गौ, गंगा और श्रीराम का सम्बंध

सोन नदी के तट पर रात्रि व्यतीत करने के पश्चात जब अगली सुबह श्रीराम, श्री लक्ष्मण और महर्षि विश्वामित्र चलते-चलते गंगा के तट पर पहुँचे तो वहां पहुँचकर जाह्नवी के दर्शन-पूजन के पश्चात राम ने महर्षि से गंगा-अवतरण की कथा पूछी। महर्षि विश्वामित्र ने बिलकुल आरंभ से इस कथा को कहना शुरू किया।

पर्वतराज हिमालय और उनकी पत्नी मेना की दो बेटियाँ थी, बड़ी गंगा और छोटी उमा। जिनमें से गंगा को देवताओं ने हिमालय से निवेदन कर स्वर्गलोक के लिये मांग लिया।

ये कहकर विश्वामित्र मौन हुये तो गंगा की अवतरण कथा जानने को व्यग्र ‘राघव’ धीरज न दिखा सके और शीघ्र ही उनसे कह बैठे कि हमें गंगा अवतरण की पूरी कथा विस्तार से कहिये। राघव की उत्कंठा देखकर महर्षि विश्वामित्र बाकी ऋषि मंडलियों के साथ वहीं बैठ गये और कहा :-

हे राम ! तुम्हारी अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा हुये थे जिनकी कोई संतान नहीं थी और वो पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखते थे। उनकी एक पटरानी का नाम केशिकी और दूसरी का नाम सुमति था। संतान प्राप्ति की कामना लिये सगर सपत्नीक यज्ञ करने चले गये और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें पुत्र-प्राप्ति का वरदान देते हुये कहा कि तुम्हारी एक पत्नी से तुम्हें एक ही पुत्र होगा और दूसरी से साठ हज़ार संताने होगी।

केशिनी ने महर्षि भृगु से बस एक पुत्र की कामना की और सुमति ने उनसे साठ हज़ार पुत्र प्राप्ति का वर मांग लिया। केशिनी के गर्भ से असमंजस नाम के राजकुमार ने जन्म लिया और उधर सुमति के साठ हज़ार पुत्र जन्मे। असमंजस क्रूर थे और अपनी ही प्रजा पर भीषण अत्याचार करते थे जिससे दुःखी होकर महाराज सगर ने असमंजस को देश निकाला दे दिया। असमंजस का एक पुत्र था जिसका नाम अंशुमान था।

महाराज सगर ने एक यज्ञ करने का निर्णय लिया। यज्ञ आरम्भ हुआ, अंशुमान अश्व की सुरक्षा में नियुक्त किये गये पर इंद्र ने भेष बदलकर अश्व चुरा लिया। राजा सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रों को तुरंत इस अश्व की तलाश में भेजा और पुत्रों ने अश्व को खोजते हुये पृथ्वी खोदनी शुरू कर दी और इस क्रम में जो भी उनके सामने आया उन्होंने उसका वध कर दिया।

अश्व खोजते-खोजते जब वो कपिल मुनि के आश्रम के पास पहुँचे तो वहाँ उन्हें वो अश्व बँधा हुआ दिख गया। सगर के उन साठ हज़ार पुत्रों ने महर्षि कपिल को ही अश्व की चोरी करने वाला समझा और उन्हें मारने दौड़े जिससे क्रोधित होकर मुनि ने अपने तपोबल से उन साठ हज़ार सगर पुत्रों को भस्म कर दिया।

अपने पुत्रों के लौट के न आने के पश्चात चिंतित सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को अपने चाचाओं को खोजने का आदेश दिया। अंशुमान ने अपने मृत चाचाओं को ढूँढ निकाला और गरुड़ के द्वारा उन्हें अपने चाचाओं के तर्पण का मार्ग भी बताया गया। ये मार्ग था गंगा जल के द्वारा उनका तर्पण।

अंशुमान यज्ञ अश्व के साथ लौट आये और अपने पितामह सगर को सारी बात बताई। गंगा का अवतरण कैसे धरती पर हो ये सोचते हुये सगर स्वर्गवासी हो गये। उनके बाद ऋषियों ने अंशुमान को राजा बनाया।

अंशुमान को जब दिलीप नाम का पुत्र हुआ और जब दिलीप राजकाज सँभालने योग्य हुये तो अंशुमान ने दिलीप को राज सौंप दिया और स्वयं गंगा को धरती पर लाने हेतु तप करने चले गये। अंशुमान ने बत्तीस हज़ार साल तप किया पर गंगा धरती पर नहीं आईं। राजा दिलीप भी गंगा को धरती पर लाने की चिंता में स्वर्गवासी हो गये।

