और न चेतन। हालांकि इसकी गणना जड़ में ही होती है पर यह द्विस्वभावी उत्प्रेरक है। जड़ के साथ जड़ और चेतन के साथ चेतन बन जाता है। इसीलिए इसे चेतन के साथ लगा कर रखो क्योंकि वही तुम्हारा स्वभाव भी है और लक्ष्य भी।
जीवन समाप्त हो जाये और इच्छाएं बची रहें, तो वह मृत्यु है। जीवन बचा रहे और इच्छाएं समाप्त हो जाएँ, तो वह मोक्ष है। अतः जीवन को नहीं, इच्छाओं को समाप्त करो।
आत्मेच्छा की पूर्ति हेतु प्रकृति के तत्वों का आश्रय लेकर अपनी शक्ति के उपयोग से किया गया परिवर्तन ही कर्म है। श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय के तीसरे श्लोक के अनुसार सृष्टि ही कर्म कहाता है।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञितः॥
क्योंकि शेष सभी अन्य कर्म इसी के बाद सम्भव हैं। सृष्टि से पूर्व एवं प्रलय के पश्चात् कर्म नहीं होता इसीलिए मुख्य कर्म तो सृष्टि ही है। यह सृष्टि इच्छा से उत्पन्न है इसीलिए कर्म भी इच्छा के आधार पर किया गया उपक्रम ही है।
संसार में दो प्रकार के भक्त होते हैं। एक छोटी से समस्या में भी सीधा भगवान को याद करते हैं, यह सोचकर कि उनके सिवा किसी की शरण नहीं गहना। और दूसरे, बड़ी से बड़ी समस्या में भी भगवान को याद नहीं करते, यह सोच कर कि व्यर्थ ही मेरे कारण भगवान को कष्ट होगा। तीन व्यक्तियों का विनाश शीघ्र होता है :- मूर्ख, अश्रद्धालु एवं संशयात्मा। इनके लिए न इस लोक में, न परलोक में, कहीं भी सुख नहीं है।
जितना समय हम बुराईयों को छोड़ने में लगाते हैं, उतना यदि अच्छाईयों को अपनाने में लगाएं तो कोई कारण नहीं कि जीवन शांति, समृद्धि और सम्मान जैसे शब्दों से कभी खाली होगा। यदि तुम भगवान के लिए कुछ करते हो तो वह कम होने पर भी अधिक फलदायी और अक्षय होता है, पर संसार के प्रति किया गया विशाल कर्म भी कम फलदायी और नश्वर होता है।
ऊष्मा और अग्नि एक दूसरे के आश्रय में नहीं है। वे दोनों वस्तुतः दो हैं भी नहीं। ऊष्मा रहित अग्नि की अग्नि संज्ञा है ही नहीं। ऊष्मा की अनुभूति अग्नि के बिना नहीं और ऊष्मा के बिना अग्नि का अस्तित्व नहीं इसीलिए अग्नि और ऊष्मा पृथक् नहीं। यही बात ब्रह्म और माया, देव और देवी के संदर्भ में समझनी चाहिए। जिस प्रकार एक माता ही बच्चे को उसके वास्तविक पिता की पहचान बता सकती है, वैसे ही महामाया ही परमपिता ब्रह्म की वास्तविक पहचान बता सकती है। अतः माया के पुत्र बनकर उनकी आराधना करो, उसे जीतने का प्रयत्न न करो।
इस मायामय संसार और उसमें फंसी गृहस्थी के मध्य पुरुष एक बैल के समान है और उसकी स्त्री चक्के के समान। दोनों के संयोग से ही गृहस्थी की गाड़ी चल सकती है। चक्र के कारण बैल को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता और बैल के कारण ही चक्का गतिमान होता है। यही बात हर दम्पति को समझनी चाहिए और अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए। स्त्रियों को यह बात समझनी चाहिए कि पुरुषों से स्वयं की तुलना करने और पुरुषों की नकल करने से वे न महान कहलायेंगी और न अधिक जागरूक तथा सक्षम। आज स्त्रियों को पुरुष नहीं, बल्कि मात्र एक स्त्री ही बनने की आवश्यकता है, क्योंकि वही उसका महानतम प्रारूप है।
आत्मा को न मारा जा सकता है, न काटा या जलाया जा सकता है। फिर भला कोई आत्महत्या कैसे कर सकता है ? हत्या तो देह की होती है। अपने समय को अधर्मयुक्त कर्म में नष्ट करके आत्मकल्याण का प्रयत्न न करना ही वास्तव में आत्महत्या है। किन्तु केवल मौन रहना, शांत और क्षमाशील रहना ही धर्म है, ऐसी बात नहीं है, अधर्म का प्रतिकार ही धर्म का आधार है। अंधकार का प्रतिकार किये बिना प्रकाश का अनुसरण सम्भव नहीं, फिर भी अधर्म का प्रतीकात्मक रूप में रहना आवश्यक है क्योंकि अच्छाई का महत्व बुराई से ही ज्ञात होता है। यदि अंधकार न हो तो प्रकाश की परवाह कौन करे ?
मनुष्य को चाहिये कि वह सुख में दुःखी और दुःख में सुखी रहे क्योंकि दोनों ही परिवर्तनशील हैं। स्थिति बदलते देर नहीं लगती। जो लोग (विशेषतः सौम्यवादी हिंदू) इतने बड़े ब्रह्मज्ञानी हैं कि उन्हें म्लेच्छों के आतंक में ईश्वर की प्रेरणा और इच्छा दिख जाती है… मैं पूछता हूँ कि जब अन्य हिन्दू, धर्म की रक्षा के लिए उनका प्रतिरोध करते हैं तो उसमें इन ब्रह्मज्ञानियों को ईश्वर की इच्छा क्यों नहीं दिखती ? दया एवं क्रोध, दोनों उचित पात्र एवं स्थान के लिए हैं। कुपात्र के लिए प्रयुक्त होने पर दोनों प्रयोक्ता के ही विनाश का कारण बनते हैं। पापी के प्रति दया एवं सज्जन के प्रति क्रोध विध्वंसकारी परिणाम देते हैं।
क्रोध बुरा नहीं, क्रोध के वश में विवेक का हो जाना बुरा है। काम बुरा नहीं, काम के वश में विवेक का हो जाना बुरा है। लोभ बुरा नहीं, लोभ के वश में विवेक का हो जाना बुरा है। अहंकार बुरा नहीं, अहंकार के वश में विवेक का हो जाना बुरा है। क्रोध, काम, लोभ, अहंकार, यह सब दुष्टों के संहार, संसार की वृद्धि, ज्ञान और ऐश्वर्य की प्राप्ति तथा स्वाभिमान की रक्षा में भी काम आते हैं। जब ये विवेक के अधीन होते हैं तो कल्याण कराते हैं और जब विवेक इनके अधीन होता है तो पतन कराते हैं।
पशुओं के पास अपने पूर्वजन्म के स्मरण की विशेष शक्ति होती है जिससे कि वे पूर्वकृत कर्मों पर पश्चाताप कर सकें। मनुष्य के पास कर्मस्वातंत्र्य की विशेष शक्ति होती है जिससे कि वह अपना उद्धार कर सके। धर्म कहता है कि सेवा करो। भारत सेवा प्रधान देश रहा है, यहां शत्रु तक का भी पर्याप्त सम्मान और आवश्यक होने पर सेवा भी की जाती है। सेवा हृदय से की जाती है तथा व्यापार मस्तिष्क से। जब दोनों के मध्य का भेद समाप्त हो जाता है, सेवा को व्यापार समझा जाता है, तब भ्रष्टाचार का उद्भव होता है। धर्म एवं अधर्म के बीच का अंतर बड़ा सूक्ष्म होता है। अच्छे उद्देश्य से किया गया गलत कार्य भी धर्म है और गलत उद्देश्य से किया गया अच्छा कार्य भी अधर्म है। मनुष्य को परिस्थितियों और बदले समाज का हवाला देकर धर्म की मर्यादाओं को लचीला बनाकर बदलना नहीं चाहिए, क्योंकि यदि बार बार धर्म की मर्यादा ही बदलती रहेगी तो अधर्म की क्या परिभाषा बचेगी ?
जिस प्रकार हीटर से गर्मी, फ्रीज़ से ठंडक और बल्ब से प्रकाश देने वाली बिजली एक ही है, भिन्न भिन्न रूपों में विभिन्न विरोधाभासी कार्यों को स्वयं ही संपादित करती हैं, पर स्वयं उनसे निर्लेप रहती है, वैसे ही एक ही परमात्मा भिन्न भिन्न रूपों से आविष्ट होकर अनेक कार्यों को संपादित करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं।
तुलना का आधार देवताओं की शक्ति से नहीं होता है, अपितु उनके स्वरूपादि के द्वारा किये जाने वाले कर्तव्यों के लिए अपनाए गए तीनों गुणों के मध्य की तुलना होती है। अन्यथा ध्यान रहे कि श्रीहरि भी शिवलिंग का अंत न पा सके और महादेव भी विष्णु भगवान से युद्ध में जीत न सके। वस्तुतः तुलना दो भिन्न तत्वों में होती है। दो अलग अलग व्यक्तियों में होती है। दो अलग अलग वस्त्र पहन कर अलग अलग कर्म करने वाले एक ही व्यक्ति में कैसी तुलना सम्भव है ? पुलिसकर्मियों की वर्दी केवल रक्षा के समय है। घर पर सामान्य कपड़े पहनते हैं। तो क्या दोनों में तुलना सम्भव है ? नहीं न। क्योंकि दोनों कपड़े पहनकर दोनों अलग अलग कर्म करने वाला है तो एक ही व्यक्ति। यदि तुलना होनी ही है, तो कपड़ों की, न कि व्यक्ति की। क्योंकि वह तो अद्वितीय है।
गणेश जी ही वैकुंठ में विश्वक्सेन कहाते हैं। शिव जी ही वैकुंठ में नारायण और पार्वती ही वैकुंठ में लक्ष्मी कहाती हैं। नंदी ही वैकुंठ में गरुड़ हैं। जिस काल, विधि, प्रसंग में ईश्वर के जिस रूप की प्रतिपाद्यता बताई गई है उस काल एवं विधि में उसका ही ध्यान और उच्चारण करना चाहिए, इसीलिए ऐसा है। वेद, स्मृति, पुराण, तंत्रादि परस्पर विरोधी नहीं है। वे तो केवल आपको ठोंक पीट कर स्थिर एवं दृढ़ बनाते हैं। उनमें कोई मतभेद भी नहीं, केवल आपको उलझा कर वे आनन्द लेते हैं। आनन्द इसीलिए कि उलझ कर यह व्यक्ति और भी अधिक चिंतन करेगा और सत्यबोध करके कल्याण का भागी बनेगा।
अनन्यता का अर्थ बाकी से विरोध करना नहीं होता, अनन्यता तो सबों के साथ अपने इष्ट का दर्शन कराती है। अनन्यता किसी को नकारती नहीं, अपितु सर्वत्र अपने इष्ट के भाव को स्थापित करती है। भगवान विष्णु के प्रति अनन्य भक्ति श्रीशिव जी को नकार कर नहीं प्राप्त हो सकती, वह तो श्रीशिव जी में नारायण के दर्शन करके मस्तक झुकाने से ही प्राप्त होगी। सम्पूर्ण जगत की भूमि को ढक कर चलने से अच्छा है कि पैरों को ही ढकने के लिए जूते पहन लिए जाएं। वैसे ही सबों को नकार कर अनन्यता स्थापित करने के प्रयास से अच्छा है कि सबों को स्वीकार करके उनमें ही इष्ट के दर्शन को स्थापित किया जाय।
यदि मनुष्य के समक्ष धर्म और अधर्म के मध्य चयन करने को कहा जाय, तो वह अधर्म का चयन करेगा। अतः धर्मसत्ता को चाहिए कि वह या तो अधर्म को खरीद ले या नष्ट कर दे, पर अधर्म का विकल्प न रहने दे। धारणा एवं विश्वास मनुष्य का स्वभाव है। जब इस हेतु उचित और कल्याणकारी तत्व नहीं मिलता है तो धारणा एवं विश्वास हेतु वह अनिष्टकारी तथा काल्पनिक तत्वों का सहारा लेता है जो उसके भ्रम एवं विपत्ति का कारण बन जाते हैं। आजकल के नए नवेले कुकुरमुत्ते के समान उगने वाले कथित धर्मगुरु और सम्प्रदायों के विस्तार का यही कारण है। हर दृश्य सत्य, तथा हर अदृश्य असत्य नहीं होता। दृश्य के असत्य तथा अदृश्य के सत्य होने की सम्भावना सर्वदा समान होती है।
मनुष्य जिज्ञासा और शोध छोड़ चुका है। असत्य पर अंध-विश्वास और सत्य पर अंध-अविश्वास ही उसे विनाश और भ्रम के चक्र में डालता है। सब कुछ विचारों से ही निर्मित होता है। विचार विश्वास बनते हैं जो भावना का निर्माण करते हैं। भावना कर्म में बदलती है और कर्म परिणाम में परिवर्तित होते हैं, और इस प्रकार एक व्यक्ति पराजय के अवशेषों से विजेता बन जाता है। अतएव हमें सर्वदा महापुरुषों के द्वारा बताए गए श्रेष्ठ विचारों का आश्रय लेना चाहिए। सत्संगति से भक्ति, भक्ति से ज्ञान, ज्ञान से वैराग्य, वैराग्य से ब्रह्मात्मैक्य बोध, और ब्रह्मात्मैक्य बोध से मोक्ष की सिद्धि होती है।
समाज में अभाव मूल का है। जिसके फलस्वरूप शाखा, पत्र, पुष्प फलादि की कल्पना निरर्थक सिद्ध होती है। तदनुसार सत्संगति के अभाव में क्रमशः भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, ब्रह्मात्मैक्य बोध और मोक्ष की कल्पना निरर्थक सिद्ध होती है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह समाज में सत्पुरुषों का सम्मान करते हुए उसकी अधिक से अधिक संगति करे और उनके चरित्रों से शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे।
एक मच्छर के द्वारा भूख मिटाने के लिए दी गयी हल्की सी अहानिकारक पीड़ा के बदले मनुष्य उसे मार डालता है। वही मनुष्य मात्र अपने जिह्वा की तृप्ति के लिए कई निर्दोष प्राणियों को बर्बरता से मार कर खा जाता है। इसके बाद मनुष्य ईश्वर को दोष देता है कि उसके जीवन में समस्या और असफलता क्यों है ! और उत्तर न मिलने पर ईश्वर के ही अस्तित्व पर प्रश्न लगाकर फिर अपना चमड़ा बढ़ाने के लिए किसी और के चमड़े को चबाने में मग्न हो जाता है। यदि यही मनुष्यता है तो फिर राक्षस की क्या परिभाषा है ? एक ओर तुम बिना स्नान किये मन्दिर में नहीं घुसते, मन्दिर में थूकते नहीं, मंदिर में जूते नहीं पहनते। दूसरी ओर देवताओं के नाम पर बलि की आड़ में सैकड़ों निरपराध जीवों की हत्या करके मंदिर को कसाईखाना बना देते हो। यदि इसके बाद भी तुम स्वर्ग जाने की बात करते हो तो नरक किनके लिए बना था ? यह कितनी विडंबना की बात है कि हर हाथी में गणेश और बन्दर में हनुमान के
दर्शन करने वाला मनुष्य हर नारी में सीता और हर पुरुष में राम नहीं देख पाता। यदि ऐसा हो जाये, तो यह संसार शत्रु और भय से मुक्त हो जाएगा।
मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अनेक भौतिक आकांक्षाओं के प्रति अपने मन का विभाजन करके उसे संकीर्ण बना लेता है। संकीर्णता के कारण उसकी आत्मप्राज्ञदूरदर्शिता शनैः शनैः क्षीण होने लगती है। संकीर्णता से ग्रस्त मन के द्वारा वह तत्वज्ञानियों के समक्ष नानाविध तर्क कुतर्कों के साथ अपनी नैसर्गिक जिज्ञासा की शांति हेतु प्रस्तुत होता है, तथा असफल होने की स्थिति में आत्मचिंतन के स्थान पर तत्वज्ञानियों के ज्ञान पर ही प्रश्नचिन्ह लगा बैठता है।
