भक्ति को कैसे गहन व सुदृढ़ करें

हमें अपने हृदय में भगवान की भक्ति को और अधिक गहनता व दृढ़ता प्रदान करने का प्रयास करना चाहिये ….

किसी भी मंदिर में जहाँ ठाकुर जी की आरती विधि-विधान से होती है वहाँ नियमित रूप से आरती के समय जाने पर हृदय में भक्ति निश्चित रूप से जागृत होती है। आरती के समय बजाये जाने वाले घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व शंख आदि की ध्वनि अनाहत चक्र पर चोट करती है। अनाहत चक्र से ही आध्यात्म का आरम्भ होता है और वहीं भक्ति का जागरण होता है। अनाहत चक्र का स्थान है मेरु दंड में ह्रदय के पीछे थोडा सा ऊपर पल्लों (shoulder blades) के बीच में।

जो साधक नियमित रूप से ध्यान करते हैं उन्हें अनाहत चक्र के जागृत होने पर ऐसी ही ध्वनि सुनती है जो हृदय में दिव्य प्रेम की निरंतर वृद्धि करती है। उस ध्वनि की ही नक़ल कर भारत में आरती के समय मंदिरों में घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व टाली आदि बजाने की परम्परा आरम्भ की गयी। मंदिरों में होने वाली घंटा ध्वनि भी अनाहत चक्र को आहत करती है।

मंदिरों के शिखर आदि के बनाने की शैली भी ऐसी होती है कि वहाँ दिव्य स्पंदन बनते हैं और खूब देर तक बने रहते है। वहाँ जाते ही शांति का आभास होता है।मंदिर में आरती के बाद कुछ देर तक ठाकुर जी के सम्मुख मेरु दंड को उन्नत रखते हुए बैठ कर अनाहत चक्र पर द्वादशाक्षरी भागवत मन्त्र का जाप करना चाहिए — कम से कम एक माला, तीन या अधिक कर सकें तो और भी उत्तम है।

रात्रि को सोने से पूर्व अनाहत चक्र पर खूब गहरा ध्यान या जप कर के ही सोना चाहिए| इससे दुसरे दिन प्रातः उठते समय भक्तिमय चेतना रहती है| प्रातः उठते ही पुनश्चः खूब देर तक ध्यान व जप करना चाहिए। बिना तुलसी-चरणामृत लिए प्रातःकाल कुछ भी आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, और एकादशी का व्रत करना चाहिए। पूरे दिन प्रभु का स्मरण रखें, यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः प्रारम्भ कर दें। बिना भक्ति के हम चाहे कितनी भी यंत्रवत (mechanical) साधना कर लें, कुछ भी लाभ नहीं होगा।

कभी ऐसे स्थान पर जाएँ जहाँ सरोवर हो या नदी के बहते हुए जल की ध्वनि आ रही हो वहाँ विशुद्धि चक्र पर (कंठकूप के पीछे गर्दन के मूल में) ध्यान करना चाहिए। इससे विशुद्धि चक्र आहत होता है और चैतन्य के विस्तार की अनुभूति होती है। ऐसे स्थान पर गहरा ध्यान करने पर यह अनुभूति शीघ्र होती है कि हम यह देह नहीं बल्कि सर्वव्यापक चैतन्य हैं।

आज्ञाचक्र पर ध्यान करते करते प्रणव की ध्वनि (समुद्र की गर्जना जैसी) सुननी आरम्भ हो जाती है तब उसी पर ध्यान करना चाहिए।

मूलाधारचक्र पर भ्रमर या मधुमक्खियों के गुंजन, स्वाधिष्ठानचक्र पर बांसुरी कि ध्वनि, मणिपुरचक्र पर वीणा की ध्वनि, अनाहतचक्र पर घंटे,घड़ियाल,नगाड़े आदि की मिलीजुली ध्वनि, विशुद्धिचक्र पर बहते जल की ध्वनि, और आज्ञाचक्र पर समुद्र की गर्जना जैसी ध्वनि सुनाई देती है। इन ध्वनियों से इन चक्रों की जागृति भी होती है।

मंदिरों के महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता, उनकी पुनर्प्रतिष्ठा करनी ही पड़ेगी। मंदिर सामूहिक साधना के केंद्र हैं जहाँ अनेक लोग साधना करते हैं। वहाँ ऐसे स्पंदनों का निर्माण हो जाता है कि नवागंतुक की चेतना भी भक्ति से भर जाती है। उनकी स्थापत्य कला भी ऐसी होती है जहाँ सूक्ष्म दिव्य स्पंदनों का निर्माण और संरक्षण बहुत दीर्घकाल तक रहता है।

मंदिरों में आरती व भजन पूजन, भक्तों के कल्याण के लिए होते है। विधिवत आरती के समय उपस्थित भक्तों के ह्रदय भक्ति से भर जाते हैं। ठाकुर जी को हमसे हमारे परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। मंदिरों में नियमित जाने से भक्तों का आपस में मिलना जुलना होता है इससे उनमें पारस्परिक प्रेम बना रहता है। मंदिर का शिखर दूर से ही दिखाई देता है अतः इसे ढूँढने में कठिनाई नहीं होती। मंदिर के साथ धर्मशाला भी होती है ताकि आगंतुक वहां विश्राम कर सकें। प्रसाद के रूप में क्षुधा शांति की भी व्यवस्था होती है।

अंग्रेजों के शासन से पूर्व मंदिरों के साथ साथ विद्यालय भी होते थे जहाँ नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी। अंग्रेजों ने ऐसे सभी विद्यालय नष्ट करवा दिए। मंदिरों के पुजारी व महंत धर्म-प्रचारक होते थे। हिन्दू साधू संतों के हाथ में ही मंदिरों की व्यवस्था होनी चाहिए। उन्हें फिर से धर्म-प्रचार के केन्द्रों के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना ही पड़ेगा।

लोग मुझसे प्रश्न करते हैं कि भक्ति से क्या लाभ होगा? यदि दो पैसे का लाभ हो तो भक्ति करें अन्यथा क्यों समय नष्ट करें। भक्ति सिर्फ अपने हृदय के प्रेम की अभिव्यक्ति है, इसमें लाभ वाली कोई बात नहीं है। किसी लाभ के लिए करते हैं तो जो कुछ भी पास में है वह भी छीन लिया जाएगा। जिन लोगों के लिए भगवान एक साधन मात्र है और संसार साध्य, उन्हें इस मार्ग में आकर अपना अमूल्य समय नष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे संसार में अपने मजे लें।

भक्ति-सूत्र में नारद जी कहते हैं कि भगवान के भक्त अपने कुल, जाति का ही गौरव नहीं होते वल्कि पूरे विश्व को गौरवान्वित करते हैं। ऐसे दिव्य पुरुष संसार के प्राणियों में दयाभाव व सहिष्णुता बढ़ाकर जगत की वासना को शुद्ध करते हैं। ऐसे प्राणी धरती पर चलते फिरते भगवान हैं। वे जहाँ रहते हैं वह स्थान तीर्थ बन जाता है। भक्तों के पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी इनसे सनाथ हो जाती है।

भगवान की भक्ति के लिए किसी शुभ समय या मुहूर्त की प्रतीक्षा न करें। जब भी भगवान की याद आये वह समय सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है। अभी इसी समय से बढकर कोई और अच्छा समय हो ही नहीं सकता। अपने जीवन का केंद्रबिंदु भगवान को ही बनायें, जीवन का हर कार्य उसी की प्रसन्नता के लिए करें और उसी को कर्ता, साक्षी और दृष्टा भी बनायें। सत्संग, स्वाध्याय और सात्विक जीवन पद्धति …. दिनचर्या का अंग हो जाये। भगवान के प्रति परमप्रेम और तीब्र अभीप्सा जागृत हो जाने पर जीवन में प्रभु सद्गुरु के रूप में अवश्य आते है।

परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्माओं को नमन।

ॐ तत्सत् ! ॐ ऐं गुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

⁃ कृपा शंकर

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