दत्तात्रेय के २४ गुरु कौन

दत्तात्रेयजी ने कहा- मैंने जीवन में चौबीस शिक्षा गुरु बनायें- मेरे जीवन का पहला गुरु हैं पृथ्वी, यदु महाराज! मैंने पृथ्वी को गुरु बनाकर शिक्षा प्राप्त की, कि संत को पृथ्वी के समान सहनशील होना चाहिये, सहनशील हुए बगैर संत का जीवन निरर्थक है, मैंने दूसरा गुरु बनाया वायु को, दत्तात्रेयजी कहते हैं- वायु चलती तो बहुत तेज है, परन्तु दिखायी नहीं देती।

सज्जनों! मैंने आपसे पूछा, क्यों भाई साहबजी हवा आ रही है? आपने कहा, हाँ बहुत ठंडी-ठंडी हवा आ रही है, मैंने पूछा, हवा काली है या पीली? आपने कहा हवा शरीर को लग तो रही है, लेकिन दिखायी तो नहीं देती, इसी प्रकार संत को चाहिये अपने उपदेश से, प्रवचन से समाज का कल्याण करें, परन्तु कभी ये नहीं चाहे कि दुनियाँ मुझे पहचाने, संत को ऐसा त्यागमय जीवन जीना चाहिये।

दत्तात्रेयजी कहते हैं- मैंने आकाश को गुरु बनाकर सुन्दर शिक्षा प्राप्त की, जो रास्ता देता है वो आकाश है, मेरे मुख से निकलने वाली जो वाणी है- परा, पश्यन्ति, मध्यमा, और वेखरी, ये चार वाणी हैं, मेरे मुख से निकलने वाली जो वाणी है, उसे आपके कानों तक पहुँचने का रास्ता किसने दिया, उसी का नाम आकाश है, लेकिन आकाश कितना मीटर लम्बा-चौड़ा है क्या कोई इसे जानता है?

आकाश में मक्खी उड़ती है, मच्छर उड़ता है, पक्षी उड़ते है, बड़े-बड़े हवाई जहाज उड़ते है, परन्तु कोई आज तक बता पाया है कि आकाश कितना लम्बा और कितना चौड़ा है? जैसे आकाश के आदि और अन्त का पता नहीं, वैसे ही श्रीनारायण् के भी न आदि का पता है न अन्त का पता है, ये मैंनें आकाश को गुरु बनाकर सीखा, मैंने जल को गुरु बनाया, यदु महाराज ने पूछ लिया- जल से क्या सीखा?

ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।।

जल का मतलब होता है शीतल, आप जल को कितना भी गर्म करो, वो शीतल हो ही जायेगा, अपनी वाणी को पवित्र बनाओ, वाणी को निर्मल बनाओ, ऐसी वाणी बनाओ कि मेरी वाणी के द्वारा किसी को तकलीफ नहीं हो, शास्त्रों ने कई प्रकार की हिंसा बतायी है, जिस व्यक्ति को खाने के लिये अन्न नहीं है, उसे दिखा-दिखाकर हम छप्पन भोग खायें, ये भी एक प्रकार की हिंसा है।

जिस व्यक्ति को पहनने को कपड़े नहीं है, उसको दिखा-दिखाकर नये-नये सिल्क के परिधान पहनना, ये भी एक प्रकार की हिंसा है, जो व्यक्ति अशिक्षित है, जो अनपढ़ है, उसके सामने वेदान्ती भाषा का प्रयोग करना, ये भी एक प्रकार की हिंसा है, उस व्यक्ति के साथ ऐसा बोले और ऐसा बर्ताव करो कि उसे ये लगे कि आप उसी की बिरादरी के हैं, वाणी को हमेशा संयमित रखें, वाणी से ऐसा वचन कभी न बोलो जिससे किसी को तकलीफ हो।

कश्मीर बहुत बड़ी समस्या बन गयी, नेताओं की गलती की वजह से, राजनैतिक लोगों की ऐतिहासिक भूलों की वजह से, भारत का मुकुटमणि कश्मीर जो आज विवादास्पद हो गया, ये कश्मीर कभी पंडितों का खजाना था, कश्मीर में एक से एक विद्वान् पंडित होते थे, विश्व विख्यात होते थे, उसी कश्मीर में एक बहुत बड़ा विद्वान् हुआ, तीस वर्ष की आयु वाला नवयुवक वेद-वेदान्त का अद्भुत विद्वान् पंडित।

