शिवजी का निर्गुण व सगुण स्वरूप

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।

जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥

भावार्थ:-जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥

भगवान् भोलेनाथ सदैव लोक उपकारी और हितकारी हैं, त्रिदेवों में इन्हें संहार का देवता भी माना गया है, अन्य देवताओं की पूजा-अर्चना की तुलना में शिवोपासना को अत्यन्त सरल माना गया है, अन्य देवताओं की भांति भगवान् शंकरजी को विशेष सुगंधित पुष्पमालाओं और मीठे पकवानों की आवश्यकता नहीं पड़ती।

शिवजी तो स्वच्छ जल, बिल्व पत्र, कंटीले और न खायें जाने वाले पौधों के फल जैसे धतूरे से ही प्रसन्न हो जाते हैं, शिवजी को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है, वे तो औघड़ बाबा हैं, हमेशा जटाजूट ही रहते हैं, गले में नाग लिपटे हुयें, एवम् रूद्राक्ष की माला धारण करते हुये, शरीर पर बाघम्बर शोभा पाते हुयें।

चिता की भस्म को लगायें एवम् हाथ में त्रिशूल पकड़े हुयें वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं, इसीलिये उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गयीं है, उनकी वेशभूषा से जीवन और मृत्यु का बोध होता है, शीश पर गंगाजी और चन्द्रमा को जटा पर धारण करते हुयें, जो जीवन एवं कला के द्योतम हैं, शरीर पर चिता की भस्म मृत्यु की प्रतीक है।

यह जीवन गंगा की धारा की भांति चलते हुयें अन्त में मृत्यु सागर में लीन हो जाता है, रामचरितमानस में तुलसीदास ने जिन्हें अशिव वेषधारी और नाना वाहन नाना भेष वाले गणों का अधिपति कहा है, वे शिवजी जन-सुलभ तथा आडम्बर विहीन वेष को ही धारण करने वाले हैं, वे नीलकंठ भी कहलाते हैं, क्योंकि, समुद्र मंथन के समय जब देवगण एवं असुरगण अद्भुत और बहुमूल्य रत्नों को हस्तगत करने के लिए मरे जा रहे थे।

तब कालकूट विष के बाहर निकलने से सभी पीछे हट गयें, उसे ग्रहण करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ, तब शिवजी ने ही उस महाविनाशक विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, तभी से शिव नीलकंठ कहलाये, क्योंकि विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया था, ऐसे परोपकारी और अपरिग्रही शिव का चरित्र वर्णित करने के लिए ही हमारे ऋषियों ने शिव महापुराण की रचना की गयीं है।

यह पुराण पूर्णत: भक्ति ग्रन्थ है, इस पुराण में कलियुग के पापकर्म से ग्रसित व्यक्ति को मुक्ति के लिए शिवजी की भक्ति का मार्ग सुझाया गया है, मनुष्य को निष्काम भाव से अपने समस्त कर्म शिवजी को अर्पित कर देने चाहियें, वेदों और उपनिषदों में प्रणव ओऊम् के जप को मुक्ति का आधार बताया गया है, प्रणव के अतिरिक्त गायत्री मन्त्र के जप को भी शान्ति और मोक्षकारक कहा गया है।

परन्तु शिव पुराण में आठ संहिताओं का उल्लेख प्राप्त होता है, जो मोक्ष कारक हैं, ये संहितायें हैं- विद्येश्वर संहिता, रुद्र संहिता, शतरुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलास संहिता, वायु संहिता (पूर्व भाग) और वायु संहिता (उत्तर भाग), इस विभाजन के साथ ही सर्वप्रथम शिव पुराण का माहात्म्य प्रकट किया गया है।

इस प्रसंग में चंचुला नामक एक पतिता स्त्री की कथा है जो ‘शिव पुराण सुनकर स्वयं सदगति को प्राप्त हो जाती है, यही नहीं, वह अपने कुमार्गगामी पति को भी मोक्ष दिला देती है, तदुपरान्त शिवजी के पूजा की विधि भी बताई गयीं है, शिव कथा सुनने वालों को उपवास आदि न करने के लिये कहा गया है, क्योंकि भूखे पेट कथा में मन नहीं लगता।

