संकल्प का ऐतिहासिक अवलोकन

संकल्प में कल्प शब्द परमेष्ठी के अहोरात्र से जुड़ा है। ४ अरब ३२ करोड़ का एक कल्प होताहै। “”शर्वरी तस्य तावती”” सूत्र से रात्रि भी इतनी ही बड़ी होती है।

कल्पान्त प्रलय सबसे बड़ा होता है। इसमें पंचमहाभूत और चतुर्दश भुवन नष्ट हो जाते हैं। भगवान ब्रह्मा जागनेके बाद संकल्प लेते हैं– यथा पूर्वमकल्पयत् :: जैसी सृष्टि मेरे जागते समय के कल्प में थी वैसी ही पुनः हो जाये। उनके ऐसा कहते ही सृष्टि वैसी हो जाती है। यह सृष्टि का प्रथम संकल्प होता है जो परमेष्ठी ब्रह्मा जी द्वारा लिया जाता है।

मनु महाराज कहते हैं — संकल्प सृष्टि और समस्त कामनाओं का मूल होता है। — संकल्पमूल: कामो वै यज्ञा: संकल्प सम्भवा:। संकल्प ही समस्त कामनाओं का मूल है।

देवता भी यज्ञ करके अपनी कामनाओं को प्राप्त करते हैं। इन्द्र सौ यज्ञ करने का संकल्प लेते हैं। यज्ञ से वे स्वर्ग का राज्य प्राप्त करते हैं। भगवान ब्रह्मा ने प्रयाग में यज्ञ किया। यज्ञ से सृष्टि की प्रक्रिया चलती है और यज्ञ संकल्प से उत्पन्न होता है। यह देवों द्वारा लिया जाने वाला संकल्प होता है।

ऋषि विनियोग के अनुरूप संकल्प का निर्माण करता है। विनियोग में ही मन्त्र की क्षमता और फल का वर्णन रहता है।

अतः आप्तों (ऋषियों) द्वारा मन्त्र के प्रति फल के अनुरूप संकल्प बनाया जाता है।

यह संकल्प का आप्त स्वरूप है ।

आगम ग्रंथों में संकल्प को सिद्धि का पूर्व स्वरूप कहा गया है। जैसा संकल्प होगा वैसी सिद्धि होगी। अतः संकल्प बहुत शुद्ध और लघु होना चाहिए। आज जो संकल्प बनाये जाते हैं वे मन्त्र की क्षमता से अधिक की कामना को लेकर चलने वाले होते हैं।अतः सिद्धि संकल्प का साथ छोड़ देती है।

संकल्प में दिग, देश, काल और अभीष्ट का उल्लेख होता है। “ॐ तत् सत् ” संकल्प को ब्रह्ममय बनाता है।अतः संकल्प में भूत, भविष्य और वर्तमान को साधने की क्षमता होती है क्योंकि भगवान कालात्मा होते हैं। सारे संकल्प उनके भीतर ही विद्यमान होते हैं — कालात्मा भगवान् हरि: । भागवतम ।

निबन्ध ग्रंथों का संकल्प भी आप्त मत को लेकर निर्मित हुआ है। इसमें

धर्मशास्त्र के धर्मकल्पद्रुम, पुरुषार्थ चिंतामणि, व्रतराज, कालमाधव, निर्णय-धर्म सिन्धु आदि समाहित हैं।

आगम ग्रंथों के संकल्प अत्यन्त तीक्ष्ण, लक्ष्यवेधी और प्रमिताक्षर होते हैं। संस्कारों के लिए किये जाने वाले संकल्प डेढ़ दो पंक्ति के होते हैं।

यजमानों की कामना पूर्ति के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों के संकल्प अतिशय कामनाओं को व्यक्त करते हैं जिनमें अनुपयुक्त अंश भी बहुत होता है जैसे महामृत्युंजय मन्त्र के संकल्प में पुत्र-पौत्रादि-सुखं संप्राप्तये,पदप्रतिष्ठा यशोवर्धनार्थम् आदि को जोड़ना ।

बृहत्तम संकल्प का स्वरूप हेमाद्रि संकल्प में श्रावणी के समय सुनने को मिलता है जिसे बोलने की इच्छा नहीं होती है।

अतः कल्प के आरम्भ से लेकर आज तक नानाविध संकल्प गढ़े गए हैं जिनमें व्यक्ति की कामना का निवेश दिग-देश-काल से जुड़ा रहता है।

– डॉ कामेश्वर उपाध्याय,

अखिल भारतीय विद्वत्परिषद

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