पहले प्रचलन था कि पंडितजी लोग जब पढ़ लिख लेते थे तो शास्त्रार्थ करने जाते थे, उस वेद-वेदान्त में निष्णात पंडित ने शास्त्रार्थ करने की ठानी और शास्त्रार्थ करने निकल पड़ा, जहाँ-जहाँ जो भी मिले, अपने अकाट्य प्रमाणों के द्वारा उस व्यक्ति को परास्त कर देवे, काशी जो बनारस है वो कभी पंडितों का गढ़ रहा था, कश्मीर का वो युवा पंडित शास्त्रार्थ करते-करते काशी में आ गया और ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो भी विद्वान् हो आकर मुझसे शास्त्रार्थ करे।

बनारस के बहुत पंडितों से शास्त्रार्थ हुआ, कई पंडित हार गये, लेकिन बनारस के एक वयोवृद्ध पंडित थे, जब उनकी शास्त्रार्थ करने की बारी आयी तो उन्होंने ऐसा अकाट्य प्रमाण दिया कि वो कश्मीर का युवा विद्वान् पंडित हार गया, अब तो उसके मन में इतनी ग्लानि हुई, सोचा मैंने रात-रात भर जागकर शास्त्रों को पढ़ा, वर्षों मैंने इन ग्रन्थों को घोटकर पीया, मेरा परिश्रम व्यर्थ चला गया और आज मैं हार गया, अब मेरे जीने का कोई मकसद नहीं है, अब जी कर क्या करेंगे?

इतनी ग्लानि हुई उस युवा पंडित के मन में उसने संकल्प कर लिया कि आज शाम को सूर्य अस्त होने से पहले गंगा में डूबकर जल समाधि ले लूंगा, सारी काशी में हा-हा कार मच गया, कई लोगों को मन में दुःख भी है, लोगों ने जाकर उन वृद्ध पंडितजी से कहा- महाराज, वो युवा पंडित जो शास्त्रार्थ में आपसे हार गया वो आज मरना चाहता है, गंगाजी में अपने शरीर का अन्त करना चाहता है, वृद्ध पण्डित ने कहा क्यों? उसे मत मरने दो, उसे रोको।

ऐसे विद्वान की समाज को आवश्यकता है, वो यहीं रहेगा तो कितना उद्धार करेगा अपनी संस्कृति का, लोगों ने जाकर उन्हें मरने से रोकना चाहा, लेकिन वो पण्डित बोला- यह मेरा फैसला है, मैं मरना चाहता हूंँ मुझे कोई रोक नहीं सकता, वयोवृद्ध पंडितजी के पास लोग गये तो पंडितजी ने कहा, उसे जाकर कहो कि वो हारा हुआ है, मैं जीता हुआ हूंँ, एकबार मुझसे आकर मिले, ये मेरा आदेश है।

जैसे ही वो पंडितजी से मिलने के लिये आया, वयोवृद्ध पंडित ने उसे अंक में भर लिया और रोते हुए बोले- बेटा, तुम्हें तकलीफ पहुँचाने का मेरा कोई मंतव्य नहीं था, शास्त्रों की चर्चा दोनों तरफ से हुई, तुमने कोई प्रश्न किया, मैं जैसा जानता था वैसा जवाब दे दिया, तुम्हें बुरा लगा उसका मुझे खेद है, मैं तो तुमसे एक ही बात कहूँगाकि जीवन जीने के लिये है, तुम्हें मरना नहीं चाहिये, उस युवक ने पंडितजी की बात मानकर मरने का फैसला त्याग दिया।

युवक के जाते ही पंडितजी ने द्वार अन्दर से बंद कर लिया और भगवान् के सामने बैठकर रोने लगे कि ऐसी वाणी को लेकर मैं क्या करूँ? जिस वाणी से कोई व्यक्ति मरने पर उतारू हो जाये, यदि शास्त्रों में इतना निष्णात मैं नहीं होता, यदि ऐसी प्रखर मेरी वाणी नहीं होती तो अकाट्य प्रमाण में नहीं देता और तो आज ये ब्राह्मण मरने के लिये बाध्य क्यों होता?

पंडितजी ने एक लकड़ी ली और लकड़ी को चीरकर अपनी जीभ से बाँध लिया, सोच लिया कि आज के बाद मैं जीवन में कभी बोलूँगा नहीं और मृत्यु पर्यन्त पंडितजी बोले नहीं, आगे चलकर उनका नाम हो गया काष्ठजिव्हा स्वामी, कहने का तात्पर्य केवल इतना है, हमेशा सत्य बोलो, लेकिन मेरा सत्य किसी को अप्रिय न हो।

– पंडित कृष्ण दत्त शर्मा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *