पुत्रैषणा त्यागें, अपना पिंडदान जीते जी स्वयं करें

माता पिता को अपने पुत्र के लिए बड़ी चिन्ता रहती है, परन्तु पुत्रैषणा के साथ ही अनेक वासनाएँ भी आती हैँ ।पुत्रैषणा के पीछे वित्तैषणा और वित्तैषणा के पीछे लोकैषणा जागती है ।

वंश रक्षण हेतु सत्कर्म करना चाहिए ।

यदि पुत्र ही सद्गति दे सकता तो सभी पुत्रवानो की सद्गति होनी चाहिए ।

पिता को ऐसी आशा नहीं करनी चाहिए कि मेरे पुत्र द्वारा श्राद्ध करने से मेरी सद्गति हो जाएगी।

श्राद्ध करने से जीव अच्छी योनि मे तो जाता है, किन्तु जन्म मरण के चक्र से नही छूटता ।

श्राद्ध और पिण्डदान मुक्ति नहीं दिला सकते ।

श्राद्ध कर्म-धर्म है ।

श्राद्ध करने से नरक से छुटकारा मिल सकता है किन्तु मुक्ति नहीं।

श्राद्ध करने की मनाही नहीं,इससे पितृगण प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैँ ।

पिण्डदान का अर्थ—

शरीर को पिण्ड कहते हैं।

इसे शरीर को अर्पण करना ही पिण्डदान है जो अपने शरीर को ईश्वरार्पण करता है उसी का जीवन सार्थक है ,उसी का पिण्डदान सच्चा है अन्यथा आटे के पिण्डदान से मुक्ति मिल जाती तो ध्यान, योग तप आदि साधनो का निर्देश ही क्यो ?

जीवन मृत्यु के त्रास से केवल स्वयं द्वारा किया गया सत्कर्म छुड़ा सकता है ।

जीव स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है—-

“उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।”

स्वयं अपने द्वारा ही अपनी आत्मा का संसार सागर से उद्धार करें ,अपनी आत्मा को अधोगति की ओर न ले जायँ ।

जीव अपना उद्धार स्वयं नहीं करेगा तो कौन करेगा ?

मनुष्य का अपने सिवा और कौन हितकारी हो सकता है?

यदि स्वयं अपना श्रेय न करेगा तो पुत्रादि क्या करेंगे ?

ईश्वर के लिए जो जीता है , उसे अवश्य मुक्ति मिलती है ।

श्रुति भगवती का कथन -जब तक ईश्वर का अपरोक्ष अनुभव न हो , ज्ञान न हो , तब तक मुक्ति नहीं मिलती । मृत्यु पूर्व जो भगवान का अनुभव करते हैं , उन्हें ही मुक्ति मिलती है—–

“तमेव विदित्वादि मृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेष्यनाय ”

उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु का उल्लंघन कर जाता है । परमपद की प्राप्ति के लिए इसके अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं है।

अपने पिण्ड अर्थात् शरीर को ईश्वरार्पण करने से ही कल्याण हो सकता है ।

अपना पिण्डदान स्वयं अपने हाथो करना ही उत्तम हैं। जो पिण्ड मे है वही ब्रह्माण्ड में भी है ।

इस शरीर को ईश्वरार्पण करने का निश्चय करें ।

अपना पिण्डदान मानव क्यों नही करते ?

घर में जो कुछ है वह सभी सत्कर्म में लगाकर नारायण का नाम क्यों नही लेते ?

असुख में सुख का अनुभव संसारी मानव क्यो नहीं करते।

– आचार्य शिवप्रसाद त्रिपाठी

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