ज्ञान सुख का मूल नहीं है, वह तो मात्र जिज्ञासा का अंत है। सुख का मूल तो संतोष ही है क्योंकि वही कामनाओं का अंत है। हां, ज्ञान का प्रयोग संतोष की प्राप्ति हेतु अवश्य कर सकते हैं। स्वयं को अविनाशी जानने के बाद मृत्यु का कोई भय नहीं होता। किंतु यह जानना, मात्र पढ़ने, सुनने या सोच लेने से नहीं होता, इसीलिए भय बना रहता है। इसे स्वभाव में स्थापित करना पड़ता है। स्वभाव में स्थापित करना ही मुख्य सूत्र है क्योंकि इसी से विवेक की दृढ़ता सम्भव है। जैसे वाहन चलाने का गुण जब स्वभाव में आ जाता है तो बात करते हुए, या कहीं अन्यत्र ध्यान रहते हुए भी वाहन का संचालन चेतन स्वयं करने लगता है, चित्त कहीं और लगा रहे, फिर भी लोग स्वभावाश्रित होकर चलने लगते हैं, ऐसे ही जब आत्मा और देह की पृथकता का बोध होगा तो मृत्युभय भी स्वतः समाप्त हो जाएगा।
आधुनिक समाज में लोग मनुष्यों के साथ पशु के समान और पशुओं के साथ मनुष्यों के समान व्यवहार कर रहे हैं। मर्यादा का यह अतिक्रमण समस्त सभ्यताओं के नाश का कारण बनेगा। जो उचित है, वही धर्म है।
जो कल्याणकारी है, वही उचित है। जो निःस्वार्थ है, वही कल्याणकारी है। जो सुख और दुःख को समान समझे वही निःस्वार्थ है। इस प्रकार धर्म की केंद्रित परिभाषा निःस्वार्थता ही है।
जिस प्रकार कितने भी तेज वायु के प्रवाह से, आंधियों से, वृक्ष और उसकी छाया अलग नहीं किये जा सकते, जिस प्रकार कितना भी प्रकाश गन्ने के ऊपर डालें, उसके रस को अलग नहीं कर सकते, उसी प्रकार कितने भी धर्मशास्त्रों के अध्ययन मात्र से मोह के आवरण और जीव को पृथक् नहीं किया जा सकता। छाया और वृक्ष को अलग करने के लिए प्रकाश के स्रोत को नष्ट करना होगा, और तब हम जानेंगे कि वास्तव में छाया का तो कोई स्वतंत्र अस्तित्व कभी था ही नहीं, वह तो सर्वदा से अनित्य थी। जैसे गन्ने के रस को अलग करने के लिए बलपूर्वक मर्दन करना होगा, उसी प्रकार धर्मशास्त्रों के (मात्र अध्ययन के बजाय) निग्रहपूर्ण आचरण से ही मोह का नाश होता है और तब हम जानते हैं कि वास्तव में मोह का तो कभी कोई स्वतन्त्र अस्तित्व था ही नहीं।
जब तक पुण्यबल का संचय अगाध नहीं होता तब तक भगवान की कृपा नहीं होती। अन्यथा उन्होंने तो दुर्योधन और अर्जुन दोनों को ही समान चयन का अवसर दिया। एक ने नारायणी सेना को चुना और दूसरे ने स्वयं नारायण को। उन्होंने तो सबों के लिए अपनी सुलभता दिखाई, लेकिन उनके प्रति समर्पण किया कुछ ही लोगों ने। धर्मपालन से मिलता है पुण्यबल, और पुण्यबल से मिलती है भगवत्कृपा। जहाँ पर अकारण ही भगवत्कृपा दिख जाए, वहां भी सन्तसेवा, संयोगवश घटित नामोच्चारण, व्रत दानादि का पुण्यबल ही मूल कारण होता है। भगवान की कृपा बदले में किसी कारण, पूजन, प्रतिकृपा अथवा उपकार की अपेक्षा नहीं रखती इसीलिए उन्हें अकारण करुणावरुणालय कहते हैं।