साथ ही गरिष्ठ भोजन, बासी भोजन, वायु विकार उत्पन्न करने वाली दालें, बैंगन, मूली, प्याज, लहसुन, गाजर तथा मांस-मदिरा का सेवन वर्जित बताया गया है, विद्येश्वर संहिता में शिवरात्रि व्रत, पंचकृत्य, ओंकार का महत्त्व, शिवलिंग की पूजा और दान के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है, शिव की भस्म और रुद्राक्ष का महत्त्व भी बताया गया है।

रुद्राक्ष जितना छोटा होता है, उतना ही अधिक फलदायक बताया गया है, खंडित रुद्राक्ष, कीड़ों द्वारा खाया हुआ रुद्राक्ष या गोलाई रहित रुद्राक्ष कभी धारण नहीं करने की सलाह दी गयीं है, सर्वोत्तम रुद्राक्ष तो वह है जिसमें स्वयं ही छेद होता है, सभी वर्ण के मनुष्यों को प्रात:काल की भोर वेला में उठकर सूर्य की ओर मुख करके शिवजी का ध्यान करना चाहिये।

व्यक्ति को पुरूषार्थ करते हुये अपने कमाई से अर्जित धन के तीन भाग करके एक भाग धन वृद्धि में, एक भाग उपभोग में और एक भाग धर्म के कार्यों में व्यय करना चाहिये, इसके अलावा किसी भी व्यक्ति को क्रोध कभी नहीं करना चाहिये और न ही क्रोध उत्पन्न करने वाले वचन बोलने चाहिये।

रुद्र संहिता में शिव का जीवन-चरित्र वर्णित है, इसमें नारद मोह की कथा, सती का दक्ष-यज्ञ में देह त्याग, पार्वती विवाह, मदन यानी काम का दहन, कार्तिकेयजी और गणेशजी का जन्म, पृथ्वी परिक्रमा की कथा, शंखचूड़ से भगवान् शिवजी का युद्ध और उसके संहार की कथा का विस्तार से उल्लेख है।

शिव पूजा के प्रसंग में कहा गया है कि दूध, दही, मधु, घृत और गन्ने के रस (पंचामृत) से स्नान कराके चम्पक, पाटल, कनेर, मल्लिका तथा कमल के पुष्प चढ़ायें, फिर धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूल अर्पित करें, इससे शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं, इसी संहिता में सृष्टि खण्ड के अन्तर्गत जगत् का आदि कारण शिवजी को ही माना गया हैं, शिवजी से ही आद्यशक्ति माया’ का आविर्भाव होता हैं, फिर शिवजी से ही ब्रह्माजी और भगवान् विष्णुजी की उत्पत्ति बताई गयीं है।

शतरुद्र संहिता में शिवजी के अन्य चरित्रों जैसे- हनुमानजी का, श्वेत मुख और ऋषभदेवजी का वर्णन है, उन्हें शिवजी का अवतार कहा गया है, शिवजी की आठ मूर्तियां का भी उल्लेख हैं, इन आठ मूर्तियों से भूमि, जल, अग्नि, पवन, अन्तरिक्ष, क्षेत्रज, सूर्य और चन्द्र अधिष्ठित हैं, शतरूद्र संहिता में शिवजी के लोकप्रसिद्ध अर्द्धनारीश्वर रूप धारण करने की कथा बताई गयी है।

यह स्वरूप सृष्टि के विकास में मैथुनी क्रिया के योगदान के लिये धरा गया था, शिवपुराण की शतरुद्र संहिता के द्वितीय अध्याय में भगवान शिवजी को अष्टमूर्ति कहकर उनके आठ रूपों शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव का उल्लेख है, शिवजी की इन अष्ट मूर्तियों द्वारा पांच महाभूत तत्व, ईशान (सूर्य), महादेव (चंद्र), क्षेत्रज्ञ (जीव) अधिष्ठित हैं।

