जब श्री युक्तेश्वर गिरी ने समाधि ली

९ मार्च, १९३६ सोमवार, सायंकाल के पाँच बजने वाले थे। जगन्नाथपुरी के अपने आश्रम में ८१ वर्षीय स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी ने अपने नारायण नाम के एक शिष्य को आवाज दी। उनका शिष्य नारायण निरंतर सदा अपने गुरु की सेवा में तत्पर रहता था।

“नारायण, मेरा आज इस संसार को छोड़ने का समय आ गया है, आज मैं इस देह को त्याग दूँगा। क्या मुझे एक गिलास जल पिला सकते हो?” अत्यंत दुखी हृदय से उनका शिष्य नारायण भाग कर जल का एक गिलास लेकर आया। हाथ में गिलास लेते ही वह भूमि पर छूट कर गिर गया।

करुणा और प्रेम से भरे शब्दों में उन्होंने कहा “नारायण, तुम देख रहे हो, किस तरह मैं तुम सब से दूर ले जाया जा रहा हूँ। व्यथित मत हो, अपने गुरु के प्रति तुम्हारा प्रेम, सेवा और भक्ति अनुपम हैं। मैं तुम्हारे से पूरी तरह संतुष्ट हूँ| अपना सम्बन्ध शाश्वत रहेगा।”

सूर्यास्त का समय था, कुछ कुछ अन्धकार होने लगा था। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने कृतिवास नाम के एक व्यक्ति को बुलाया और आदेश दिया “कृतिवास, तुरंत पुरी के रेलवे स्टेशन पर जाकर प्रभास को सन्देश भिजवाओ कि वह कोलकाता में योगानंद को सूचित कर दे कि अब मेरा इस देह को त्यागने का समय आ गया है। योगानंद आज रात्री की रेलगाड़ी से ही पुरी आ जाए।”

प्रभास, योगानंद जी का भतीजा था और रेलवे विभाग खड़गपुर में एक प्रशासनिक अधिकारी था। उस जमाने में टेलीफोन सेवा का आरम्भ नहीं हुआ था। टेलीफोन सेवा सिर्फ रेलवे स्टेशन से रेलवे स्टेशन तक ही हुआ करती थी।

खड़गपुर में ज्यों ही प्रभास को जगन्नाथपुरी से यह सूचना मिली, उसने तुरंत कोलकाता रेलवे स्टेशन के माध्यम से योगानंद जी के पास यह सन्देश भिजवा दिया पर गुरु के देह को छोड़ने वाली बात छिपा ली।

स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि पद्मासन लगा कर नित्य की तरह अपने आसन पर शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए थे। उन्होंने अपने शिष्य नारायण को आदेश दिया कि वह उनकी छाती और कमर को अपने दोनों हाथों से सहारा दे दे। शिष्य ने वैसा ही किया।स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि गहनतम समाधि की अवस्था में चले गए, उनका शरीर एकदम शांत और स्थिर था।

फिर सचेतन रूप से स्वयं को अपनी देह की चेतना से मुक्त कर दिया। उनके शिष्य नारायण को अपने गुरु की देह की छाती से ब्रह्मरंध्र तक एक हल्के से स्पन्दन की सी अनुभूति हुई और एक अति धीमी सी ध्वनि भी सुनाई दी जो ॐ से मिलती जुलती थी। हतप्रभ सा हुआ उनका शिष्य नारायण उनकी शांत हुई देह की बहुत देर तक मालिश ही करता रहा|

थोड़ी देर में कृतिवास भी रेलवे स्टेशन से लौट आया। शिष्य नारायण ने कृतिवास को वहीं बैठाया और पड़ोस में रहने वाले डॉ.दिनकर राव को बुलाने चला गया। डॉ.दिनकर राव भी स्वामीजी के शिष्य थे। डॉ.राव ने निरीक्षण कर के बताया कि आधे घंटे पूर्व ही गुरु जी का शरीर शांत हो गया था।

स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि के शिष्य स्वामी परमहंस योगानंद गिरि जो स्वयं एक महायोगी सिद्ध संत थे सब कुछ अपनी अंतरप्रज्ञा से समझ गए और रात्री की ट्रेन से पुरी के लिए चल दिए| (आगे का घटनाक्रम “योगी कथामृत” में लिखा है)।

स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी का व्यक्तित्व अत्यधिक प्रभावशाली था। जो भी उनके संपर्क में आया वह उन की अति दिव्यता और असीम विवेक व ज्ञान से प्रभावित हुए नहीं रह पाया। उनकी लम्बी व बलिष्ठ देह, लम्बे हाथ, चौड़ा माथा, मजबूत छाती, चमकती हुई दोनों आँखें, और सफ़ेद दाढी थी। अपने आसन पर हर समय पद्मासन लगाकर शाम्भवी मुद्रा में बैठे रहते थे।

उनकी देह का जन्म कोलकाता के पास श्रीरामपुर में गंगा नदी के पास हुआ था। ८१ वर्ष की आयु प्राप्त की। स्वस्थ शरीर था और जगन्नाथपुरी में स्थित अपने आश्रम में सचेतन रूप से समाधिस्थ होकर देह-त्याग किया। वे वास्तविक ज्ञानावतार थे।

आज नौ मार्च को उनकी पुण्य स्मृति पर परमगुरु को कोटि कोटि नमन।

ॐ श्रीपरमगुरवे नमः || ॐ ॐ ॐ !!

⁃ कृपा शंकर

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