ब्राह्मण के नेतृत्व में क्षत्रिय शासन करके वैश्य के धन को बढ़ाये ताकि शूद्र सम्मान, सुख और सम्पन्नता से जीवन निर्वाह करके बाकी तीनों वर्णों की सेवा करके उनके धर्म को पुष्ट कर सके। यही सवर्ण (चारों वर्ण) का कर्तव्य है जो सनातनी राष्ट्र का आधार बनेगा। युद्ध हमेशा दोनों पक्षों की हानि कराता है। विजेता के लिए इस हानि को निवेश कहते हैं और हारने वाले के लिए यह दुर्भाग्य होता है। विजेता के पाप भुला दिए जाते हैं और उसके साथ ही हारने वाले के पुण्य भी। इसीलिए विजय पर ध्यान देना चाहिये ताकि दुर्भाग्य को निवेश में बदला जा सके। धर्मयुद्ध में पक्ष और विपक्ष का सूक्ष्मता से ज्ञान होना आवश्यक है। कभी कभी नारायणी सेना भी दुर्योधन की ओर से लड़ने लगती है तो कभी कभी धृतराष्ट्रपुत्र युयुत्सु ठीक युद्ध से पूर्व युधिष्ठिर की ओर सम्मिलित हो जाता है। कुछ लोग बलराम और विदुर की भांति सक्षम होते हुए भी सद्भावना से कारण दोनों पक्षों को छोड़ देते हैं तो कुछ लोग रुक्मी की भांति दुर्भावना से कैतवलीला (कपट वंचना) करते हैं।
छिद्रान्वेषण की एक अच्छी बात यह है कि आपको पक्षापक्ष का ज्ञान हो जाता है। आप मुखर विरोध कर सकते हैं और विरोध ही संघर्ष का आधार है, चाहे वह विरोध युद्ध के रूप में हो या फिर शास्त्रार्थ के रूप में। अच्छाई देखने वाले के साथ समस्या होती है कि वह देखने के बाद अच्छाई को हटा नहीं सकता क्योंकि इसकी आवश्यकता ही नहीं, जबकि बुराई देखने वाला उस बुराई को हटा कर उसके स्थान पर और भी अच्छाई भर सकता है। किन्तु दोष देखने की प्रवृत्ति निष्पक्ष और पूर्वाग्रहमुक्त हो, तभी कल्याणकारिणी है।
दोष देखने वाले लोग कहते हैं कि अमुक सन्त क्रोध करते है। केवल संत ही नहीं, स्वयं सत्वयुक्त नारायण भी क्रोध करते हैं। क्रोध से दण्ड संचालित होता है और दण्ड ही मर्यादा की रक्षा करता है। यदि इस हेतु क्रोध का सन्तुलित प्रयोग हो रहा है तो कोई दोष नहीं। सगुण व्यक्ति जब तक सगुण है तब तक निर्गुण को नहीं जान सकता। इसीलिए जब तक सगुण हो तब तक मूर्तिपूजा करो, जब निर्गुण हो जाओगे तो मूर्ति के अलावा भी सर्वत्र ब्रह्म दिखेंगे।
धर्म का फल है मोक्ष ! उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है।अर्थ केवल धर्म के लिए है। भोगविलास उसका फल नहीं माना गया है। भोगविलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है ,उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्त्व जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना नहीं है! तत्त्ववेत्तालोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरुप ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान् के नाम से पुकारते हैं।
अश्रुत को श्रुत, अदृष्ट को दृष्ट, अचिंत्य को चिंत्य, अनागत को आगत, अज्ञात को ज्ञात एवं अगम्य को गम्य जो बनाये, वह योग है। शरीर को अंगों को विशेष कोण प्रतिकोण से अभिनीत करने को योग नहीं, व्यायाम कहते हैं। व्यायाम शरीर को तथा योग चेतना को शुद्ध एवं स्वस्थ रखता है। व्यायाम योग का एक स्थूल अंशमात्र है। योग के सभी जन अधिकारी नहीं हैं क्योंकि यह केवल सत्वयुक्त पवित्रात्माओं के लिए ही है। मृत्यु दुःख का विषय नहीं है। दुःख का विषय यह है कि मृत व्यक्ति का पुनर्जन्म हो जाये। इस संसार में मनुष्य योनि अत्यंत दुर्लभ है तथा इसे प्राप्त करके मोक्षमार्ग के लिए प्रयत्न न करना घोर दुर्भाग्य है। मृत्यु और जन्म का कष्ट इस संसार में सबसे अधिक दुःखदायक है। पुनर्जन्म न होना ही मृत्यु की सार्थकता है।
