“उपासना” “तैलधारा” के समान अखंड हो
तेल को एक पात्र से जब दूसरे में डालते हैं तब उसकी धारा अखंड रहती है, बीच बीच में टूटती नहीं है, वैसी ही हमारी साधना होनी चाहिए| गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …..
“ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते| सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्||१२:३||”
आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में इस श्लोक की बहुत विस्तृत टीका की है| वह टीका और उसका हिंदी में अनुवाद बहुत बड़ा है जिसे यहाँ इस लेख में प्रस्तुत करना मेरे लिए असम्भव है| अपने भाष्य में इस श्लोक की विवेचना में आचार्य शंकर ने ‘उपासना’ को ‘तैलधारा’ के समान बताया है|
उपासना का शाब्दिक अर्थ है …. समीप बैठना| हमें किसके समीप बैठना चाहिए? मेरी चेतना में एक ही उत्तर है … गुरु रूप ब्रह्म के| गुरु रूप ब्रह्म के सिवाय अन्य किसी का अस्तित्व चेतना में होना भी नहीं चाहिए| यहाँ यह भी विचार करेगे कि गुरु रूप ब्रह्म क्या है|
शंकर भाष्य के अनुसार “उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं”|
यहाँ उन्होंने “तैलधारा” शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है| तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा|
योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है तब वह तैलधारा के सदृश अखंड होती है| प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए| जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनती है| प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है| यह प्रणव ही कूटस्थ अक्षर ब्रह्म है|
समानवृत्ति क्या हो सकती है? जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका अर्थ है श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना| चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है| अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है|
मेरी सीमित अल्प बुद्धि के अनुसार “उपासना” का अर्थ …. हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है| मेरी दृष्टी में यह ओंकार ही गुरु रूप ब्रह्म है|
योगी लोग तो ओंकार से भी शनेः शनेः ऊपर उठने की प्रेरणा देते हैं क्योंकि ओंकार तो उस परम शिव का वाचक यानि प्रतीक मात्र है जिस पर हम ध्यान करते हैं| हमारी साधना का उद्देश्य तो परम शिव की प्राप्ति है| उपासना तो साधन है, पर उपास्य यानि साध्य हैं ….. परम शिव| उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना ही है| “उपासना” और “उपनिषद्” दोनों का अर्थ एक ही है| प्रचलित रूप में परमात्मा की प्राप्ति के किसी भी साधन विशेष को “उपासना” कहते हैं|
व्यवहारिक रूप से किसी व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है उससे वैसी ही उपासना होगी| उपासना एक मानसिक क्रिया है| उपासना निरंतर होती रहती है| मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है| तमोगुण की प्रधानता अधिक होने पर मनुष्य परस्त्री/परपुरुष व पराये धन की उपासना करता है जो उसके पतन का कारण बनती है|
चिंतन चाहे परमात्मा का हो या परस्त्री/पुरुष का, होता तो उपासना ही है| रजोगुण प्रधान व सतोगुण प्रधान व्यक्तियों की उपासना भी ऐसे ही अलग अलग होगी| हमें तो इन तीनों गुणों से भी ऊपर उठना है|
अतः एक उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है| मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है| योगसूत्रों में एक सूत्र आता है ….. “वीतराग विषयं वा चित्तः”, इस पर गंभीरता से विचार करें|
उपासना के लिए व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों आधार मान्य हैं| जीव वस्तुत: शिव ही है, परंतु अज्ञान के कारण वह इस प्रपंच के पचड़े में पड़कर भटकता फिरता है। अत: ज्ञान के द्वारा अज्ञान की ग्रंथि का भेदन कर अपने परम शिवत्व की अभिव्यक्ति करना ही उपासना का लक्ष्य है|
जब ह्रदय में परमप्रेम उदित होता है तब भगवान किसी गुरु के माध्यम से मार्गदर्शन देते हैं| गुरु ही इस देहरूपी नौका के कर्णधार होते हैं| गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं| अतः मुझ जैसे अकिंचन व अल्प तथा सीमित बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए स्वभाववश और गुरु महाराज की स्पष्ट आज्ञा से भी ओंकार रूपी अनाहत नाद (कूटस्थ अक्षरब्रह्म) का ध्यान में तैलधारा के सदृश निरंतर श्रवण, और कूटस्थ ब्रह्मज्योति का निरंतर दर्शन ही उपासना है| यह कूटस्थ ही गुरुरूप ब्रह्म है|
ॐ गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
⁃ कृपा शंकर