परीक्षा

“बताओ राम तुमने उस उद्दण्डी वराह को शब्द भेदी बाण से क्यों न समाप्त किया..क्यों उसे इतनी देर तक उत्पात मचाने दिया..लक्ष्मण आदि अन्य शिष्य अत्यन्त उत्सुक हैं कि आश्रम की इतनी अधिक हानि होने के पश्चात तुमने उसका वध किया..पहले क्यों नहीं” महर्षि वसिष्ठ ने कोमल स्वर में पूछा।

राम अपने स्थान से उठकर उनका अभिवादन करते हुए बोले “गुरुश्रेष्ठ के श्री चरणों में संध्या काल का प्रथम प्रणाम!..गुरुवर.. अपराध के पश्चात ही दंड का विधान है ..पहले नहीं..और मर्यादा की भी यही पुकार थी…वराह भटकते हुए आश्रम में प्रविष्ट हुआ और हम मानवों की उपस्थिति के कारण अपनी मृत्यु के भय से वशीभूत होकर उग्रता से रेंक रहा था…मात्र इतने अपराध पे शब्द भेदी बाण का प्रयोग अनुचित होता..हाँ जब वो गुरु भ्राताओं पर आक्रमण कर उनके प्राण लेते मुझे दिखा तो उसका वध आवश्यक हो गया था…।”

गुरु वसिष्ठ संतुष्ट हुए परन्तु अन्य शिष्यों के ज्ञान वर्धन के लिए आगे पूछतें हैं “राम..मर्यादा क्या है?”

” गुरुश्रेष्ठ..यदि यह दुस्साहस संज्ञक न हो तो आप द्वारा प्रदत्त शिक्षा और ज्ञान में अपना विवेक समाहित कर कहता हूँ..सामान्य अर्थ में मर्यादा से तात्पर्य है लोक व्यवहार में प्रचलित नियमों और मान्यताओं की सीमा के अंतर्गत किया गया आचरण परन्तु मर्यादा की विवेचना अत्यन्त विशाल है..शक्ति सम्पन्न होते हुए भी अपनी शक्ति को सीमा में रखना ही मर्यादा है..” राम ने अत्यंत विनम्र स्वर में कहा।

“शक्ति क्या है..राम..इसका मापन कैसे हो..क्या शक्ति सम्पन्न होते हुए भी मर्यादा में रहना कायरता न कहलाएगी?” वसिष्ठ आज मानो स्वयं को विराम दे राम को सांध्य वाचन का अवसर दे रहे थे।

ये प्रश्न सुनकर सूर्यवंशी राम के अधर स्वतः नवमी के चंद्र की तरह मुस्कुराने लगे “अपने भीतर के किसी विशेष बल को अभ्यास द्वारा सिद्ध कर एक निश्चित मात्रा में संयोजित करने को शक्ति कहते हैं..इसका मापन संयम है…चरित्र संयम की इकाई है..गुरुवर.. इस सम्पूर्ण सृष्टि में प्रत्येक वस्तु दूसरे से शक्तिशाली अथवा क्षीण है..मानव से अधिक शक्तिशाली ये प्रकृति है..और इस प्रकृति का संचालक सूर्य है और इसी प्रकार उतरोत्तर अन्य तारे..आकाशगंगा आदि आदि हैं.. क्या सूर्य अपने ताप से इस पृथ्वी को भस्म नहीं कर सकता परन्तु वो मर्यादित रहता है..इसी प्रकार अनेक ग्रह अपनी अपनी मर्यादा में रहकर गतिमान हैं..ये विशाल ग्रह कभी भी अपनी सीमा को नहीं लाँघते.. मर्यादा तोड़ना तो क्षुद्र उल्काओं का कार्य है..अतः शक्ति सम्पन्न होते हुए भी अपनी मर्यादा में रहना ‘पालन’ है.. गुरुदेव.. कायरता नहीं।”

वसिष्ठ त्रेता में ही द्वापर की गीता को आत्मसात सा करते हुए बोले ” आह! अद्भुत राम! मैं तुम्हें और सुनना चाहता हूँ..मर्यादा और कायरता का भेद और स्पष्ट करो”

“जिस प्रकार संसार के दुखों से पलायन तप नहीं है..उसी प्रकार शक्तिशाली शरीर और तीक्ष्ण बुद्धि के होते हुए भी कष्ट भोगना भी महानता नहीं है वरन कायरता है..परन्तु यदि यही कष्ट संसार की भलाई के लिए भोगे जाएं तो मर्यादा है..” राम अंत मे अपनी वाणी में रहस्य भर के चुप हुए जिसे सिर्फ वसिष्ठ भाँप सके

“राम..मुझे प्रसन्नता है कि तुम्हें आगामी समय का भान है.. उस वराह को अभी गति नहीं प्राप्त होगी..परन्तु तुम्हारे बाण द्वारा मृत्यु को प्राप्त होने से वह प्रोन्नत अवश्य होगा और तुमसे पुनः भेंट करेगा”

राम ने आकाश में पुनर्वसु नक्षत्र की ओर देखा और रहस्यमयी तथा भारी स्वर में बोले “गुरुश्रेष्ठ! प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया प्रकृति का विधान है..मैला खाने वाला यह वराह (शूकर) पुनर्जन्म लेकर मैले कुचैले वस्त्रों को स्वच्छ करने का कार्य करने वाला होकर पुनः मेरी परीक्षा लेने आएगा”

“सबकुछ जानकर भी अत्यंत संयमित रहने वाले हे रघुश्रेष्ठ!..राम!..संसार में तुम मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से भी जाने जाओगे!” वसिष्ठ ने आशीर्वाद मुद्रा में हस्त किया और भोजन के लिए इन शिष्यों की गुरुमाता अरुंधति से आग्रह किया।

~ तुषार सिंह जी से साभार

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