चराचर विश्व को धारण करना (भव), जगत के बाहर भीतर वर्तमान रह स्पन्दित होना (उग्र), आकाशात्मक रूप (भीम), समस्त क्षेत्रों के जीवों का पापनाशक (पशुपति), जगत का प्रकाशक सूर्य (ईशान), धुलोक में भ्रमण कर सबको आह्लाद देना (महादेव) रूप है, इसी संहिता में विष्णुजी द्वारा शिवजी के सहस्त्र नामों का वर्णन भी है, साथ ही शिवरात्रि व्रत के माहात्म्य के संदर्भ में व्याघ्र और सत्यवादी मृग परिवार की कथा भी है।

भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्रीनाथ में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है, इसी आशय की महिमा को शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है, इस संहिता में भगवान शिवजी के लिए तप, दान और ज्ञान का महत्त्व समझाया गया है, यदि निष्काम कर्म से तप किया जाये तो उसकी महिमा स्वयं ही प्रकट हो जाती है, अज्ञान के नाश से ही सिद्धि प्राप्त होती है।

तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते।

जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।।

दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च।

केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।

शिवपुराण का अध्ययन करने से अज्ञान नष्ट हो जाता है, इस संहिता में विभिन्न प्रकार के पापों का उल्लेख करते हुए बताया गया है, कि कौन-से पाप करने से कौन-सा नरक प्राप्त होता है, पाप हो जाने पर प्रायश्चित्त के उपाय का भी इसमें विस्तार से उल्लेख किया गया हैं, उमा संहिता में देवी पार्वतीजी के अद्भुत चरित्र तथा माता पार्वतीजी संबंधित लीलाओं का उल्लेख किया गया है, चूंकि पार्वती भगवान शिवजी के आधे भाग से प्रकट हुई हैं, और भगवान शिवजी का आंशिक स्वरूप हैं।

इसीलिए उमा संहिता में उमा महिमा का वर्णन कर अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् शिवजी के ही अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का माहात्म्य प्रस्तुत किया गया है, कैलास संहिता में ओंकार के महत्त्व का वर्णन है, इसके अलावा योग का भी विस्तार से उल्लेख है, इसमें विधिपूर्वक शिवोपासना, नन्दी श्राद्ध और ब्रह्मज्ञानी की विवेचना भी की गई है, गायत्री जप का महत्त्व तथा वेदों के बाईस महावाक्यों के अर्थ भी समझाये गये हैं।

इस संहिता के पूर्व और उत्तर भाग में पाशुपत विज्ञान, मोक्ष के लिये शिवजी के ज्ञान की प्रधानता, हवन, योग और शिवजी के ध्यान का महत्त्व समझाया गया है, शिवजी ही चराचर जगत् के एकमात्र देवता हैं, शिवजी के निर्गुण और सगुण रूप का विवेचन करते हुये कहा गया है कि शिवजी अकेले ही हैं, जो समस्त प्राणियों पर दया करते हैं, इस कार्य के लिये ही भगवान् शिवजी सगुण रूप धारण करते हैं, जिस प्रकार अग्नि तत्त्व और जल तत्त्व को किसी रूप विशेष में रखकर लाया जाता है।

उसी प्रकार शिवजी अपना कल्याणकारी स्वरूप साकार मूर्ति के रूप में प्रकट करके पीड़ित व्यक्ति के सम्मुख आते हैं, शिवजी की महिमा का गान ही इस पुराण का प्रतिपाद्य विषय है, भाई-बहनों, शिवजी की आराधना के साथ आप सभी के लिये कल्याण एवम् सौभाग्य के लिये मंगलमय् भोलेनाथ से प्रार्थना करता हूँ।

जय महादेव!

ओऊम् नमः शिवाय

– पंडित कृष्ण दत्त शर्मा

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