दिलीप के पुत्र थे भगीरथ। भगीरथ की संतान नहीं थी पर उन्होंने स्वयं के लिये पुत्र की कामना नहीं की बल्कि राज्य को महर्षियों को सौंपकर स्वयं गोकर्ण पर्वत पर यज्ञ करने चले गये ताकि गंगा धरती पर आ सके। हज़ार वर्षों के कठोर तप के बाद जब ब्रह्मा प्रकट हुये तो भगीरथ ने गंगा को धरती पर उतारने की अपनी मनोरथ उनके सामने रखी।

ब्रह्मा ने कहा, हे भगीरथ ! गंगा अगर धरती पर आई तो किसी में उनका वेग सँभालने का सामर्थ्य नहीं है सिवाय महादेव के। उनकी बात सुनकर भगीरथ ने शिव की आराधना आरंभ कर दी और कठोर तप के बाद प्रसन्न होकर महादेव ने भगीरथ से कहा कि मैं गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर लूँगा। गंगा शिवजी की जटाओं में उतरी पर उसमें उलझ कर रह गई और उससे बाहर आने का मार्ग न पा सकी।

इसके बाद भगीरथ ने पुनः शिव को प्रसन्न करने हेतु तप आरंभ कर दिया जिसके बाद प्रसन्न होकर शिव ने गंगा को अपनी जटाओं से बाहर निकाला और भगीरथ का मनोरथ पूर्ण किया। रास्ते में महर्षि जह्नु ने गंगा को पी लिया और बाद में भगीरथ और देवताओं की स्तुति करने के पश्चात उन्हें अपने कर्ण मार्ग से बाहर निकाला।

गंगाजल के द्वारा सगर के साठ हज़ार पुत्रों का तर्पण हुआ और वो सदा के लिए स्वर्ग में चले गये।

गंगा अवतरण की ये कथा हम हिन्दुओं के लिये नई नहीं है पर पुनः इसे बताना इसलिये आवश्यक था कि गंगा को धरती पर लेकर आने वाले ये लोग भगवान श्रीराम के पूर्वज थे। गंगा अवतरण की इस कथा को बताना इसलिये भी आवश्यक था कि ताकि दुनिया को ये पता चले कि राम के पूर्वजों की कई पीढ़ियाँ इस पुण्य कार्य को प्राप्त करने में खप गई।

सगर, अंशुमान, दिलीप और भगीरथ ये चार पीढ़ियाँ पुण्यदायिनी गंगा के धरती पर अवतरण के शिल्पी थे. इसके अलावा कई देवी-देवताओं के आशीर्वाद से गंगा हम धरतीवासियों को प्राप्त हुई थी।

गंगा अवतरण की इस कथा को बताना इसलिये भी आवश्यक था कि ताकि दुनिया को इस बात का पता चले कि गंगा में स्नान करना तो दूर जो गंगा अवतरण की इस दिव्य कथा का श्रवण भी कर लेता है उसके पाप कट जातें हैं और समस्त मनोरथ पूर्ण हो जातें हैं। ये बात विश्वामित्र ने राम से कही थी।

गंगा, गाय और श्रीराम ये तीन हैं जिनके प्रश्न आज हिन्दू स्वाभिमान के सामने यक्ष-प्रश्न बनकर खड़े हैं और उत्तर मांग रहें हैं कि क्या जीवनदायिनी गंगा बचेगी? क्या गाय बचेगी और क्या हम श्रीराम के पवित्र जन्मस्थान को स्वाभिमान के साथ प्राप्त कर सकेंगें?

रोचक बात ये है कि गंगा, गाय और श्रीराम तीनों ही इक्ष्वाकुवंशियों से सीधे जुड़े हैं। राम के चार-चार पूर्व-पुरुषों का गंगा अवतरण के लिए सब कुछ छोड़कर तप करना और गाय के लिये दिलीप का प्राणोत्सर्ग हेतु प्रस्तुत हो जाना भी अगर हमें गंगा और गाय की महत्ता नहीं समझा सकी तो फिर हमारे दुर्भाग्य पर कोई रोने वाला नहीं बचेगा।

ये सच है कि मैं स्वामी सांनद के बारे में अधिक नहीं जानता था पर गंगा के लिये उनका हुतात्मा बनकर प्रस्तुत हो जाने की घटना ने मेरे मन में उनके लिये वही सम्मान स्थापित कर दिया है जो इक्ष्वाकुवंशियों का है।

लेख साभार:- अभिजीत सिंह

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