आपका यह जीवन एवं आपका स्वप्न दोनों ही सत्य हैं। आपकी जागृत अवस्था में भौतिक शरीर एवं स्वप्न में सूक्ष्म शरीर सक्रिय होता है। दोनों को संचालित करने वाला तत्व जीवात्मा ही है इसीलिए दोनों ही सत्य हैं। और यदि आप स्वप्न को असत्य मानते हैं, कल्पना या चिद्विलास मानते हैं तो स्मरण रहे, यह सम्पूर्ण संसार, जिसे आप वास्तविक समझ रहे हैं, वही स्वयं में ही एक बहुत बड़ा असत्य है, कल्पना है, चिद्विलास है। इसीलिए जागृति और स्वप्न दोनों का महत्व समान है। दोनों समान रूप से सत्य भी हैं एवं असत्य भी।
समय कितना गया यह महत्वपूर्ण नहीं। समय कहाँ गया यह महत्वपूर्ण है। समय का महत्व उसकी मात्रा से नहीं, कार्यनिष्पादन से है। समय का कार्य लोक का नाश करना है। पंचमहाभूतों से निर्मित विश्व का संहार करने का कार्य समय का है। जड़ पर उसका प्रभाव होता है, चेतन पर नहीं। किंतु जो चेतन स्वयं को जड़ समझ बैठे हैं वे इसके प्रभाव में फंस ही जाते हैं।
इस संसार की विचित्रता कुछ इस प्रकार से है कि लोग जीवित व्यक्तियों के साथ शव के जैसा व्यवहार करते हैं एवं शवों के साथ जीवित व्यक्ति के समान। वे जीवितों के साथ घृणा करते हैं और शवों के साथ प्रेम का प्रदर्शन। जीवित के साथ जीवित एवं मृत के साथ मृत जैसा ही व्यवहार करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के साथ उसके जीवित रहते ही प्रेम, दया और सम्मान का व्यवहार करने में सार्थकता है। मृत्यु के पश्चात् उसके शव के साथ जैसा प्रेम, मोह, सम्मान और अपनापन दिखाने में लोग प्रयत्न करते हैं, वैसा ही व्यवहार जीवित रहते ही होने लगे तो यह संसार सुखी एवं प्रसन्न हो जाएगा।
व्यक्ति, प्रशंसा और अहंकार का सम्बन्ध दूध, खटाई और दही जैसा है। जैसे दूध खटाई आदि से विकृत होकर दही बन जाता है, वैसे ही जिस व्यक्ति की अधिक प्रशंसा उसके ही सामने होती है, वह अहंकार से युक्त हो जाता है। प्रपञ्चसार तन्त्र के अनुसार प्रकृति जब जीव के साथ कर्ताभाव से युक्त होती है तो अहंकार तत्व का सृजन होता है। यहां तक तो ठीक है, दही के भी अपने गुण हैं, अपने उपयोग हैं। वैसे ही अहंकार के भी अपने महत्तात्विक गुण और उपयोग हैं।
किंतु यदि दूध की विकृति से उद्भूत उस दही का बराबर मंथन न किया जाए, तो उसमें कीड़े निकल आएंगे और दही का नाश कर देंगे, जबकि उचित रीति से मंथन की गई दही क्रमशः घृत में परिणत हो जाती है, जो भोजन, पूजन, औषधि, प्रकाशक आदि अनेक कार्यों में उपयोगी होती है।
उसी प्रकार सत्पुरुष को चाहिए कि प्रशंसा के कारण उत्पन्न अहंकार का मंथन निरंतर करता रहे, करता रहे, अन्यथा वह कलुषित होकर पतित हो जाएगा। बार बार मथे गए अहंकार से भी उत्साह, आत्मबल तथा दृढ़संकल्प आदि गुणों की उपलब्धि होती है जो मुमुक्षु के योगाभ्यास में सहायक होते हैं और घृत के समान अनेक कार्यों में उपयोगी होते हैं।
साभार श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु